इस निष्कर्ष पर कोई विवाद तो हो ही नहीं सकता कि स्वतंत्र न्यायपालिका ही लोकतंत्र की सुरक्षा की गारंटी है। यह न्यायपालिका ही है जो संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत निर्वाचित सरकारों द्वारा कानून के अनुपालन पर नजर रखती है। यह ठीक है कि कानून बनाने का अधिकार संसद को है। इस पर भी कोई मतभेद नहीं। लेकिन, संसद निर्मित कानून का अगर ईमानदारी से अनुपालन नहीं होता, दुरुपयोग की आशंका जताई जाती है तब उसकी समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को संविधान ने प्रदान किया हुआ है। यही नहीं, जहां संविधान में संशोधन का अधिकार भी संसद को प्राप्त है वहीं ऐसे संशोधनों की समीक्षा का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त है। पूर्व में न्यायापालिका व्यवस्था दे चुकी है कि संविधान के बुनियादी ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अर्थात संसद कानून बनाए, सरकार कानूनों के अंतर्गत दायित्व निर्वाह करे और किसी विवाद की स्थिति में न्यायापालिका हस्तक्षेप करे, ये सब लोकतंत्र के हित में की गई व्यवस्थाएं हैं। क्योंकि, अंतत: लोकतंत्र में लोक ही सर्वोपरि हैं। इस पाश्र्व में न्यायधीशों की नियुक्तियां महत्वपूर्ण हो जाती हैं। निष्पक्ष, कुशल, ईमानदार, पूर्वाग्रह से मुक्त संविधान के प्रति पूर्णत: समर्पित न्यायधीशों की नियुक्ति सुनिश्चित करना सरल कार्य नहीं। न्यायधीशों की नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद की खबरें भी बीच-बीच में आती रही हैं। न्यायपालिका पर नियंत्रण की इच्छा रखनेवाली कुछ सरकारों ने कतिपय आपत्तिजनक कदम भी उठाए। नियुक्ति संबंधी वर्तमान ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था को हाल के दिनों में चुनौतियां मिलनी शुरू हो गईं। केंद्र की नई सरकार ने न्यायधीशों की नियुक्तियों को लेकर कुछ वैकल्पिक सुझाव दिए हैं। संसद ने ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक पारित किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप बताते हुए उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यहीं से नये विवाद की शुरुआत हुई। आयोग के प्रस्तावित प्रावधानों में सरकार की राय को तवज्जो देने की बात कही गई थी जिसे भारत के मुख्य न्यायधीश ने खारिज कर दिया।
चूंकि पूरा प्रकरण संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करनेवाला है, इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए पूर्णत: निष्पक्ष, पारदर्शी कदम उठाए जाने की जरूरत है। मामला किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति का नहीं है। मामला किसी एक सरकार के समर्थन या विरोध का नहीं है। मुद्दा है देश कीलोकतांत्रिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने का। अदालतों को हमारे देश में न्याय मंदिर का स्थान प्राप्त है। अदालती फैसलों को ईश्वरीय फैसला मानते हैं लोग। अत: इसमें कोई घालमेल अथवा पक्षपात को जगह नहीं दी जा सकती। चूंकि, सरकारें बदलती रहती हैं, किसी एक सरकार की भावना या विचारधारा के आधार पर न्यायपालिका संचालित नहीं हो सकती। हां, मानवीय गुण-अवगुण के समावेश की संभावना के कारण न्यायपालिका पर भी निगरानी व वैधानिक अंकुश जरूरी है। ऐसे में केंद्र सरकार के नए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की टिप्पणी का स्वागत है कि ‘जजों की नियुक्ति पर सर्वमान्य हल ढूंढा जाएगा।’ चूंकि हमारी न्यायिक प्रणाली की विशिष्टता इसकी स्वतंत्रता है, आशा है कि नए मंत्री श्री प्रसाद इस रेखांकित जरूरत को विस्मृत नहीं करेंगे।
चूंकि पूरा प्रकरण संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करनेवाला है, इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए पूर्णत: निष्पक्ष, पारदर्शी कदम उठाए जाने की जरूरत है। मामला किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति का नहीं है। मामला किसी एक सरकार के समर्थन या विरोध का नहीं है। मुद्दा है देश कीलोकतांत्रिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने का। अदालतों को हमारे देश में न्याय मंदिर का स्थान प्राप्त है। अदालती फैसलों को ईश्वरीय फैसला मानते हैं लोग। अत: इसमें कोई घालमेल अथवा पक्षपात को जगह नहीं दी जा सकती। चूंकि, सरकारें बदलती रहती हैं, किसी एक सरकार की भावना या विचारधारा के आधार पर न्यायपालिका संचालित नहीं हो सकती। हां, मानवीय गुण-अवगुण के समावेश की संभावना के कारण न्यायपालिका पर भी निगरानी व वैधानिक अंकुश जरूरी है। ऐसे में केंद्र सरकार के नए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की टिप्पणी का स्वागत है कि ‘जजों की नियुक्ति पर सर्वमान्य हल ढूंढा जाएगा।’ चूंकि हमारी न्यायिक प्रणाली की विशिष्टता इसकी स्वतंत्रता है, आशा है कि नए मंत्री श्री प्रसाद इस रेखांकित जरूरत को विस्मृत नहीं करेंगे।
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