मीडिया मंडी पर मीडिया 'ट्रायल' के संगीन आरोप लगते रहे हैं। समाज व देशहितकारी मुद्दों पर सकारात्मक दिशा दे अगर 'ट्रायल' होते हैं तो उनका स्वागत है किंतु जब मीडिया मंडी के न्यायाधीश सकारात्मक दिशा की जगह नापाक विचारधारा थोप नकारात्मक दिशा देने लगें, मामला अदालत में लंबित होने के बावजूद आरोपियों को सिर्फ अपराधी नहीं देशद्रोही तक घोषित करने लगे, कानून और सबूतों को ठेंगे पर रख फैसले सुनाने लगे तब, मंडी के दलालों को कटघरे में खड़ा किया जाएगा ही।
अभी-अभी पिछले मंगलवार को टीआरपी के दौर में तेजी से आगे बढ़ते हुए इंडिया न्यूज चैनल के 'एडिटर इन चीफ' दीपक चौरसिया ने ऐसे ही आरोपों से स्वयं को कटघरे में खड़ा कर लिया। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कथित देशद्रोह प्रकरण की जांच अभी जारी है, पुलिस गवाह-सबूतों की तलाश कर रही है। मीडिया कर्मियों से भी पूछताछ जारी है। फर्जी वीडियो के रहस्य उजागर होने लगे हैं, आरोप पत्र दाखिल होना अभी शेष है, लेकिन चौरसिया ने अपने बहस के कार्यक्रम का शीर्षक दे डाला 'देशद्रोही कौन?। परदे पर तीनों आरोपी कन्हैया, अनिर्बान और उमर खालिद की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में 'देशद्रोही कौन?' का 'ग्राफिक प्लेट'। कार्यक्रम में वामपंथी छात्र संगठनों और एबीवीपी के सदस्यों के बीच जेएनयू प्रकरण पर खुली बहस कराई गई। मजे की बात यह कि बहस के दौरान चौरसिया ने इनके देशद्रोह पर सवाल नहीं पूछा। फिर शीर्षक और ग्राफिक? जाहिर है कि उत्तेजक, सनसनीखेज शीर्षक केवल दर्शकों को कार्यक्रम के प्रति आकर्षित करने के लिए दिया गया था। जांच-प्रक्रिया से गुजर रहे देशद्रोह जैसे गंभीर मामले के साथ चौरसिया का 'बहस उपक्रम' अपराध की श्रेणी का है। बहस के दौरान भी चौरसिया का पक्षपात साफ-साफ दिख रहा था। सभी वक्ताओं के लिए दो-दो मिनट का पूर्व निर्धारित समय एबीवीपी के सदस्यों के लिए बढ़ा दिया गया। जबकि वामपंथी संगठनों के छात्रों को यह सुविधा नहीं दी गई। कुछ छात्रों की आपत्ति को भी चौरसिया ने खारिज कर दिया कि जब मामले की जांच चल रही हो तो ऐसा मीडिया ट्रायल क्यों? चौरसिया का हास्यास्पद जवाब था कि हम बहस करवा रहे हैं फैसला नहीं दे रहे हैं। कार्यक्रम खत्म हो गया किंतु दर्शकों को इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि देशद्रोही कौन है?
विद्वान संपादक का विद्वतापूर्ण करिश्मा?
