विडम्बना !
हां! यह विडम्बना ही है!!
लेकिन एक बड़े फर्क के साथ । यह विडम्बना ' आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर सादर आमंत्रित है। अल्प ज्ञान धारक भी चकित है कि ज्ञानी नेताओं, कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी पार्टी ऐसे किसी 'विडम्बना' को बार-बार जन्म कैसे दे रही है?
हां, ऐसा ही हो रहा है। पिछले वर्ष 2015 के आरंभ में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में अपने प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल से उनका 'गौत्र' पूछ लिया था। जवाब मतदाता ने दिया। 70 में से 67 सीटें केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' को और सिर्फ तीन सीटें मोदी की भाजपा को।
फिर 2015 के अंत में आया बिहार चुनाव । चुनावी दंगल में बिहार के नीतीश के मुकाबले स्वयं मोदी ने अपनी पार्टी की कमान संभाली। प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी गई। लो, यहां भी मोदी ने नीतीश का 'डीएनए' पूछ लिया! परिणाम? मोदी व उनकी पार्टी भाजपा चित, नीतीश विजयी।
और अब अगले वर्ष, 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव की गूंज के बीच प्रधानमंत्री ने तो नहीं हां, उनकी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता दयाशंकर सिंह ने प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी, दलितों की 'देवी' के रूप में लोकप्रिय बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को ' ... या' निरूपित कर डाला। ठीक उस समय जब बसपा के कुछ बड़े नेता मायावती पर गंभीर आरोप लगाते हुए पार्टी का दामन छोड़ रहे हैं। आहत मायावती सुरक्षात्मक मुद्रा में आ गई थीं। ऐसा लग रहा था कि इन नेताओं के पार्टी छोडऩे से बसपा की सत्ता की दावेदारी हाशिए पर चली गई थी। कार्यकर्ता ही नहीं अनेक नेता भी मायूस हो बसपा की चुनावी संभावनाओं पर सवाल खड़े करने लगे थे। लेकिन, बैठे बिठाए मायावती और उनकी बसपा को 'दयाशंकर' की संजीवनी मिल गई। उनकी फिसलती जुबान से निकले शब्दों ने बसपा की दरकती दीवार को न केवल पाट दिया बल्कि, मायूस कार्यकर्ताओं, नेताओं में ऐसा जोश भर दिया कि प्रदर्शन का पिछले दो दशक का रिकार्ड तोड़ते हुए भाजपा के विरोध में हजारों-हजार की संख्या में बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर निकल आए। अनायास मिली संजीवनी ने सचमुच बसपा के हौसले ही नहीं बुलंद किए बल्कि, उसकी चुनावी संभावनाओं को भी अन्य दलों के मुकाबले शीर्ष पर ला खड़ा कर दिया।
पिछले दिनों अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे ऐसे लोगों को नहीं जानते जो विवादित बयानों से ध्रुवीकरण के प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के इन शब्दों को राजनीतिक विश्लेषकों ने तब भी संदेह के घेरे में रखा था। क्योंकि केंद्र में सत्ता प्राप्ति के बाद से ही भाजपा एवं इससे जुड़े अन्य संगठनों के अनेक नेताओं के विवादास्पद बयान सुर्खियां प्राप्त कर चुके थे। उनके बयान कथित 'ध्रुवीकरण' के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे। बयान टुटपूंजिए नेताओं की जुबान से नहीं बल्कि, सांसद और मंत्री की भी जुबान से निकल रहे थे। सारे बयान ' ध्रुवीकरण' को ध्यान में रखकर ही दिए जा रहे थे और दिए जा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का जानकारी से इनकार सवाल तो खड़े करेगा ही। और अब उत्तर प्रदेश के दयाशंकर सिंह जैसे नेता का घोर आपत्तिजनक बयान के क्या मायने? चूंकि, उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना देख रही भाजपा मायावती को एक बड़ी चुनौती के रूप में ले रही थी, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य में अपने प्रभाव की वृद्धि की दिशा में ताल ठोक रहा था। मायावती के कभी दाहिना हाथ माने जानेवाले प्रभावशाली स्वामी प्रसाद मौर्या और एक अन्य दमदार नेता आर.