हां, संविधान का सूरज ही तो चमका है अरुणाचल में ! नमन! भारतीय न्याय व्यवस्था को नमन !! न्याय मंदिर ने साफ कर दिया कि चाहे कोई भी हो, जी हां, कोई भी हो, गैरकानूनी-असंवैधानिक कृत्य को अंजाम देने की अनुमति भारतीय लोकतंत्र में नहीं दी जा सकती। जबरिया के आरोपी कटघरे में खड़े किए जाएंगे, बेनकाब किए जाएंगे। उनके द्वारा परित आदेश, नियम निरस्त किए जाएंगे। संदेश बिलकुल साफ है, संघीय व्यवस्था में राज्यों के संवैधानिक अधिकारों के साथ कोई छेड़छाड़ न करे। कोई भी संविधान वर्णित व्यवस्था के विरुद्ध आचरण ना करे। कोई भी षड्यंत्र रच असंवैधानिक तरीके से किसी निर्वाचित सरकार को अपदस्थ न करे। संदेश साफ है कि कोई भी संविधान के ऊपर नहीं है। लोकतांत्रिक भारत सर्वस्वीकृत संविधान से संचालित है। किसी व्यक्ति अथवा राजदल विशेष की इच्छा- अनिच्छा, पसंद-नापसंद से देश संचालित नहीं होगा। सात माह पूर्व अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल ज्योतिप्रसाद राजखोवा ने घोर असंवैधानिक कदम उठाते हुए बल्कि,षड्यंत्र रच जिस प्रकार वहां की निर्वाचित सरकार के खिलाफ कदम उठाए थे, उसे अब सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर अपदस्थ सरकार की पुनर्बहाली का आदेश देकर इन संदेशों को पुन: मोटी रेखाओं से चिन्हित कर दिया। देश इस पर एक ओर जहां खुश है वहीं दूसरी ओर दु:खी भी। कारण साफ हैं।
पिछले वर्ष दिसंबर माह में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कुछ बागियों की पीठ थपथपा कर राज्यपाल राजखोवा ने एक के बाद एक ऐसे असंवैधानिक कदम उठाए जिनसे राज्यपाल पद की गरिमा तो तार-तार हुई ही संवैधानिक व्यवस्थाओं की भी धज्जियां उड़ाई गईं। राज्यपाल राजखोवा ने सिर्फ अपनी ही नहीं केंद्र सरकार की छवि भी धूमिल कर दी थी। आश्चर्य नहीं है कि सर्वोच्य न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में टिप्पणी की है कि राज्यपाल का काम केंद्र सरकार के एजेंट की तरह काम करना नहीं है, उन्हें संविधान के तहत काम करना होता है। मुद्दा सिर्फ किसी एक सरकार को अपदस्थ किए जाने या उसकी पुनर्बहाली का नहीं है। कटघरे में है विभिन्न सरकारों की अनैतिक मंशाएं और घोर असंवैधानिक अलोकतांत्रिक आचरण। चूंकि, सर्वोच्च न्यायालय का ताजा ऐतिहासिक फैसला न्यायापालिका और लोकतांत्रिक भारत की पहली घटना के रूप में दर्ज हुई है जब किसी एक सरकार को हटा पुरानी सरकार को सत्ता सौंपी गई है, माकूल समय है जब इस पूरी प्रक्रिया पर चिंतन-मनन कर किसी तार्किक परिणति पर पहुंचा जाए। लोकतंत्र और संविधान के रक्षार्थ अगर कोई बलि देनी हो तो संकोच न किया जाए। रोग नया नहीं पुराना है। न्यायपालिका ने जब ऐतिहासिक कदम उठाया है तब विधायिका भी हिम्मत दिखाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत देश किसी की बपौती नहीं। लोगों द्वारा संचालित लोकशाही व्यवस्था में संविधान की अवमानना लोकतंत्र की जड़ों पर कुदाल चलाना है। यह ठीक है कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में संसद सर्वोच्च है, इसे कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। तथापि, न्यायपालिका को संविधान विरुद्ध उठाए गए किसी भी संसदीय कदम अथवा कदमों की समीक्षा करने व आदेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। अरुणाचल के मामले में इसी अधिकार का उपयोग हुआ। आदेश को 'विचित्र' निरूपित' करने वाले अपने ज्ञान-चक्षु खोल लें। बंद की स्थिति में 'विचित्र' ही दिखेगा।
मैं समझता हूं कि सर्वोच्च न्यायाल ने प्रत्येक राजदलों को अवसर प्रदान किया है कि वे इस मुद्दे पर कोई राजनीति न करते हुए, लोकतांत्रिक व्यवस्था की अक्षुण्णता को ध्यान में रखते सार्थक बहस करें और ऐसा मार्ग ढूंढ निकालें ताकि भविष्य में भारत की संघीय व्यवस्था पर तो कोई आंच तो नहीं ही आए, बल्कि कोई भी असंवैधानिक आचरण के पश्चात बेदाग विचरण नहीं कर पाए।
