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Tuesday, January 6, 2009

'मंद बुद्धि' के रोगी न बनें पाटिल!

संसद पर हमले के दोषी अफज़ल गुरु को तत्काल फांसी दिए जाने की मांग को राजनीति-प्रेरित बताकर देश के पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल आखिर क्या बताना चाहते हैं, क्या संदेश देना चाहते हैं? मामले को और उलझाते हुए पाटिल ऐसी टिप्पणी भी कर बैठे कि ''राजीव गांधी हत्याकांड का मामला भी अभी लंबित है. फिर अफज़ल गुरु का मामला ही क्यों उठाया जा रहा है?'' पाटिल की असली 'नीयत' की तो अभी जानकारी नहीं, किंतु लोग उनकी इस टिप्पणी पर कि ''लोगों को मारने में क्या बहादुरी है?'' स्पष्टीकरण अवश्य चाहेंगे. कहीं पाटिल अफज़ल को फांसी की सज़ा दिए जाने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय की पुष्टि पर सवालिया निशान तो नहीं लगा रहे! अगर ऐसा नहीं है, तब सभी जानना चाहेंगे कि अफज़ल के लिए उनके मन में अचानक सहानुभूति कैसे पैदा हो गई?
नेता बनने में विफल अभिनेता गोविंदा की तरह यह सिर्फ जुबान फिसलने का मामला नहीं है. लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की टिकट को लेकर मुंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह की एक टिप्पणी पर गोविंदा ने फिल्मी अंदाज में प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ''मैं किसी छोटे नेता की बातों पर ध्यान नहीं देता.'' अर्थात् गोविंदा की नजरों में कृपाशंकर सिंह एक छोटे नेता हैं. राजनीतिक पचड़े से दूर रहने वाले भी गोविंदा की इस बात पर हंस पड़े थे. मैं यहां शिवराज पाटिल की तुलना गोविंदा से हरगिज नहीं कर रहा. पाटिल राजनीतिक अखाड़े के एक मंजे हुए खिलाड़ी हैं. वे केंद्रीय गृहमंत्री के अलावा लोकसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. ऐसे में पाटिल के शब्दों को हल्के से नहीं लिया जा सकता. फिर पाटिल ने ऐसी टिप्पणी क्यों की? साफ है कि अफज़ल प्रकरण को राजनीति-प्रेरित बताने वाले पाटिल स्वयं ही 'राजनीति' कर रहे हैं.
इस मामले से जैश-ए-मोहम्मद के नेता अज़हर मसूद की रिहाई को जोडऩा राजनीति ही तो है. क्या पाटिल अफज़ल की रिहाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं? या फिर 'दबाव के कारण' मज़बूर हो गृहमंत्री पद छोडऩे वाले शिवराज पाटिल, राजीव गांधी हत्याकांड के मामले को छेड़ कोई नया गुल खिलाना चाहते हैं! अगर ऐसा है तो भारत की गंदी राजनीति का एक और कुरूप चेहरा सामने आएगा. यह ठीक है कि किसी को मारने में कोई बहादुरी नहीं है, तब क्या पाटिल चाहते हैं कि फांसी की सज़ा का प्रावधान ही समाप्त हो जाए! इस विचार पर देश में सहमति के व्यापक स्वर उठ सकते हैं. यह पहले से ही राष्ट्रीय बहस का एक मुद्दा बना हुआ है. देश का जनमत फांसी की सज़ा के विरोध में है. लेकिन जब तक देश के कानून में ऐसी सजा का प्रावधान है तब इसे रोका नहीं जा सकता. हालांकि देश की अदालतें इन दिनों जघन्यतम मामलों में ही फांसी की सजा सुना रही हैं.
मय सबूत जब अपराध जघन्यतम प्रमाणित हो जाता है, तब ही प्रावधानों के अनुरूप अदालत फांसी की सजा सुनाती है. सज़ा सुनाने वाले न्यायाधीश अपराधी के दुश्मन नहीं होते. न्याय की कुर्सी पर बैठ आंखों में पट्टी बांध अदालत न्याय करती है. यह प्रक्रिया कानून का स्वाभाविक विकास है.
क्या है यह कानून और विकास?
प्राचीन काल में समाज, वस्तुत: किसी कानून से नहीं, बल्कि शक्ति से परिचालित था. लेकिन जब दुर्बलों पर 'शक्ति' अत्याचार करने लगी, तब एक बंधनकारी कानून की आवश्यकता महसूस हुई और कानून बनाए गए. कानून-व्यवस्था लागू करने के लिए राजा बने. तब राजा को ही ईश्वर का प्रतिनिधि मान उसके द्वारा दिए गए दंड को समाज स्वीकार करता था. इसी को कानून का स्वाभाविक विकास माना गया. धीरे-धीरे सामाजिक विकास के साथ यह सवाल खड़ा हुआ कि सजा या दंड का उद्देश्य क्या है?- बदला लेना, या सुधार करना! ऐसे विचार उभर कर सामने आए कि अपराधियों को दंड देने का मुख्य उद्देश्य उसका सुधार करना और भविष्य में होने वाले अपराधों की जड़ से समाप्ति होना चाहिए. आधुनिक सभ्य समाज इसका पक्षधर है.
यह ठीक है कि समाज का एक वर्ग अभी भी फांसी की सज़ा का पक्षधर है. फांसी के पक्ष में इस वर्ग की दलील है कि इससे अन्य मनुष्यों को न केवल शिक्षा मिलेगी, वरन् समाज ऐसे निर्दयी हत्यारों से मुक्त हो जाएगा. प्रत्येक व्यक्ति के दिल में मनुष्य-मात्र की जीवन-रक्षा का उच्च विचार प्रस्फुटित होगा. इस सज़ा पर अभी भी विश्व-स्तर पर बहसें जारी हैं. किंतु हम यह मानने को तैयार नहीं कि शिवराज पाटिल, अपने वक्तव्य द्वारा फांसी की सज़ा के औचित्य पर नई बहस चाहते हैं. निश्चय ही उनकी 'नीयत' कुछ और है. मंत्री पद छिन जाने से दु:खी व क्रुद्ध पाटिल बेहतर हो संयम बरतें! राजनीतिक हैं, तो राजनीति करें, किसी को कोई आपत्ति न होगी, किंतु अपने पाश्र्व को देखते हुए देश के कानून और न्यायालय को चुनौती न दें! संसद पर हमले के अपराधी के प्रति (अनजाने में ही सही) सहानुभूति व्यक्त कर वे अब तक अर्जित अपनी प्रतिष्ठा को गंवा देंगे! क्या पाटिल ऐसा चाहेंगे?
एस.एन. विनोद
7 दिसंबर 2009