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में बल्कि यूं कहें कि लालकृष्ण आडवाणी के सूचना प्रशासन मंत्रितत्व काल में भारत सरकार के दूरदर्शन के लिए काम कर चुके दीपक चौरसिया के 'साम्राज्य' पर सवाल उठते रहे हैं। राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक 'सुविधाओं से उपकृत' चौरसिया के इंडिया न्यूज में प्रवेश की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प है। सन 2008 की बात है तब इंडिया न्यूज को कुछ परिचित चेहरों की तलाश थी। चौरसिया तब स्टार में थे। इंडिया न्यूज के एक वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी के साथ दीपक संस्थान के प्रबंक निदेशक से मिलने आये। ध्यान रहे दीपक मिलने आये थे। बातचीत चली, अचानक बातचीत के दौरान ही दीपक ने प्रबंध निदेशक से सवाल दाग डाला कि आपने यह कैसे समझ लिया कि मैं आपके साथ ज्वाइन करूंगा। प्रबंध निदेशक भौचक। बेचारा वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी हतप्रभ की फिर दीपक बात करने इंडिया न्यूज में आए ही क्यों? बातचीत तो खत्म हो गई किंतु उस दिन संस्थान के युवा प्रबंध निदेशक ने कुछ ठान लिया था। 2012 में जब दीपक को जब एबीपी (स्टार) छोडऩा पड़ा, तब उन्होंने अपनी ओर से इंडिया न्यूज का दरवाजा खटखटाया। ज्वांइन कर लिया। युवा प्रबंध निदेशक का संकल्प भी पूरा हुआ। इस पर विस्तार फिर कभी अन्य अवसर पर। लबोलुआब यह कि घोर अवसरवादी दीपक चौरसिया अपने 'लाभ' के लिए पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता तो बहुत बड़ी बात है, व्यक्तिगत नैतिकता को भी जमींदोज करने में शर्माते नहीं। टीवी चैनल पर पत्रकारिता और स्तर की चिंता फिर क्यों ? हां, चौरसिया टीवी दुनिया के एक स्थापित परिचित चेहरा हैं। अब यह चौरसिया पर निर्भर करता है कि दर्शकों के बीच उनकी यह पहचान सिर्फ 'परिचित' के रुप में रहे या 'सुपरिचित' के रुप में! या फिर, 'कुपरिचित' का तमगा?
...और यह भी
कश्मीर से प्रकाशित 'स्टेट टाइम्स' में विगत 16 फरवरी को ही एक खबर छपी थी कि जेएनयू में कथित देशविरोधी नारा लगाने वाले कश्मीरी छात्रों को दिल्ली पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार नहीं किया कि उन्हें ऊपर से 'मौखिक' आदेश था। कारण कि यदि उनकी गिरफ्तारी हो जाती तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा को सरकार बनाने में फजीहत का सामना करना पड़ता। चूंकि खबर एक छोटे अखबार में छपी तब किसी ने संज्ञान नहीं लिया। अगर उसी समय खबर दिल्ली के बड़े अखबार में छप जाती तब जेएनयू को लेकर 'मीडिया प्रोपगंडा' का उसी दिन भांडा फोड़ हो जाता।
अभी-अभी पिछले मंगलवार को टीआरपी के दौर में तेजी से आगे बढ़ते हुए इंडिया न्यूज चैनल के 'एडिटर इन चीफ' दीपक चौरसिया ने ऐसे ही आरोपों से स्वयं को कटघरे में खड़ा कर लिया। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कथित देशद्रोह प्रकरण की जांच अभी जारी है, पुलिस गवाह-सबूतों की तलाश कर रही है। मीडिया कर्मियों से भी पूछताछ जारी है। फर्जी वीडियो के रहस्य उजागर होने लगे हैं, आरोप पत्र दाखिल होना अभी शेष है, लेकिन चौरसिया ने अपने बहस के कार्यक्रम का शीर्षक दे डाला 'देशद्रोही कौन?। परदे पर तीनों आरोपी कन्हैया, अनिर्बान और उमर खालिद की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में 'देशद्रोही कौन?' का 'ग्राफिक प्लेट'। कार्यक्रम में वामपंथी छात्र संगठनों और एबीवीपी के सदस्यों के बीच जेएनयू प्रकरण पर खुली बहस कराई गई। मजे की बात यह कि बहस के दौरान चौरसिया ने इनके देशद्रोह पर सवाल नहीं पूछा। फिर शीर्षक और ग्राफिक? जाहिर है कि उत्तेजक, सनसनीखेज शीर्षक केवल दर्शकों को कार्यक्रम के प्रति आकर्षित करने के लिए दिया गया था। जांच-प्रक्रिया से गुजर रहे देशद्रोह जैसे गंभीर मामले के साथ चौरसिया का 'बहस उपक्रम' अपराध की श्रेणी का है। बहस के दौरान भी चौरसिया का पक्षपात साफ-साफ दिख रहा था। सभी वक्ताओं के लिए दो-दो मिनट का पूर्व निर्धारित समय एबीवीपी के सदस्यों के लिए बढ़ा दिया गया। जबकि वामपंथी संगठनों के छात्रों को यह सुविधा नहीं दी गई। कुछ छात्रों की आपत्ति को भी चौरसिया ने खारिज कर दिया कि जब मामले की जांच चल रही हो तो ऐसा मीडिया ट्रायल क्यों? चौरसिया का हास्यास्पद जवाब था कि हम बहस करवा रहे हैं फैसला नहीं दे रहे हैं। कार्यक्रम खत्म हो गया किंतु दर्शकों को इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि देशद्रोही कौन है?