जैसा कि मैंने कहा, रोग पुराना है। चूंकि , भूतकाल में किसी भी राजदल या सरकार ने इसके स्थायी उपचार की पहल नहीं की, रोग बढ़ता चला गया। नतीजतन ज्योति प्रसाद राजखोवा जैसे राज्यपाल बेखौफ, संविधान विरुद्ध मनमानी करने से नहीं हिचके। मुझे याद है 90 के दशक में जब उत्तर प्रदेश में निर्वाचित भाजपा सरकार को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर दिया था तब स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी धरने पर बैठ गए थे। उन्होंने तब घोषणा की थी कि जिस दिन केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी राज्यपालों की नियुक्ति संबंधी सरकारिया आयोग की अनुशंषाओं को तत्काल लागू किया जाएगा। अटलजी ने वादा किया था कि सरकारिया आयोग की सिफारिशों वाली संचिका पर जमी धूल की परतों को साफ कर सिफारिशों को लागू किया जाएगा। लेकिन अफसोस कि ऐसा हो ना पाया। केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, बावजूद इसके सरकरिया आयोग की संचिका पर जमी धूल की परतों को हटाना तो दूर सिफारिशों के ठीक उलट राजनीतिकों को राज्यपाल पद से नवाजा जाने लगा। इसके पूर्व की कांग्रेस सरकारें भी ऐसे ही अनैतिक आचरण करती रहीं। कठपुतली या एजेंट के रूप में राज्यपाल पदों पर पसंदीदा राजनीतिकों की नियुक्ति संबंधी कांग्रेस संस्कृति का अनुसरण भाजपा सरकारों ने भी किया। राजखोवा कोई अपवाद नहीं हैं।
फिर ऐसा क्या किया जाए कि 'राजखोवाओं' के जन्म पर अंकुश लग सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जे.एस वर्मा ने एक बार टिप्पणी की थी कि विधि के शासन को असरदार ढंग से लागू करने के लिए जरूरी है कि बेहतर सामाजिक मूल्य स्थापित किए जाएं। इस प्रक्रिया में अदालतें एक उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकती हैं। चूंकि, अरुणाचल के मामले में अदालत ने ऐसी ही भूमिका का निर्वहन किया है, इस पर मंथन हो । ज़ाया नहीं होने दिया जाए।
अब सवाल यह कि बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना हो तो कैसे? मैं नहीं समझता कि यह बहुत कठिन कार्य है। जरूरत है कि सभी पक्ष अहम का त्याग कर वृहत्तर राष्ट्रहित में संवैधानिक व्यवस्थाओं को सम्मान दें, लोकतांत्रिक पद्धति से व्यक्त लोकभावना का आदर करें। किसी सरकार का निर्वाचन लोकाभिव्यक्ति ही है। कतिपय प्रतिकूल परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं का सहारा लिया जाए। राजनीतिक प्रभाव-विस्तार के लिए संविधान के साथ खिलवाड़ न किया जाए। 1989 में कर्नाटक की बोम्मई सरकार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वस्तुत: असंवैधैनिक कृत्य पर सख्त न्यायिक संदेश है। शब्दश: अनुपालन हो। इसी प्रकार राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में सरकारिया आयोग की अनुशंषाएं लागू की जाएं। यही नहीं सन 2003 में अंतरराज्य परिषद ने स्वीकार किया था कि सरकारिया आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अमल होना चाहिए। और सबसे जरूरी यह कि असंवैधानिक आचरण के दोषी राज्यपालों को भी दंडित किए जाने की संवैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस पर बहस होनी चाहिए कि जब अदालत किसी को असंवैधैनिक कृत्य का दोषी ठहरा देती है तब उसे दंडित क्यों न किया जाए। देश दु:खी है तो इस स्थिति को लेकर ही। सिर्फ राज्यपालों के असंवैधानिक आदेशों को निरस्त कर देने से समाधान नहीं निकलेगा। रोग के स्थायी निराकरण के लिए असंवैधानिक निर्णयों के दोषियों को भी दंडित करना होगा। बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना की दिशा में ऐसे कदम निर्णायक साबित होंगे। असंवैधानिक कृत्यों के साथ-साथ उच्च स्तर पर राजनीतिक षड्यंत्रों से भी तभी छुटकारा मिल पाएगा। और विशेषकर जब प्रचुर रोशनी मौजूद हो तब भला न्यायपालिका अपनी आंखें बंद कैसे रख सकती है? इन शब्दों में निहित संदेश, संकेत हाशिए पर न रह जाएं, इसे सुनिश्चित करना सत्ता के साथ-साथ विभिन्न राजदलों की जिम्मेदारी है। क्या इस दिशा में ईमानदार पहल की आशा की जाएं?
