खबरिया बिरादरी के नागपुरी सदस्य अचंभित हैं, भौचक हैं और साथ ही शर्मिंदा भी हैं। यदा-कदा प्रायोजित खबरों के माध्यम से किसी व्यक्ति विशेष अथवा संस्थान विशेष को फायदा-नुकसान पहुंचाने की खबरों की जनकारी तो सदस्यों को थी, इस पर अब किसी को आश्चर्य नहीं होता। किंतु जब अहमदाबाद के एक आयोजन की खबर नागपुर 'डेटलाइन' से नागपुर से प्रकाशित हो, वह भी कथित गुप्तचर एजेंसियों के हवाले से, तो खबरचियों के कान खड़े होंगे ही। हां ! ऐसा ही कमाल 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नागपुर संस्करण ने कर दिखाया है। संस्करण के संपादक और समाचार संपादक भी बेचारे कटघरे में खड़े कर दिए गए हैं, खबर देनेवाले 'अपराध संवाददाता' के कारण।
विगत 8 जुलाई को 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नागपुर संस्करण में नागपुर की डेटलाइन से एक खबर छपी कि अहमदाबाद में 'जल-जंगल-जमीन' पर अगले सप्ताह होनेवाले एक राष्ट्रीय सम्मेलन वस्तुत: नक्सलियों के 'फ्रंटल' समूहों द्वारा आयोजित है। विद्वान संवाददाता ने महाराष्ट्र के गुप्तचर स्त्रोतों का हवाला देते हुए बताया है कि इस सम्मेलन का आयोजन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के किसान संगठन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएन), भारतीय किसान यूनियन, समाजवादी समागम सहित अनेक एनजीओ शामिल हैं। आयोजन के सह आयोजक हैं : जन आंदोलनों का राष्ट्र्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय किसान सभा (36 केनिंग लेन), अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन, अखिल भारतीय किसान सभा (अजॉय भवन), भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक असली), अखिल भारतीय कृषक खेत मजदूर संगठन, जन संघर्ष समिति, इंसाफ, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, किसान संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, माइन मिनरल एंड पीपुल्स (एमएमपी), मध्य प्रदेश आदिवासी एकता महासभा, समाजवादी समागम, किसान मंच, विंध्य जन आंदोलन समर्थक समूह, लोक संघर्ष मोर्चा, संयुक्त किसान संघष समिति, दर्शन, गुजरात सोशल वाच, पर्यावरण मित्र, गुजरात किसान संगठन, आदिवासी एकता विकास आंदोलन, लोक कला मंच, स्वाभिमान आंदोलन, गुजरात लोक समिति और अन्य जन संगठन।
संवाददाता ने इन संगठनों को नक्सली संगठन निरूपित किया है। जबकि सचाई यह है कि इनमें से अनेक संगठन व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्तर पर नक्सलियों की राजनीति का न केवल विरोध करते रहे हैं बल्कि, कुछ ने तो अपने-अपने कार्यक्षेत्र में नक्सलियों के खिलाफ सरकारी नीतियों तक का समर्थन किया है। बावजूद इसके ऐसी रिपोर्ट का छपना साफ दर्शाता है कि संबंधित संवाददाता ने किन्हीं कारणवश जान-बूझकर न केवल पाठकों को बल्कि, स्वयं अपने संस्थान 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को भी गुमराह किया है। साफ है कि खबर 'प्लांटेड' है। अब संवाददाता की 'दिलचस्पी' और 'नीयत' की पड़ताल की जिम्मेदारी 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के संपादकीय नेतृत्व की है।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी इस खबर पर जरा नजर डालें... खबर कहती है कि 'गुप्तचर एजेंसियों के माध्यम से हाथ लगा एक दस्तावेज बताता है कि गुजरात स्थित एक संगठन ने देश भर के बिरादराना संगठनों से भूमि अधिग्रहण, एफडीआई, कार्पोरेट के हित, कुदरती संसाधनों की लूट, व वंचितों और मजदूरों की बदहाली के मसलों पर राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने का न्योता दिया था ...।' संवाददाता यहां दावा कर रहा है कि गुप्तचर एजेंसियों द्वारा उन्हें एक दस्तावेज हाथ लगा। इतना बड़ा फरेब? सच तो यह है कि सम्मेलन के आमंत्रण इस खबर के छपने के दस दिन पहले से ही भूमि अधिकार आंदोलन की ओर से सार्वजनिक रूप से प्रसारित किए गए, बांटे गए और जिसे कुछ वेबसाइटों ने प्रकाशित भी किया है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। खबर में लिखा गया है कि अहमदाबाद के संगठन द्वारा जो आमंत्रण बाकी संगठनों को भेजा गया है उसकी प्रति 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पास है। