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Sunday, February 21, 2010

क्यों नहीं रह सकते हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ !

अरुचिकर व संवेदनशील तो है, किन्तु सवाल है मौजूं। पूछा जा रहा है कि आखिर हिन्दू और मुसलमान एकसाथ मिलजुलकर भाई-भाई की तरह क्यों नहीं रह सकते?
संविधान और राष्ट्रीयता को ठेंगे पर रखने वाले बाल ठाकरे को छोडि़ए। उनके लिए न कोई राष्ट्र है, न संविधान है और न कायदा-कानून है। सिर्फ एक धर्म, एक भाषा विशेष और राज्य के सिर्फ एक वर्ग के हित की बातें करने वाला सर्वधर्म समभाव आधारित भारतीय संस्कृति को क्या समझेगा? साम्प्रदायिक सौहाद्र्र का अर्थ वे समझ ही नहीं सकते। राष्ट्रीय एकता, भाईचारा, सभी धर्म, वर्ग, भाषा के बीच परस्पर प्रेमभाव उनके गले के नीचे उतर ही नहीं सकता। उनका धर्म तो जातीयता, क्षेत्रीयता और भाषा के पलीते लगाना है। वे अगर भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के मंदिर-मस्जिद समाधान की पहल को ठुकरा देते हैं तो कोई आश्चर्य क्यों करे? अपनी स्वार्थजनित राजनीति चमकाने के लिए ठाकरे ऐसे करतब दिखाते रहते हैं।
सवाल हिन्दू-मुसलमान के बीच परस्पर प्रेम का है, विश्वास का है। जिस भारत की विशाल आबादी में हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ी आबादी (लगभग 15 करोड़) मुस्लिमों की है, वहां यह दोनों समुदाय अलग-अलग कैसे रह सकते हैं? पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासकों की दिमागी उपज द्विराष्ट्र सिद्धांत को आधार बना भारत को खंडित कर पाकिस्तान का उदय एशिया के इस भाग में साम्प्रदायिक अशांति बनाए रखने की चाल थी। सत्तालोलुप कतिपय हिन्दू-मुस्लिम नेताओं को छोड़ दें तो दोनों समुदाय के लोग बंटवारे के खिलाफ थे, मिलजुलकर रहना चाहते थे। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व का इतिहास हिन्दू-मुस्लिम एकता को रेखांकित करता मिलेगा। अंग्रेजों ने चाल चली, हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने के षडय़ंत्र रचे, दंगे करवाए और देश का विभाजन करवा दिया। लेकिन अब इस पर और चर्चा नहीं। उन दुखद घटनाओं को इतिहास में कैद रहने दिया जाए। परिवर्तित नवयुग सर्वधर्म समभाव का आग्रही है। कट्टर धार्मिक वर्जनाओं को वह इन्कार करता है। नई पीढ़ी अब बातें करती है तो विश्व समुदाय की- किसी संकुचित एक या दो समुदाय की नहीं। वैसे संदर्भवश विभाजन के बाद की किसी घटना को याद करना ही है तो उस घटना को याद करें जिसमें जवाहरलाल नेहरू नई दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में स्वयं जाकर उन हिन्दुओं को खदेड़ते देखे गए थे जो मुस्लिमों की दुकानों को लूट रहे थे। हां, बावजूद इसके यह सच अवश्य मौजूद रहेगा कि दोनों पक्षों के शरणार्थी कड़वाहट और बदले की भावनाओं को अपने साथ ले गए। सदियों से शांतिपूर्वक एक साथ रहने वाली दोनों कौमों के दिलों में नफरत और बदले की भावना घर कर रही थी। कारण वही, ब्रिटिश रचित षडय़ंत्र और दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथी।
वर्तमान अंतरिक्ष युग में भी क्या आत्मघाती, साम्प्रदायिक सोच को स्थान मिलना चाहिए? कदापि नहीं! इतिहास बदलकर नया इतिहास लिखा ही जाना चाहिए। दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथियों को छोड़ दें, सत्तालोलुप कथित नेताओं को छोड़ दें, गली-मोहल्लों में जाकर पता करें तो मालूम होगा कि दोनों कौमों के सदस्य मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं। मंदिर-मस्जिद के झगड़े की जड़ में कट्टरपंथी हैं, नेता हैं, आम हिन्दू या मुसलमान नहीं। जब यह हकीकत है तब फिर दोनों समुदायों के बीच परस्पर विश्वास, प्रेम संभव है।
पहल हो चुकी है। इसे गति दी जाए। कट्टरपंथियों और नेता तो विरोध करेंगे ही, उनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी। वे हरकत में आ भी गए हैं। देवबंदी उलेमा ने अयोध्या में मस्जिद की जगह बदलने से इन्कार कर दिया है। कुछ संतों ने भी गडकरी की पहल को गैरजरूरी करार दिया है। साफ है कि धर्म के कथित ठेकेदार ये तत्व समस्या का समाधान नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि हिन्दू और मुसलमान कभी मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहें। साम्प्रदायिक वैमनस्य को जीवित रखकर ही तो ये मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेल पाएंगे। लेकिन अब समय आ गया है जब इन तत्वों को उनकी औकात बता देनी चाहिए। नई पीढ़ी का नया नेतृत्व यह जिम्मेदारी ले। सर्वधर्म समभाव भारत की सनातन अवधारणा है। यहां सभी विचारधाराओं और दृष्टिकोण के आदर की परंपरा है। एक इस्लामी विद्वान जमाएतुल उलेमा के अध्यक्ष मोहम्मद हुसैन अहमद मदनी ने एक बार कहा था कि ''जिस प्रकार हजरत मोहम्मद ने मदीना में यहूदियों और मुसलमानों की एक संयुक्त राष्ट्रीयता की स्थापना की, उसी प्रकार भारत में भी हिन्दू-मुसलमान को एक राष्ट्रीयता में बांधा जा सकता है।'' महात्मा गांधी ने इसकी कोशिश की थी। वे असफल रहे थे। किन्तु क्या एक असफलता को स्थायी मान लिया जाना चाहिए? जवाब नई पीढ़ी को देना है। धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिए हो, वैमनस्य के लिए नहीं। वर्तमान भारत हर मोर्चे पर शांति का आग्रही है। हिन्दू-मुस्लिम एकता संभव है। जरूरत है ईमानदार प्रयासों की।