पिछले वर्ष दिसंबर माह में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कुछ बागियों की पीठ थपथपा कर राज्यपाल राजखोवा ने एक के बाद एक ऐसे असंवैधानिक कदम उठाए जिनसे राज्यपाल पद की गरिमा तो तार-तार हुई ही संवैधानिक व्यवस्थाओं की भी धज्जियां उड़ाई गईं। राज्यपाल राजखोवा ने सिर्फ अपनी ही नहीं केंद्र सरकार की छवि भी धूमिल कर दी थी। आश्चर्य नहीं है कि सर्वोच्य न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में टिप्पणी की है कि राज्यपाल का काम केंद्र सरकार के एजेंट की तरह काम करना नहीं है, उन्हें संविधान के तहत काम करना होता है। मुद्दा सिर्फ किसी एक सरकार को अपदस्थ किए जाने या उसकी पुनर्बहाली का नहीं है। कटघरे में है विभिन्न सरकारों की अनैतिक मंशाएं और घोर असंवैधानिक अलोकतांत्रिक आचरण। चूंकि, सर्वोच्च न्यायालय का ताजा ऐतिहासिक फैसला न्यायापालिका और लोकतांत्रिक भारत की पहली घटना के रूप में दर्ज हुई है जब किसी एक सरकार को हटा पुरानी सरकार को सत्ता सौंपी गई है, माकूल समय है जब इस पूरी प्रक्रिया पर चिंतन-मनन कर किसी तार्किक परिणति पर पहुंचा जाए। लोकतंत्र और संविधान के रक्षार्थ अगर कोई बलि देनी हो तो संकोच न किया जाए। रोग नया नहीं पुराना है। न्यायपालिका ने जब ऐतिहासिक कदम उठाया है तब विधायिका भी हिम्मत दिखाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत देश किसी की बपौती नहीं। लोगों द्वारा संचालित लोकशाही व्यवस्था में संविधान की अवमानना लोकतंत्र की जड़ों पर कुदाल चलाना है। यह ठीक है कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में संसद सर्वोच्च है, इसे कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। तथापि, न्यायपालिका को संविधान विरुद्ध उठाए गए किसी भी संसदीय कदम अथवा कदमों की समीक्षा करने व आदेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। अरुणाचल के मामले में इसी अधिकार का उपयोग हुआ। आदेश को 'विचित्र' निरूपित' करने वाले अपने ज्ञान-चक्षु खोल लें। बंद की स्थिति में 'विचित्र' ही दिखेगा।
मैं समझता हूं कि सर्वोच्च न्यायाल ने प्रत्येक राजदलों को अवसर प्रदान किया है कि वे इस मुद्दे पर कोई राजनीति न करते हुए, लोकतांत्रिक व्यवस्था की अक्षुण्णता को ध्यान में रखते सार्थक बहस करें और ऐसा मार्ग ढूंढ निकालें ताकि भविष्य में भारत की संघीय व्यवस्था पर तो कोई आंच तो नहीं ही आए, बल्कि कोई भी असंवैधानिक आचरण के पश्चात बेदाग विचरण नहीं कर पाए।
जैसा कि मैंने कहा, रोग पुराना है। चूंकि , भूतकाल में किसी भी राजदल या सरकार ने इसके स्थायी उपचार की पहल नहीं की, रोग बढ़ता चला गया। नतीजतन ज्योति प्रसाद राजखोवा जैसे राज्यपाल बेखौफ, संविधान विरुद्ध मनमानी करने से नहीं हिचके। मुझे याद है 90 के दशक में जब उत्तर प्रदेश में निर्वाचित भाजपा सरकार को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर दिया था तब स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी धरने पर बैठ गए थे। उन्होंने तब घोषणा की थी कि जिस दिन केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी राज्यपालों की नियुक्ति संबंधी सरकारिया आयोग की अनुशंषाओं को तत्काल लागू किया जाएगा। अटलजी ने वादा किया था कि सरकारिया आयोग की सिफारिशों वाली संचिका पर जमी