के. चौधरी का बसपा छोडऩा , सच पूछा जाए तो भाजपा की इच्छा के अनुकूल ही हुआ। इन दोनों नेताओं ने मायावती के ऊपर गंभीर व्यक्तिगत आरोप लगाए। आहत मायावती जवाब तो दे रही थीं किंतु, बसपा का आम कार्यकर्ता निराशा की गर्त में जाने लगा था। मायावती इससे भयभीत थीं। पार्टी को हो रही क्षति की पूर्ति के लिए व्यग्र मायावती को सहारा स्वयं भाजपा के दयाशंकर सिंह ने प्रदान कर दिया। निश्चय ही दयाशंकर सिंह ने इसके लिए पार्टी नेतृत्व से इजाजत नहीं ली होगी। इस बिंदू पर प्रधानमंत्री मोदी को उनके अंजान होने के प्रति संदेह का लाभ दिया जा सकता है। लेकिन जब आज की भारतीय जनता पार्टी की पहचान नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नाम से हो रही है, प्रधानमंत्री की ऐसी अनभिज्ञता महंगी साबित होगी। बल्कि, ऐसा होना शुरू भी हो गया है। सभी राजनीकि विश्लेषक और राजदलों के नेता एकमत हैं कि आगामी वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम न केवल भारतीय जनता पार्टी बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के भविष्य का निर्धारण करेंगे। कोई आश्च्र्य नहीं कि पार्टी ने अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश में झोंकना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लगातार राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा मतदाता को प्रभावित करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। सकारात्मक परिणाम के संकेत भी मिलने शुरू हो गए थे। किंतु अब '...या' प्रकरण महंगा पड़ता दिखने लगा है।
मेरी चिंता एक उत्तर प्रदेश, भाजपा या बसपा को लेकर नहीं है। चिंता है कथित ध्रुवीकरण के प्रयासों से उत्पन्न हो रहे अंधकार को लेकर। भय है कि इस अंधकार के आगो में कहीं पूरा देश उलझ कर न रह जाए। उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक एवं धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के प्रयास शुरू हुए और अब इसने भयंकर रूप में जातीय स्वरूप ले लिया। वहीं प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में भी जातीय ध्रुवीकरण का दैत्य खतरनाक रूप से उभर कर सामने आया है। गुजरात में लोग इस ध्रुवीकरण के अंतर्गत सड़कों पर निकल आए। वहां भी मामला दलित उत्पीडऩ का बना। सांप्रदायिक आधार परअल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करने के बाद अगर विशाल दलित और पिछड़े समाज को अलग करने की कोशिश की जाती है तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत कहां से उदय होगा। सबका साथ, सबका विकास के संकल्प के साथ दिन-रात देश के विकास की चिंता करनेवाले नरेंद्र मोदी को क्या सचमुच 'अंधकार' में रखा जा रहा है। क्या कहीं जान-बूझकर तो प्रधानमंत्री मोदी को 'अंजान' के ताबे में तो नहीं रखा जा रहा है। अब तो बात सिर्फ उत्तर प्रदेश में राजनीतिक फसल काटने के मोदी सपने पर पानी फेरने से आगे 'मॉडल गुजरात' में वर्चस्व की जगह अस्तित्व की लड़ाई की संभावना प्रबल दिखने लगी है। कश्मीर, उत्तर प्रदेश और गुजरात की ताजा घटनाएं निश्चिय ही देश के अन्य भागों को भी प्रभावित करेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कम-अज़-कम अब सतर्क हो जाना चाहिए। 'अंजान' घेरे से बाहर निकल सचाई का सामना करें। क्योंकि अगर बिहार की पुनरावृत्ति उत्तर प्रदेश में हुई तब स्वयं उनके नेतृत्व पर सवाल उठ खड़े होंगे। राजनीति का बिस्तर हमेशा गद्देदार नहीं होता। जब अनायास उस पर कांटे उत्पन्न होते हैं तो वे शरीर में इतने छिद्र कर देेते हैं कि उनका इलाज लगभग असंभव हो जाता है। विवादित बयानों वाले अपने सहयोगियों की पहचान कर उन्हें नियंत्रित करें। अल्पसंख्यक, दलित-पिछड़ों की फौज अगर सामने खड़ी हो गई तब राजनीतिक विजय हासिल नहीं की जा सकती। दयाशंकर सिंह प्रकरण के बाद अब यह पूछा जाना कि देह बेचने और देश बेचने में क्या फर्क है, तब नरेंद्र मोदी सरीखा राष्ट्रहित को बेचैन प्रधानमंत्री मौन कैसे रह सकता है।
हां! यह विडम्बना ही है!!