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात कुछ और हो ही नहीं सकती, क्योंकि न तो यह आयोजन गुप्त है और न ही इसका आमंत्रण कोई गोपनीय दस्तावेज है। खबर में जो 'एक्सलूसिव' पंक्ति उद्धृत की गई है, वह संघर्ष संवाद पर प्रकाशित आमंत्रण में हिंदी में यह है : 'गुजरात देश के सबसे बड़े समुद्र तटीय क्षेत्र वाले राज्यों में से एक है। इस पूरे तटीय क्षेत्र में थर्मल पॉवर प्लांट व रसायनिक संयंत्र को मंजूरी देकर इस क्षेत्र के पर्यावरण व मछुआरा समुदाय की आजीविका को समाप्त कर दिया गया है।''
जाहिर है गोपनीयता और इंटेलिजेंस स्त्रोत का इससे बड़ा मजाक कुछ नहीं हो सकता कि जिस आयोजन के बारे में दस दिन से इंटनेट पर सामग्री उपलब्ध है उसे देश के सबसे बड़े अखबार का प्रतिनिधि गुप्तचर स्त्रोत से हासिल बताकर दस दिन बाद छाप रहा है।
खबर की प्रस्तुति इस रूप में की गई है मानों नक्सली अब गुजरात में प्रवेश कर गए हैं और वहां कोई गोपनीय बैठक करने जा रहे हैं। हालांकि पूरी खबर पढऩे पर खबर का फर्जीवाड़ा खुल जाता है कितु यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो उठता है कि अहमदाबाद (गुजरात) की इस खबर को गलत ढंग से गुप्तचर एजेंसियों को स्त्रोत बताते हुए नागपुर डेटलाइन से नागपुर में क्यों और कैसे प्रकाशित किया गया? सवाल यह भी कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' द्वारा इस फर्जी खबर को कथित गुप्तचर स्त्रोतों के नाम पर छापने का असली मकसद क्या है? क्या 'टाइम्स ऑफ इंडिया' यह मानता है कि किसानों की , मजदूरों की, मछुआरों की, गरीबों की, दलितों की बात करना नक्सलवाद है? क्या उसे गांधीवाद, समाजवाद, दलितवाद आदि तमाम विचार नक्सलवाद के संस्करण लगते हैं? अगर नहीं तो फिर निश्चय ही संवाददाता द्वारा लिखी गई यह खबर विशुद्ध रूप से 'प्रायोजित' है। किसलिए और किसके हित में? यह तो स्वयं संवाददाता ही बता सकते हैं।
(मीडिया विजिल के सहयोग से)
विगत 8 जुलाई को 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नागपुर संस्करण में नागपुर की डेटलाइन से एक खबर छपी कि अहमदाबाद में 'जल-जंगल-जमीन' पर अगले सप्ताह होनेवाले एक राष्ट्रीय सम्मेलन वस्तुत: नक्सलियों के 'फ्रंटल' समूहों द्वारा आयोजित है। विद्वान संवाददाता ने महाराष्ट्र के गुप्तचर स्त्रोतों का हवाला देते हुए बताया है कि इस सम्मेलन का आयोजन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के किसान संगठन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएन), भारतीय किसान यूनियन, समाजवादी समागम सहित अनेक एनजीओ शामिल हैं। आयोजन के सह आयोजक हैं : जन आंदोलनों का राष्ट्र्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय किसान सभा (36 केनिंग लेन), अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन, अखिल भारतीय किसान सभा (अजॉय भवन), भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक असली), अखिल भारतीय कृषक खेत मजदूर संगठन, जन संघर्ष समिति, इंसाफ, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, किसान संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, माइन मिनरल एंड पीपुल्स (एमएमपी), मध्य प्रदेश आदिवासी एकता महासभा, समाजवादी समागम, किसान मंच, विंध्य जन आंदोलन समर्थक समूह, लोक संघर्ष मोर्चा, संयुक्त किसान संघष समिति, दर्शन, गुजरात सोशल वाच, पर्यावरण मित्र, गुजरात किसान संगठन, आदिवासी एकता विकास आंदोलन, लोक कला मंच, स्वाभिमान आंदोलन, गुजरात लोक समिति और अन्य जन संगठन।