विद्वान संपादक का विद्वतापूर्ण करिश्मा?
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में बल्कि यूं कहें कि लालकृष्ण आडवाणी के सूचना प्रशासन मंत्रितत्व काल में भारत सरकार के दूरदर्शन के लिए काम कर चुके दीपक चौरसिया के 'साम्राज्य' पर सवाल उठते रहे हैं। राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक 'सुविधाओं से उपकृत' चौरसिया के इंडिया न्यूज में प्रवेश की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प है। सन 2008 की बात है तब इंडिया न्यूज को कुछ परिचित चेहरों की तलाश थी। चौरसिया तब स्टार में थे। इंडिया न्यूज के एक वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी के साथ दीपक संस्थान के प्रबंक निदेशक से मिलने आये। ध्यान रहे दीपक मिलने आये थे। बातचीत चली, अचानक बातचीत के दौरान ही दीपक ने प्रबंध निदेशक से सवाल दाग डाला कि आपने यह कैसे समझ लिया कि मैं आपके साथ ज्वाइन करूंगा। प्रबंध निदेशक भौचक। बेचारा वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी हतप्रभ की फिर दीपक बात करने इंडिया न्यूज में आए ही क्यों? बातचीत तो खत्म हो गई किंतु उस दिन संस्थान के युवा प्रबंध निदेशक ने कुछ ठान लिया था। 2012 में जब दीपक को जब एबीपी (स्टार) छोडऩा पड़ा, तब उन्होंने अपनी ओर से इंडिया न्यूज का दरवाजा खटखटाया। ज्वांइन कर लिया। युवा प्रबंध निदेशक का संकल्प भी पूरा हुआ। इस पर विस्तार फिर कभी अन्य अवसर पर। लबोलुआब यह कि घोर अवसरवादी दीपक चौरसिया अपने 'लाभ' के लिए पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता तो बहुत बड़ी बात है, व्यक्तिगत नैतिकता को भी जमींदोज करने में शर्माते नहीं। टीवी चैनल पर पत्रकारिता और स्तर की चिंता फिर क्यों ? हां, चौरसिया टीवी दुनिया के एक स्थापित परिचित चेहरा हैं। अब यह चौरसिया पर निर्भर करता है कि दर्शकों के बीच उनकी यह पहचान सिर्फ 'परिचित' के रुप में रहे या 'सुपरिचित' के रुप में! या फिर, 'कुपरिचित' का तमगा?
...और यह भी
कश्मीर से प्रकाशित 'स्टेट टाइम्स' में विगत 16 फरवरी को ही एक खबर छपी थी कि जेएनयू में कथित देशविरोधी नारा लगाने वाले कश्मीरी छात्रों को दिल्ली पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार नहीं किया कि उन्हें ऊपर से 'मौखिक' आदेश था। कारण कि यदि उनकी गिरफ्तारी हो जाती तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा को सरकार बनाने में फजीहत का सामना करना पड़ता। चूंकि खबर एक छोटे अखबार में छपी तब किसी ने संज्ञान नहीं लिया। अगर उसी समय खबर दिल्ली के बड़े अखबार में छप जाती तब जेएनयू को लेकर 'मीडिया प्रोपगंडा' का उसी दिन भांडा फोड़ हो जाता।
1 comment:
विचारणीय व चिंतनशील प्रस्तुति हेतु आभार!
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