धूल की परतों को साफ कर सिफारिशों को लागू किया जाएगा। लेकिन अफसोस कि ऐसा हो ना पाया। केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, बावजूद इसके सरकरिया आयोग की संचिका पर जमी धूल की परतों को हटाना तो दूर सिफारिशों के ठीक उलट राजनीतिकों को राज्यपाल पद से नवाजा जाने लगा। इसके पूर्व की कांग्रेस सरकारें भी ऐसे ही अनैतिक आचरण करती रहीं। कठपुतली या एजेंट के रूप में राज्यपाल पदों पर पसंदीदा राजनीतिकों की नियुक्ति संबंधी कांग्रेस संस्कृति का अनुसरण भाजपा सरकारों ने भी किया। राजखोवा कोई अपवाद नहीं हैं।
फिर ऐसा क्या किया जाए कि 'राजखोवाओं' के जन्म पर अंकुश लग सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जे.एस वर्मा ने एक बार टिप्पणी की थी कि विधि के शासन को असरदार ढंग से लागू करने के लिए जरूरी है कि बेहतर सामाजिक मूल्य स्थापित किए जाएं। इस प्रक्रिया में अदालतें एक उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकती हैं। चूंकि, अरुणाचल के मामले में अदालत ने ऐसी ही भूमिका का निर्वहन किया है, इस पर मंथन हो । ज़ाया नहीं होने दिया जाए।
अब सवाल यह कि बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना हो तो कैसे? मैं नहीं समझता कि यह बहुत कठिन कार्य है। जरूरत है कि सभी पक्ष अहम का त्याग कर वृहत्तर राष्ट्रहित में संवैधानिक व्यवस्थाओं को सम्मान दें, लोकतांत्रिक पद्धति से व्यक्त लोकभावना का आदर करें। किसी सरकार का निर्वाचन लोकाभिव्यक्ति ही है। कतिपय प्रतिकूल परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं का सहारा लिया जाए। राजनीतिक प्रभाव-विस्तार के लिए संविधान के साथ खिलवाड़ न किया जाए। 1989 में कर्नाटक की बोम्मई सरकार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वस्तुत: असंवैधैनिक कृत्य पर सख्त न्यायिक संदेश है। शब्दश: अनुपालन हो। इसी प्रकार राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में सरकारिया आयोग की अनुशंषाएं लागू की जाएं। यही नहीं सन 2003 में अंतरराज्य परिषद ने स्वीकार किया था कि सरकारिया आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अमल होना चाहिए। और सबसे जरूरी यह कि असंवैधानिक आचरण के दोषी राज्यपालों को भी दंडित किए जाने की संवैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस पर बहस होनी चाहिए कि जब अदालत किसी को असंवैधैनिक कृत्य का दोषी ठहरा देती है तब उसे दंडित क्यों न किया जाए। देश दु:खी है तो इस स्थिति को लेकर ही। सिर्फ राज्यपालों के असंवैधानिक आदेशों को निरस्त कर देने से समाधान नहीं निकलेगा। रोग के स्थायी निराकरण के लिए असंवैधानिक निर्णयों के दोषियों को भी दंडित करना होगा। बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना की दिशा में ऐसे कदम निर्णायक साबित होंगे। असंवैधानिक कृत्यों के साथ-साथ उच्च स्तर पर राजनीतिक षड्यंत्रों से भी तभी छुटकारा मिल पाएगा। और विशेषकर जब प्रचुर रोशनी मौजूद हो तब भला न्यायपालिका अपनी आंखें बंद कैसे रख सकती है? इन शब्दों में निहित संदेश, संकेत हाशिए पर न रह जाएं, इसे सुनिश्चित करना सत्ता के साथ-साथ विभिन्न राजदलों की जिम्मेदारी है। क्या इस दिशा में ईमानदार पहल की आशा की जाएं?
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