6 comments:

M VERMA said...

साम्प्रदायिक वैमनस्य को जीवित रखकर ही तो ये मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेल पाएंगे।
यह खेल शुरू ही इसलिये की गयी है कि कतिपय की दुकानदारी बनी रहे. और हाँ नई पीढ़ी सबकुछ जानते हुए भी शिकार बन रही है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बिल्कुल नहीं रह सकते. इस्लामी कट्टर मान्यताओं के चलते दूसरी संस्कृति के लोग अपना अस्तित्व तक बचाने में अक्षम हो जाते हैं. दुनिया भर के इस्लामी मुल और गैर-इस्लामी मुल्कों के वह हिस्से जहां मुस्लिम अधिक तादाद में हैं, उन जगहों में दूसरे धर्म के लोगों की स्थिति देख लीजिये. पढ़े लिखे को फारसी क्या? जो लोग सहिष्णु हैं ही नहीं उनके बारे में ऐसा चिन्तन. दूर क्यों जायें अपने ही देश में देखिये. अब ऐसे में भी कोई अपना राग अलापता रहे तो फिर देश का अल्लाह ही मालिक होगा.

Unknown said...

आपकी यह पोस्ट एक "सैद्धान्तिक बासी कढ़ी" के अलावा और कुछ नहीं है… जिसमें जब-तब उबाल आता रहता है, नतीजा कुछ नहीं निकलता…। क्या मैं आपको हाफ़िज़ सईद और ज़ाकिर नाईक के विचारों के यू-ट्यूब सबूत भेजूं कि उनके मंसूबे क्या हैं? और उनके कितने फ़ॉलोअर्स हैं, और आप तो विद्वान हैं आपको असम, पश्च्मि बंगाल तथा केरल के कुछ खास जिलों की स्थिति बताने की जरूरत नहीं है।
एक बात ध्यान में रख लीजिये सर जी, कि जहाँ-जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक होगा वह हिस्सा देश से अलग होने की राह पर चल देगा… या कम से कम उस जगह पर "भारत गणराज्य या संविधान" की सत्ता नहीं चलेगी… बाकी तो आप खुद समझदार हैं…

निशाचर said...

