...तो जनता मजबूर हो जाएगी सडक़ों पर उतरने को
देश की राजनीति का यह कैसा संक्रमण काल,
जिसकी परिणति घटियापन और निकम्मेपन की निम्नतम गति को प्राप्त होती दिखने लगी है? केंद्र में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन के साथ राजनीतिक पंडितों की टिप्पणियां आई थीं कि वर्तमान राजनीति एक ऐसे संक्रमण काल से गुजरने को विवश हुई है,
जिसका परिणाम आने वाले अनेक दशकों को प्रभावित करेगा। कतिपय शंकाओं के बावजूद प्राय:
सभी ने परिवर्तन को सकारात्मक रूप में लिया था। अपेक्षाएं व्यक्त की गई थीं कि लोकतंत्र की स्वाभाविक उठा-पटक, कांट-छांट और मर्यादाओं के बावजूद देश अब विकास के नये आयाम हासिल करेगा। एक पूर्णत:
परिपक्व, खुशहाल लोकतंत्र के रूप में भारत विश्व का मार्गदर्शक बनेगा।हवा ऐसी पैदा की गई कि आम लोगों की अपेक्षाएं हिलोरें मारने लगीं।पूर्व के कथित भ्रष्ट भारत की जगह अब भ्रष्टाचार मुक्त भारत का उदय होगा। शिक्षा,
चिकित्सा, कृषि, उद्योग, तकनीकी,
विज्ञान व रोजगार आदि के क्षेत्र में ऐसी क्रांति आएगी जो भारत का चेहरा बदल डालेगी।पूरा विश्व तब अपनी समस्याओं के समाधान के लिए भारत का अनुसरण करने लगेगा।अर्थात भारत को विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त हो जाएगा। लेकिन अफसोस अब सब कुछ उल्टा होता प्रतीत होने लगा है। क्यों
? कैसे?
1947 में भारत को जब ब्रिटिश शासकों से आजादी मिल रही थी तब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने टिप्पणी की थी कि,
‘‘ सत्ताधूर्तों, बदमाशों व जूतों से कुचलने वालों के हाथों में जाएगी,
ये वे लोग हैं जिनका कुछ वर्षों बाद पता नहीं चलेगा। वे आपस में एक-दूसरे से लड़ेंगे और भारत राजनीतिक झगड़ों में ही खत्म हो जाएगा।’’ आजादी के शुरुआती वर्षों में यह भविष्यवाणी गलत साबित हुई,
किंतु अब भी हम ऐसा कर सकते हैं? यह सवाल आज हर भारतीय-विशेषकर युवा पीढ़ी के मन में कौंध रहा है कि,
आखिर कहां जा रही है हमारी राजनीति? किस दिशा में अग्रसारित है भारत का लोकतंत्र? क्या भ्रष्टाचार और कुशासन पर अंकुश लग पाएगा?क्या राजनीति कभी अपना सम्मान वापस पा सकेगी? क्या लोकतंत्र की रीढ़ संसद अपनी प्रतिष्ठा कायम रख पाएगी
?क्या लोकतंत्र और संविधान की अक्षुण्णता कायम रखने की जिम्मेदार न्यायपालिका अपनी विश्वसनीयता को बेदाग रख पाएगी? सवाल अनेक हैं, जिनके जवाब आने शेष हैं। लोग बेचैन हैं, प्रतीक्षारत हैं सकारात्मक जवाब के लिए। कब होगा उनकी प्रतीक्षा का अंत? घटनाएं इतनी भयावह, आशंकाएं इतनी संगीन कि आम लोग किसी अनजान खौफनाक परिणाम की संभावना से आशंकित हैं। घटनाएं हैं ही ऐसी।
देश के इतिहास में पहली बार एक राज्य के मुख्यमंत्री अपने ही देश के प्रधानमंत्री व उनकी पार्टी पर आरोप लगा रहे हैं कि वे उनकी हत्या भी करवा सकते हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ऐसा निम्न स्तर!
हां ऐसा हुआ है।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आंशका व्यक्त की है कि प्रधानमंत्री व उनकी पार्टी भाजपा उनकी हत्या भी करवा सकती है।इस के पूर्व गुजरात के युवा सामाजिक कार्यकर्ता हार्दिक पटेल ने भी इसी तरह की आशंका व्यक्त की थी।लेकिन केजरीवाल का आरोप व बयान खौफनाक की श्रेणी का है।क्या केजरीवाल के बयान को उनकी हताशा निरूपित करते हुए खारिज कर दिया जाना चाहिए?
या फिर एक लोकतांत्रिक आग्रह के आलोक में केजरीवाल के आरोपों की खुली जांच कराई जाए? प्रस्ताव हास्यास्पद दिख सकता है, किंतु इस न्यायिक अवधारणा के आलोक में कि, प्रत्येक आरोप के निराकरण के लिए जांच जरूरी है,
इसे खारिज नहीं किया जा सकता। चिंतकों के लिए यह एक घटिया स्तर का राजनीतिक घटना विकासक्रम है।तथापि यह सवाल मौजूद रहेगा कि आखिर अरविंद केजरीवाल ने ऐसी आशंका व्यक्त की तो क्यों?