2 comments:

चलते चलते said...

शिवराज पाटिल ने लोकसभा अध्‍यक्ष पद पर रहते हुए जो ख्‍याति और सम्‍मान अर्जित किया था उसे वे देश के गृह मंत्री रहते हुए खो चुके हैं। एक गृह मंत्री के पद से उनकी जिस ढंग से विदाई हुई वह अच्‍छी नहीं कही जा सकती। लगता है अब शिवराज पाटिल की मानसिक सोच स्थिति ठीक नहीं है या उनका स्‍वास्‍थ्‍य उम्‍दा नहीं है। अपराधी कोई भी हो उसे सजा मिलनी चाहिए और इसमें कोई दखल नहीं होना चाहिए। दखल होने लगा तो खुद अपराधी ही कहने लगेंगे कि मेरे से पहले उसने अपराध किया था, पहले उसे सजा दो, मेरा नंबर बाद में आएगा। मसलन अफजल गुरु ही कहेगा कि पहले राजीव के हत्‍यारों को सजा दो, पहले फलां गांव में एक सामूहिक हत्‍या कांड हुआ था उनको सजा दो, पहले अमुक शहर में बलात्‍कार और हत्‍या हुई थी उसे सजा दो। मैंने तुम्‍हारा क्‍या बिगाड़ा है जो मेरा नंबर उन सबसे पहले ले रहे हो। हमारे राजनेताओं को लगता है होश नहीं है या वे नहीं जानते कि कब और कहां क्‍या बोल रहे हैं। न्‍यायपालिका को अपना काम करने दें तो बेहतर रहेगा। वैसे भी अपना देश इस समय जो कुछ चल रहा है वह न्‍यायपालिका की वजह से ही चल रहा है अन्‍यथा नेता तो इसका पूरा बंटाढार ही कर डालें।

सागर नाहर said...

बहुत बढ़िया लेख और कमल जी की बढ़िया टिप्पणी...
लगता है कि शिवराज पाटिल जी को किसी अच्छे मनोचिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये।

एस.एन. विनोद
7 दिसंबर 2009

शायद यहां दिसम्बर की बजाय जनवरी होना चाहिये था।