लेकिन एक बड़े फर्क के साथ । यह विडम्बना ' आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर सादर आमंत्रित है। अल्प ज्ञान धारक भी चकित है कि ज्ञानी नेताओं, कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी पार्टी ऐसे किसी 'विडम्बना' को बार-बार जन्म कैसे दे रही है?
हां, ऐसा ही हो रहा है। पिछले वर्ष 2015 के आरंभ में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में अपने प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल से उनका 'गौत्र' पूछ लिया था। जवाब मतदाता ने दिया। 70 में से 67 सीटें केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' को और सिर्फ तीन सीटें मोदी की भाजपा को।
फिर 2015 के अंत में आया बिहार चुनाव । चुनावी दंगल में बिहार के नीतीश के मुकाबले स्वयं मोदी ने अपनी पार्टी की कमान संभाली। प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी गई। लो, यहां भी मोदी ने नीतीश का 'डीएनए' पूछ लिया! परिणाम? मोदी व उनकी पार्टी भाजपा चित, नीतीश विजयी।
और अब अगले वर्ष, 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव की गूंज के बीच प्रधानमंत्री ने तो नहीं हां, उनकी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता दयाशंकर सिंह ने प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी, दलितों की 'देवी' के रूप में लोकप्रिय बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को ' ... या' निरूपित कर डाला। ठीक उस समय जब बसपा के कुछ बड़े नेता मायावती पर गंभीर आरोप लगाते हुए पार्टी का दामन छोड़ रहे हैं। आहत मायावती सुरक्षात्मक मुद्रा में आ गई थीं। ऐसा लग रहा था कि इन नेताओं के पार्टी छोडऩे से बसपा की सत्ता की दावेदारी हाशिए पर चली गई थी। कार्यकर्ता ही नहीं अनेक नेता भी मायूस हो बसपा की चुनावी संभावनाओं पर सवाल खड़े करने लगे थे। लेकिन, बैठे बिठाए मायावती और उनकी बसपा को 'दयाशंकर' की संजीवनी मिल गई। उनकी फिसलती जुबान से निकले शब्दों ने बसपा की दरकती दीवार को न केवल पाट दिया बल्कि, मायूस कार्यकर्ताओं, नेताओं में ऐसा जोश भर दिया कि प्रदर्शन का पिछले दो दशक का रिकार्ड तोड़ते हुए भाजपा के विरोध में हजारों-हजार की संख्या में बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर निकल आए। अनायास मिली संजीवनी ने सचमुच बसपा के हौसले ही नहीं बुलंद किए बल्कि, उसकी चुनावी संभावनाओं को भी अन्य दलों के मुकाबले शीर्ष पर ला खड़ा कर दिया।
पिछले दिनों अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे ऐसे लोगों को नहीं जानते जो विवादित बयानों से ध्रुवीकरण के प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के इन शब्दों को राजनीतिक विश्लेषकों ने तब भी संदेह के घेरे में रखा था। क्योंकि केंद्र में सत्ता प्राप्ति के बाद से ही भाजपा एवं इससे जुड़े अन्य संगठनों के अनेक नेताओं के विवादास्पद बयान सुर्खियां प्राप्त कर चुके थे। उनके बयान कथित 'ध्रुवीकरण' के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे। बयान टुटपूंजिए नेताओं की जुबान से नहीं बल्कि, सांसद और मंत्री की भी जुबान से निकल रहे थे। सारे बयान ' ध्रुवीकरण' को ध्यान में रखकर ही दिए जा रहे थे और दिए जा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का जानकारी से इनकार सवाल तो खड़े करेगा ही। और अब उत्तर प्रदेश के दयाशंकर सिंह जैसे नेता का घोर आपत्तिजनक बयान के क्या मायने? चूंकि, उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना देख रही भाजपा मायावती को एक बड़ी चुनौती के रूप में ले रही थी, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य में अपने प्रभाव की वृद्धि की दिशा में ताल ठोक रहा था। मायावती के कभी दाहिना हाथ माने जानेवाले प्रभावशाली स्वामी प्रसाद मौर्या और एक अन्य दमदार नेता आर.