संवाददाता ने इन संगठनों को नक्सली संगठन निरूपित किया है। जबकि सचाई यह है कि इनमें से अनेक संगठन व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्तर पर नक्सलियों की राजनीति का न केवल विरोध करते रहे हैं बल्कि, कुछ ने तो अपने-अपने कार्यक्षेत्र में नक्सलियों के खिलाफ सरकारी नीतियों तक का समर्थन किया है। बावजूद इसके ऐसी रिपोर्ट का छपना साफ दर्शाता है कि संबंधित संवाददाता ने किन्हीं कारणवश जान-बूझकर न केवल पाठकों को बल्कि, स्वयं अपने संस्थान 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को भी गुमराह किया है। साफ है कि खबर 'प्लांटेड' है। अब संवाददाता की 'दिलचस्पी' और 'नीयत' की पड़ताल की जिम्मेदारी 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के संपादकीय नेतृत्व की है।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी इस खबर पर जरा नजर डालें... खबर कहती है कि 'गुप्तचर एजेंसियों के माध्यम से हाथ लगा एक दस्तावेज बताता है कि गुजरात स्थित एक संगठन ने देश भर के बिरादराना संगठनों से भूमि अधिग्रहण, एफडीआई, कार्पोरेट के हित, कुदरती संसाधनों की लूट, व वंचितों और मजदूरों की बदहाली के मसलों पर राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने का न्योता दिया था ...।' संवाददाता यहां दावा कर रहा है कि गुप्तचर एजेंसियों द्वारा उन्हें एक दस्तावेज हाथ लगा। इतना बड़ा फरेब? सच तो यह है कि सम्मेलन के आमंत्रण इस खबर के छपने के दस दिन पहले से ही भूमि अधिकार आंदोलन की ओर से सार्वजनिक रूप से प्रसारित किए गए, बांटे गए और जिसे कुछ वेबसाइटों ने प्रकाशित भी किया है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। खबर में लिखा गया है कि अहमदाबाद के संगठन द्वारा जो आमंत्रण बाकी संगठनों को भेजा गया है उसकी प्रति 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पास है। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात कुछ और हो ही नहीं सकती, क्योंकि न तो यह आयोजन गुप्त है और न ही इसका आमंत्रण कोई गोपनीय दस्तावेज है। खबर में जो 'एक्सलूसिव' पंक्ति उद्धृत की गई है, वह संघर्ष संवाद पर प्रकाशित आमंत्रण में हिंदी में यह है : 'गुजरात देश के सबसे बड़े समुद्र तटीय क्षेत्र वाले राज्यों में से एक है। इस पूरे तटीय क्षेत्र में थर्मल पॉवर प्लांट व रसायनिक संयंत्र को मंजूरी देकर इस क्षेत्र के पर्यावरण व मछुआरा समुदाय की आजीविका को समाप्त कर दिया गया है।''
जाहिर है गोपनीयता और इंटेलिजेंस स्त्रोत का इससे बड़ा मजाक कुछ नहीं हो सकता कि जिस आयोजन के बारे में दस दिन से इंटनेट पर सामग्री उपलब्ध है उसे देश के सबसे बड़े अखबार का प्रतिनिधि गुप्तचर स्त्रोत से हासिल बताकर दस दिन बाद छाप रहा है।
खबर की प्रस्तुति इस रूप में की गई है मानों नक्सली अब गुजरात में प्रवेश कर गए हैं और वहां कोई गोपनीय बैठक करने जा रहे हैं। हालांकि पूरी खबर पढऩे पर खबर का फर्जीवाड़ा खुल जाता है कितु यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो उठता है कि अहमदाबाद (गुजरात) की इस खबर को गलत ढंग से गुप्तचर एजेंसियों को स्त्रोत बताते हुए नागपुर डेटलाइन से नागपुर में क्यों और कैसे प्रकाशित किया गया? सवाल यह भी कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' द्वारा इस फर्जी खबर को कथित गुप्तचर स्त्रोतों के नाम पर छापने का असली मकसद क्या है? क्या 'टाइम्स ऑफ इंडिया' यह मानता है कि किसानों की , मजदूरों की, मछुआरों की, गरीबों की, दलितों की बात करना नक्सलवाद है? क्या उसे गांधीवाद, समाजवाद, दलितवाद आदि तमाम विचार नक्सलवाद के संस्करण लगते हैं? अगर नहीं तो फिर निश्चय ही संवाददाता द्वारा लिखी गई यह खबर विशुद्ध रूप से 'प्रायोजित' है। किसलिए और किसके हित में? यह तो स्वयं संवाददाता ही बता सकते हैं।
(मीडिया विजिल के सहयोग से)
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