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कोई अशिक्षित मूर्ख तो हैं नहीं!
राजनीतिक महात्वाकांक्षा के अंतर्गत क्या कोई मुख्यमंत्री अपने प्रधानमंत्री पर ऐसा संगीन,
भयावह आरोप लगा सकता है? मैं यह मानने को तैयार हूं कि केजरीवाल की आशंका निर्मूल अथवा आधारहीन है। बावजूद इसके भारत के विशाल लोकतंत्र की स्वच्छता को कायम रखने हेतु न्याय की वेदी पर भी इसे निर्मूल साबित करना होगा। पहल स्वयं सरकार को करनी होगी।
मुझे याद है कि
2014 की वह घटना जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार की स्थापना के बाद एक टीवी पत्रकार को सत्तारुढ़ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने चेतावनी दी थी।तब बातचीत के दौरान भाजपा और संघ से जुड़े एक अत्यंत वरिष्ठ नेता ने मेरी जिज्ञासा पर बताया था कि अब इस देश में कुछ भी हो सकता है। पत्रकार की चेतावनी की घटना पर आश्चर्य न व्यक्त करते हुए उन्होंने गुजरात की याद दिलाई थी। बताया था कि कैसे गुजरात में प्राय:
सभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों व अहसज प्रशासनिक अधिकारियों को सबक सिखाए गये थे।तब गुजरात में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और अमित शाह उनके दाहिने हाथ के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल थे। हाल ही में बाजार में आई
‘तहलका’ के एक पत्रकार की बहुचर्चित पुस्तक ‘गुजरात फाइल्स’ में कुछ ऐसे तथ्य सामने लाये गये हैं जिनकी काट के लिए अभी तक कोई सामने नहीं आया है। जबकि स्वयं मोदी व शाह के हक में है कि पुस्तक में उठाए गये सवालों के माकूल जवाब दिये जाएं।
बात कथित अराजक केजरीवाल तक सीमित नहीं है। अभी-अभी भाजपा के बहुचर्चित सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी समझ से विस्फोटक जानकारी दी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या अंग्रेजों ने की। स्वामी जैसे शिक्षित व्यक्ति का बयान दिमागी दिवालियापन नहीं,
बल्कि किसी भावी कुत्सित योजना के तहत आया है। यह राजनीति के
‘लंपटीकरण’ का ही एक नमूना है। देश जब अनेक समस्याओं से जूझता हुआ विकास के नये मार्ग पर कदमताल कर रहा हो तब ऐसे बयान के क्या मायने?
साफ है कि जानबूझकर देश में अराजक वातावरण तैयार करने के लिए ऐसे गैर जिम्मेदाराना कुटिल बयान सामने लाये जा रहे हैं।स्वामी की टिप्पणी अवश्य राहुल गांधी के उस आरोप के संदर्भ में आई है कि गांधी की हत्या संघ के लोगों ने की थी। लेकिन,
पुख्ता बचाव की जगह स्वामी ने अंग्रेजों पर हास्यास्पद आरोप लगा भविष्य के एक संभावित
‘षड्यंत्र’ को चिन्हित कर दिया। कोई आश्चर्य नहीं कि स्वामी के आरोप के बाद राजनीति शास्त्र के अनेक विद्यार्थी
‘कोमा’ में चले जाएं। चूंकि, सुब्रमण्यम स्वामी सत्तारूढ़ भाजपा के सांसद हैं,
क्या देश अपेक्षा करे कि सरकार के स्तर पर इस की भत्र्सना की जाएगी
?
उदाहरण अनेक हैं जो देश में अराजक भंवर की संभावना को चिन्हित कर रहे हैं। केजरीवाल,
स्वामी, पटेल तथा कन्हैया, उत्तराखंड, अरुणाचलल मीडिया-मर्दन,
दादरी, गौवंश, धर्मांतरण, नेताओं के अश्लील संवाद,
सांप्रदायिक व जातीय तनाव से आगे बढ़ते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले और हत्याओं का अंतहीन सिलसिला,
विंस्टन चर्चिल की भविष्यवाणी की याद दिला देते हैं। हमें उनकी भविष्यवाणी को गलत साबित करना ही होगा और यह तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठ,
स्वार्थ का त्याग कर राष्ट्रहित में
‘एकभारत, समृद्ध भारत’ को रेखांकित करें।अगर हम इसमें विफल रहे तो तय मानिये कि फिर महात्मा गांधी की वह भविष्यवाणी सही होगी,
जिसमें उन्होंने कहा था कि शासकीय स्तर पर
‘सुशासन’ की विफलता एक दिन जनता को सडक़ों पर निकलने को मजबूर कर देगी। और जनता ही फैसले करेगी सडक़ों पर।
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