बात सिर्फ संयोग की होती तो मेरी कलम इस पहलू का स्पर्श नहीं करती। यह तो एक नीतिगत वैचारिक बड़े मंथन के बाद लिया गया फैसला है। केंद्र सरकार को ‘सर्वसमाजी सरकार’ का लबादा पहना अटलबिहारी वाजपेयी प्रदर्शित मार्ग के वरण का फैसला है। हां ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगियों के साथ विचार मंथन कर केंद्रीय मंत्रिपरिषद को एक नयी पहचान देने की कोशिश की है। एक ऐसी पहचान जो मोदी सरकार पर अब तक लगते रहे एक विशिष्ट विचारधारा की पोषक सरकार संबंधी आरोप से मुक्ति दिला सके। कार्यकाल के दो वर्ष पश्चात उठाया गया यह कदम कारगर तभी साबित होगा जब मोदी सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी नीयत की स्वच्छता से देश को आश्वस्त कर पाने में कामयाब होंगे। फिलहाल यह संदिग्ध दिखता है।
यह दोहराना ही होगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय का श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है। लेकिन, यही वह असहज कारण है जो अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने आश्वासनों-वादों के जरिए आम जनता के बीच अपेक्षाओं का जो पहाड़ खड़ा किया था, पूर्ति की कसौटी पर विफलता के कारण गले की फांस बनती जा रही है। चूंकि, विफलता का आरोप प्राय: हर क्षेत्र पर लगा, लोग अधीर हो उठे। शंका ने जन्म लिया कि सरकार सिर्फ शब्दों की खुराक से जनता का पेट भरना चाहती है। व्यवहार के स्तर पर घोषित योजनाओं की अनुपलब्धता सरकार की नीयत को लेकर चुगली करती रही। सरकार व प्रधानमंत्री मोदी जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। ऐसे में जनता को आश्वस्त करने, आकर्षित करने के लिए सकारात्मक रूप से मजबूत परिवर्तन की जरूरत प्रधानमंत्री ने महसूस की। केंद्रीय मंत्रिपरिषद व मंत्रियों के विभागों में ताजा फेरबदल इसी जरूरत की पूर्ति की दिशा में एक कदम है।
यह ठीक है कि इस निर्णय को अंजाम देने की प्रक्रिया में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी को अपने उवाचित अनेक शब्दों को निगलना पड़ा है। किंतु, समय एवं परिस्थितियां भारी पड़ीं। 2014 में सरकार गठन के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रिपरिषद के लघु आकार को सगर्व उद्धृत करते हुए टिप्पणी की थी कि ‘हम छोटी सरकार और अधिक कार्य ’ की नीति पर चलेंगे। निर्णय कारगर साबित नहीं हुआ। दो वर्ष के अनुभव व परिणाम से मजबूर प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्री परिषद के लघु आकार को कुछ ऐसा ‘जम्बो’ स्वरूप दिया कि कांग्रेस नेतृत्व की पिछली यूपीए सरकार को आकार के मामले में पीछे छोड़ दिया। बावजूद इसके अगर ताजा परिवर्तन अथवा फेरबदल के उपयोगी सकारात्मक परिणाम मिलते हैं तब देश उसे स्वीकार कर लेगा। कसौटी पर परिणाम ही रहेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बहुप्रचारित ‘परिवर्तन’ की याद करते हुए कहा है कि ‘ मैं स्वयं को सफल तब मानूंगा जब लोग परिवर्तन को महसूस करेंगे।’ अर्थात लोगों को परिवर्तन का एहसास हो। प्रधानमंत्री की भावना का आदर करते हुए मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि फिलहाल अर्थात पिछले दो वर्षों का अनुभव प्रधानमंत्री की अपेक्षा के बिलकुल विपरीत रहा है। अब तक जिन परिवर्तनों को अपने पक्ष में बताने की कोशिश प्रधानमंत्री व उनके सहयोगी करते आए हैं, क्षमा करेंगे, लोगों को उनका एहसास नहीं हो पाया। जो परिवर्तन सामने परिलक्षित हुए उन्हें सकारात्मक नहीं नकारात्मक रूप में लिया गया।
उदाहरण अनेक हैं। कुछ एक का उल्लेख कर ही यह साबित किया जा सकता है कि लोग निराश हुए हैं। सर्वप्रथम विदेश नीति को उद्धृत किया जा सकता है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में अति उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर पड़ोसियों के साथ मधुर संबंध की जरूरत को चिन्हित किया था। पूर्व की सरकारों के कार्यकाल में सीमा पार से घुसपैठ की घटनाओं पर व्यंग्य कसते हुए प्रधानमंत्री मोदी सगर्व कहते आए हैं कि सीमा पार से गोलियों का जवाब गोलों से दिया जाएगा। वे अगर एक सिर काटेंगे तो हम दस सिर काटेंगे। केंद्र में सरकार गठन के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने सीमा पार से आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिए जाने की घटनाओं पर कड़ी जवाबी कार्रवाई की बातें कही थीं। किंतु, सच यही है कि सीमा पार से घुसपैठ व आतंक की घटनाओं में निरंतर वृद्धियां हुईं और हमारे निर्दोष जवान शहीद होते चले गए। सीमा पार कर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने हमारे देश में घुस पठानकोट एयरबेस पर आक्रमण जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। अभी-अभी कश्मीर में आतंकी हमलों की अनेक वारदातें हुईं। परिणामस्वरूप क्या यह सच नहीं कि हताहतों का ताजा स्कोर हमारे खिलाफ गया। जहां हमारे आठ जवान शहीद हुए वहीं पाकिस्तान के मात्र दो। क्या यही एक की एवज में दस सिर काट लाने संबंधी गर्वित घोषणा की परिणति है। अन्य पड़ोसी छोटे नेपाल व बड़े चीन के साथ भी हमारे संबंध बद से बदतर होते चले गए हैं। हालत यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर पहल एवं संभावनायुक्त दावों के बावजूद ‘एनएसजी’ की सदस्यता पाने में भारत विफल रहा। हमारी विदेश नीति की यह एक भारी विफलता रही है।