बिलकुल रह सकते हैं लेकिन इसके लिए पहल मुसलमानों को ही करनी होगी. उन्हें अपनी धार्मिक कट्टरता छोड़ "राष्ट्र प्रथम" को अपनाना होगा. छोटी-छोटी और अप्रासंगिक बातों को लेकर अपने देश में दंगा -फसाद करना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना, पर्सनल ला के नाम पर देश के कानून को धता बताना और एक जिम्मेदार नागरिक समुदाय के बजाये एक गिरोह की तरह व्यवहार करना आदि, यह कुछ कारण हैं जिससे बहुसंख्यक समुदाय में उनके प्रति अविश्वाश पनपा है. उन्हें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि ९९.९९ प्रतिशत भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन ही थे तथा पूजा पद्यति को छोड़कर शेष सब कुछ हिन्दू संस्कारों के अवशेष ही हैं जिन्हें हम भारतीय संस्कृति कहते हैं. उस पर अरब या तुर्की का मुलम्मा चढाने का प्रयास निरी मूर्खता और समुदायों में वैमनस्य बढ़ने से अधिक कुछ नहीं. सारी दुनिया में इस्लाम को शक की नजर से ही देखा जा रहा है और इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों की हालत इस शक को और गहरा करती है. इसके लिए सारे विश्व को दोष देने के बजाये मुसलमानों को आत्मावलोकन एवं आत्ममंथन की आवश्यकता है.

DR. ANWER JAMAL said...

चीज़ें बोलती हैं लेकिन इन्हें सुनता वही है जो इनके संकेतों पर ध्यान देता है। प्रज्ञा, ध्यान और चिंतन से ही मनुष्य अपने जन्म का उद्देश्य जान सकता है। ये गुण न हों तो मनुष्य पशु से भी ज़्यादा गया बीता बन जाता है।
भारत की विशालता, हिमालय की महानता और गंगा की पवित्रता बताती है कि स्वर्ग जैसी इस भूमि पर जन्म लेने वाले मनुष्य को विशाल हृदय, महान और पवित्र होना चाहिए। ऋषियों की वाणी भी यही कहती है। ज्ञान ध्यान की जिस ऊँचाई तक वे पहुँचे, उसने सिद्ध कर दिया कि निःसंदेह मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है।
परन्तु अपने पूर्वजों की दिव्य ज्ञान परम्परा को हम कितना सुरक्षित रख पाये? नैतिकता और चरित्र की रक्षा के लिए सबकुछ न्यौछावर करने वालों के आदर्श को हमने कितना अपनाया? ईश्वर को कितना जाना? उसके ‘दूत’ को कितना पहचाना? और उसकी ओर कितने कदम बढ़ाए?
गंगा केवल एक नदी मात्र ही नहीं है बल्कि गंगा भारत की आत्मा और उसका दर्पण भी है जिसमें हर भारतवासी अपना असली चेहरा देख सकता है और अगर सुधरना चाहे तो सुधर भी सकता है। गंगा हमें सत्य का बोध कराती है लेकिन हम उसके संकेतों पर ध्यान नहीं देते।
गंगा की रक्षा हम नहीं कर पाये।
ग़ज़ल

पानी

क्यों प्यासे गली-कूचों से बचता रहा पानी
क्या ख़ौफ था कि शहर में ठहरा रहा पानी
आखि़र को हवा घोल गयी ज़हर नदी में
मर जाऊंगा, मर जाऊंगा कहता रहा पानी
मैं प्यासा चला आया कि बेरहम था दरिया
सुनता हूँ मिरी याद में रोता रहा पानी
मिट्टी की कभी गोद में, चिड़ियों के कभी साथ
बच्चे की तरह खेलता-हंसता रहा पानी
इस शहर में दोनों की ज़फ़र एक-सी गुज़री
मैं प्यासा था, मेरी तरह प्यासा रहा पानी

Mohammed Umar Kairanvi said...

क्‍यूं नहीं रह सकते का क्‍या मतलब, हमेशा से रह रहें हम साथ-साथ, मेरे धर्मगुरू डाक्‍टर अनवर जमाल जी ने मुझे इस पोस्‍ट की खबर दी,वह आपके विचारों से बहुत खूश थे इस खुशी में मुझे भी शरीक होने भेजा, इस लिये आप दोनों का ही धन्‍यवाद