के. चौधरी का बसपा छोडऩा , सच पूछा जाए तो भाजपा की इच्छा के अनुकूल ही हुआ। इन दोनों नेताओं ने मायावती के ऊपर गंभीर व्यक्तिगत आरोप लगाए। आहत मायावती जवाब तो दे रही थीं किंतु, बसपा का आम कार्यकर्ता निराशा की गर्त में जाने लगा था। मायावती इससे भयभीत थीं। पार्टी को हो रही क्षति की पूर्ति के लिए व्यग्र मायावती को सहारा स्वयं भाजपा के दयाशंकर सिंह ने प्रदान कर दिया। निश्चय ही दयाशंकर सिंह ने इसके लिए पार्टी नेतृत्व से इजाजत नहीं ली होगी। इस बिंदू पर प्रधानमंत्री मोदी को उनके अंजान होने के प्रति संदेह का लाभ दिया जा सकता है। लेकिन जब आज की भारतीय जनता पार्टी की पहचान नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नाम से हो रही है, प्रधानमंत्री की ऐसी अनभिज्ञता महंगी साबित होगी। बल्कि, ऐसा होना शुरू भी हो गया है। सभी राजनीकि विश्लेषक और राजदलों के नेता एकमत हैं कि आगामी वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम न केवल भारतीय जनता पार्टी बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के भविष्य का निर्धारण करेंगे। कोई आश्च्र्य नहीं कि पार्टी ने अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश में झोंकना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लगातार राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा मतदाता को प्रभावित करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। सकारात्मक परिणाम के संकेत भी मिलने शुरू हो गए थे। किंतु अब '...या' प्रकरण महंगा पड़ता दिखने लगा है।
मेरी चिंता एक उत्तर प्रदेश, भाजपा या बसपा को लेकर नहीं है। चिंता है कथित ध्रुवीकरण के प्रयासों से उत्पन्न हो रहे अंधकार को लेकर। भय है कि इस अंधकार के आगो में कहीं पूरा देश उलझ कर न रह जाए। उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक एवं धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के प्रयास शुरू हुए और अब इसने भयंकर रूप में जातीय स्वरूप ले लिया। वहीं प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में भी जातीय ध्रुवीकरण का दैत्य खतरनाक रूप से उभर कर सामने आया है। गुजरात में लोग इस ध्रुवीकरण के अंतर्गत सड़कों पर निकल आए। वहां भी मामला दलित उत्पीडऩ का बना। सांप्रदायिक आधार परअल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करने के बाद अगर विशाल दलित और पिछड़े समाज को अलग करने की कोशिश की जाती है तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत कहां से उदय होगा। सबका साथ, सबका विकास के संकल्प के साथ दिन-रात देश के विकास की चिंता करनेवाले नरेंद्र मोदी को क्या सचमुच 'अंधकार' में रखा जा रहा है। क्या कहीं जान-बूझकर तो प्रधानमंत्री मोदी को 'अंजान' के ताबे में तो नहीं रखा जा रहा है। अब तो बात सिर्फ उत्तर प्रदेश में राजनीतिक फसल काटने के मोदी सपने पर पानी फेरने से आगे 'मॉडल गुजरात' में वर्चस्व की जगह अस्तित्व की लड़ाई की संभावना प्रबल दिखने लगी है। कश्मीर, उत्तर प्रदेश और गुजरात की ताजा घटनाएं निश्चिय ही देश के अन्य भागों को भी प्रभावित करेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कम-अज़-कम अब सतर्क हो जाना चाहिए। 'अंजान' घेरे से बाहर निकल सचाई का सामना करें। क्योंकि अगर बिहार की पुनरावृत्ति उत्तर प्रदेश में हुई तब स्वयं उनके नेतृत्व पर सवाल उठ खड़े होंगे। राजनीति का बिस्तर हमेशा गद्देदार नहीं होता। जब अनायास उस पर कांटे उत्पन्न होते हैं तो वे शरीर में इतने छिद्र कर देेते हैं कि उनका इलाज लगभग असंभव हो जाता है। विवादित बयानों वाले अपने सहयोगियों की पहचान कर उन्हें नियंत्रित करें। अल्पसंख्यक, दलित-पिछड़ों की फौज अगर सामने खड़ी हो गई तब राजनीतिक विजय हासिल नहीं की जा सकती। दयाशंकर सिंह प्रकरण के बाद अब यह पूछा जाना कि देह बेचने और देश बेचने में क्या फर्क है, तब नरेंद्र मोदी सरीखा राष्ट्रहित को बेचैन प्रधानमंत्री मौन कैसे रह सकता है।
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