आर्थिक मोर्चे पर भी तमाम दावों के बावजूद विफलता और विफलताएं ही हमारे पाले में आई हैं। सरकारी -गैर सरकारी प्रचार माध्यमों के द्वारा परिवर्तन का एहसास कराने की कोशिश तो की गई किंतु फिर वही ढाक के तीन पात। बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुकी अर्थव्यवस्था को संभालने और आर्थिक दिवालियेपन की दुरूह स्थिति से बचने के लिए अनेक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्रों में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा। केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन व खुदरा व्यापार के वैसे क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दी जिसका तीखा विरोध अन्य लोगों के अलावा स्वयं नरेंद्र मोदी करते रहे हैं। तब कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार द्वारा ऐसे निवेशों में आंशिक अनुमति दिए जाने का प्रस्ताव लाया गया था। विरोध करते हुए स्वयं नरेंद्र मोदी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में टिप्पणी की थी कि ‘ कांग्रेस देश को विदेशियों के हाथ में सौंप रही है।’ क्या इस बिंदू पर अब प्रधानमंत्री मोदी के विचार बदल गए हैं? सहसा विश्वास नहीं होता। फिर मत परिवर्तन का कारण?
मजबूरी, परिस्थितियों की मजबूरी। बाजार और उद्योग-धंधों में व्याप्त निराशा और धन की अनुपलब्धता से मजबूर मोदी सरकार को शत प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति देने संबंधी निर्णय लेना पड़ा। यह ठीक है कि ऐसी उदार व्यवस्था के माध्यम से देश में उद्योग-धंधों को मजबूती मिलेगी, रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। लेकिन इसमें निहित संभावित खतरों के प्रति सरकार को सजग, सतर्क रहना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि ‘नियंत्रण’ भारत के पास ही हो। ध्यान रहे विदेशियों के धन-प्रवेश के साथ संस्कृति का भी प्रवेश सुगम हो उठता है। और चूंकि भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता पर कोई समझौता नहीं कर सकता, विदेशी पूंजी निवेश पर कड़ी नजर रखनी पड़ेगी।
यह दोहराना ही होगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय का श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है। लेकिन, यही वह असहज कारण है जो अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने आश्वासनों-वादों के जरिए आम जनता के बीच अपेक्षाओं का जो पहाड़ खड़ा किया था, पूर्ति की कसौटी पर विफलता के कारण गले की फांस बनती जा रही है। चूंकि, विफलता का आरोप प्राय: हर क्षेत्र पर लगा, लोग अधीर हो उठे। शंका ने जन्म लिया कि सरकार सिर्फ शब्दों की खुराक से जनता का पेट भरना चाहती है। व्यवहार के स्तर पर घोषित योजनाओं की अनुपलब्धता सरकार की नीयत को लेकर चुगली करती रही। सरकार व प्रधानमंत्री मोदी जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। ऐसे में जनता को आश्वस्त करने, आकर्षित करने के लिए सकारात्मक रूप से मजबूत परिवर्तन की जरूरत प्रधानमंत्री ने महसूस की। केंद्रीय मंत्रिपरिषद व मंत्रियों के विभागों में ताजा फेरबदल इसी जरूरत की पूर्ति की दिशा में एक कदम है।
यह ठीक है कि इस निर्णय को अंजाम देने की प्रक्रिया में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी को अपने उवाचित अनेक शब्दों को निगलना पड़ा है। किंतु, समय एवं परिस्थितियां भारी पड़ीं। 2014 में सरकार गठन के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रिपरिषद के लघु आकार को सगर्व उद्धृत करते हुए टिप्पणी की थी कि ‘हम छोटी सरकार और अधिक कार्य ’ की नीति पर चलेंगे। निर्णय कारगर साबित नहीं हुआ। दो वर्ष के अनुभव व परिणाम से मजबूर प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्री परिषद के लघु आकार को कुछ ऐसा ‘जम्बो’ स्वरूप दिया कि कांग्रेस नेतृत्व की पिछली यूपीए सरकार को आकार के मामले में पीछे छोड़ दिया। बावजूद इसके अगर ताजा परिवर्तन अथवा फेरबदल के उपयोगी सकारात्मक परिणाम मिलते हैं तब देश उसे स्वीकार कर लेगा। कसौटी पर परिणाम ही रहेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बहुप्रचारित ‘परिवर्तन’ की याद करते हुए कहा है कि ‘ मैं स्वयं को सफल तब मानूंगा जब लोग परिवर्तन को महसूस करेंगे।’ अर्थात लोगों को परिवर्तन का एहसास हो। प्रधानमंत्री की भावना का आदर करते हुए मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि फिलहाल अर्थात पिछले दो वर्षों का अनुभव प्रधानमंत्री की अपेक्षा के बिलकुल विपरीत रहा है। अब तक जिन परिवर्तनों को अपने पक्ष में बताने की कोशिश प्रधानमंत्री व उनके सहयोगी करते आए हैं, क्षमा करेंगे, लोगों को उनका एहसास नहीं हो पाया। जो परिवर्तन सामने परिलक्षित हुए उन्हें सकारात्मक नहीं नकारात्मक रूप में लिया गया।
उदाहरण अनेक हैं। कुछ एक का उल्लेख कर ही यह साबित किया जा सकता है कि लोग निराश हुए हैं। सर्वप्रथम विदेश नीति को उद्धृत किया जा सकता है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में अति उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर पड़ोसियों के साथ मधुर संबंध की जरूरत को चिन्हित किया था। पूर्व की सरकारों के कार्यकाल में सीमा पार से घुसपैठ की घटनाओं पर व्यंग्य कसते हुए प्रधानमंत्री मोदी सगर्व कहते आए हैं कि सीमा पार से गोलियों का जवाब गोलों से दिया जाएगा। वे अगर एक सिर काटेंगे तो हम दस सिर काटेंगे। केंद्र में सरकार गठन के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने सीमा पार से आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिए जाने की घटनाओं पर कड़ी जवाबी कार्रवाई की बातें कही थीं। किंतु, सच यही है कि सीमा पार से घुसपैठ व आतंक की घटनाओं में निरंतर वृद्धियां हुईं और हमारे निर्दोष जवान शहीद होते चले गए। सीमा पार कर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने हमारे देश में घुस पठानकोट एयरबेस पर आक्रमण जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। अभी-अभी कश्मीर में आतंकी हमलों की अनेक वारदातें हुईं। परिणामस्वरूप क्या यह सच नहीं कि हताहतों का ताजा स्कोर हमारे खिलाफ गया। जहां हमारे आठ जवान शहीद हुए वहीं पाकिस्तान के मात्र दो। क्या यही एक की एवज में दस सिर काट लाने संबंधी गर्वित घोषणा की परिणति है। अन्य पड़ोसी छोटे नेपाल व बड़े चीन के साथ भी हमारे संबंध बद से बदतर होते चले गए हैं। हालत यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर पहल एवं संभावनायुक्त दावों के बावजूद ‘एनएसजी’ की सदस्यता पाने में भारत विफल रहा। हमारी विदेश नीति की यह एक भारी विफलता रही है।
आर्थिक मोर्चे पर भी तमाम दावों के बावजूद विफलता और विफलताएं ही हमारे पाले में आई हैं। सरकारी -गैर सरकारी प्रचार माध्यमों के द्वारा परिवर्तन का एहसास कराने की कोशिश तो की गई किंतु फिर वही ढाक के तीन पात। बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुकी अर्थव्यवस्था को संभालने और आर्थिक दिवालियेपन की दुरूह स्थिति से बचने के लिए अनेक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्रों में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा। केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन व खुदरा व्यापार के वैसे क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दी जिसका तीखा विरोध अन्य लोगों के अलावा स्वयं नरेंद्र मोदी करते रहे हैं। तब कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार द्वारा ऐसे निवेशों में आंशिक अनुमति दिए जाने का प्रस्ताव लाया गया था। विरोध करते हुए स्वयं नरेंद्र मोदी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में टिप्पणी की थी कि ‘ कांग्रेस देश को विदेशियों के हाथ में सौंप रही है।’ क्या इस बिंदू पर अब प्रधानमंत्री मोदी के विचार बदल गए हैं? सहसा विश्वास नहीं होता। फिर मत परिवर्तन का कारण?
मजबूरी, परिस्थितियों की मजबूरी। बाजार और उद्योग-धंधों में व्याप्त निराशा और धन की अनुपलब्धता से मजबूर मोदी सरकार को शत प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति देने संबंधी निर्णय लेना पड़ा। यह ठीक है कि ऐसी उदार व्यवस्था के माध्यम से देश में उद्योग-धंधों को मजबूती मिलेगी, रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। लेकिन इसमें निहित संभावित खतरों के प्रति सरकार को सजग, सतर्क रहना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि ‘नियंत्रण’ भारत के पास ही हो। ध्यान रहे विदेशियों के धन-प्रवेश के साथ संस्कृति का भी प्रवेश सुगम हो उठता है। और चूंकि भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता पर कोई समझौता नहीं कर सकता, विदेशी पूंजी निवेश पर कड़ी नजर रखनी पड़ेगी।
No comments:
Post a Comment