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Wednesday, December 10, 2008

'झूठ' की राजनीति और 'औरत' का सच!

कथित सेमीफाइनल के नतीजे अपने साथ धारदार, चुटीली सुर्खियां भी लेकर आए. बुद्धू बक्से (इडियट बॉक्स) पर खूबसूरत बालाएं चीख रही थीं कि 'महारानी का ताज छिना' और 'चल गया शीला का जादू'. विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर परिणाम आने के पूर्व रुझान के साथ-साथ बहसें जारी थीं. चैनलों के कथित विशेषज्ञ, विभिन्न राजदलों के प्रतिनिधि और सेफोलॉजिस्ट मौजूद थे. बिल्कुल सिनेमाई अंदाज में रुझान और परिणाम की परिस्थितियों और भविष्य की राजनीति पर, विशेषकर आगामी लोकसभा चुनाव पर पडऩे वाले संभावित असर को बयां कर रहे थे. इस तथ्य को भूलकर कि मतदान पूर्व सर्वेक्षण में इन्होंने ही बिल्कुल अलग बातें कही थीं. क्यों? साफ है कि मीडिया और इससे जुड़े अन्य विशेषज्ञ यह मानकर चलते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है. लेकिन यह सच नहीं है. सच तो यह है कि आज का मतदाता इन कथित विशेषज्ञों से कहीं अधिक समझदार और परिपक्व है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम इसके सबूत हैं. लच्छेदार-आलंकारिक शब्दों के ताने-बाने से विकास कार्यों के कारण शीला दीक्षित के सिर जीत का सेहरा बांधने वालों से कुछ सवाल! सन् 2006 में सीलिंग की कार्रवाई से आम जनता में उत्पन्न नाराजगी को रेखांकित करते हुए क्या आपने स्वयं यह शंका नहीं जताई थी कि विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित की सरकार व कांग्रेस पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा? ब्ल्यू लाइन बसों के कहर, उत्तर भारतीयों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी, बिजली और सड़क की खस्ता हालत, अस्पतालों की दुर्दशा, अतिक्रमण और नगर निगम से लेकर दिल्ली सरकार में व्याप्त भ्रष्टïाचार के मद्देनजर क्या आप लोगों ने ऐसी घोषणा नहीं कर रखी थी कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस बुरी तरह पराजित होगी? क्या आपने ऐसी भविष्यवाणी नहीं कर रखी थी कि इस बार 'फ्लेयर्स बिल्डिंग' पर भाजपा का कब्जा होगा? 'शीला के जादू' की चर्चा कभी भी किसी ने नहीं की थी. इसी प्रकार राजस्थान में महारानी का ताज छिन जाने के पक्ष में जो तर्क अब दिए जा रहे हैं, वे वस्तुत: बाद में सोचे गए तर्क हैं. दिल्ली के उलट राजस्थान में वसुंधरा के नेतृत्व में विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुए. स्वयं भाजपा के आलोचक भी इस सच को स्वीकार करेंगे. बावजूद इसके मतदाता ने उन्हें अस्वीकार किया तो उनकी 'आक्रामकता' के कारण. ठीक उसी प्रकार जिस तरह उमा भारती को उनकी आक्रामकता के कारण मतदाताओं ने नकार दिया था. यह वही कड़वा सच है जिसे वैचारिक स्तर पर कदापि स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन विडंबना यह कि व्यवहार के स्तर पर मतदाता महिला नेतृत्व के मुद्दे पर बार-बार यही करता आया है. इस बिंदु पर पहुंच विचारक असहज हो उठते हैं. क्या हम अभी भी उसी काल में विचर रहे हैं जिसमें कभी उन परिस्थितियों की खोज होती थी जिसमें 'औरत' कहने मात्र से देह और राजनीति के सिवाय कुछ नहीं उभरता था? तब विपक्ष की राजनीति अवसरवाद के दलदल में फंसी थी. आज पक्ष-विपक्ष दोनों अवसरवाद के घृणित तमगे से विभूषित हैं. 'औरत' के मामले में दोष सिर्फ इनका ही नहीं. बल्कि पुरुष प्रधान समाज का मतदाता अधिक दोषी है. वह 'औरत' को अपने द्वारा खिंची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर ही देखना चाहता है. नारी आक्रामकता उसे पसंद नहीं. यही पुरुष सोच का कटु आंतरिक सच है. उसे शीला दीक्षित के चेहरे में, हावभाव में, बोलचाल में मातृत्व की सहज स्वीकार्य झलक दिख जाती है. जबकि वसुंधरा राजे की आक्रामकता, पश्चिमी रहन-सहन और बोलचाल उसे असहज कर जाती है. उमा भारती का संन्यासन स्वरूप तो उसे भाता है, किंतु आचरण और वाणी की आक्रामकता उसे सहन नहीं. पुरुष समाज इन दोनों के आचरण को लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन मानता है. इस असहज अवस्था से क्या कोई समाज को मुक्ति दिलाने की पहल करेगा? अगर कोई सामने आता है तो वह सावधान होकर आए. आडंबर का लबादा त्याग कर आए. इस तथ्य को चिह्नित कर आगे आए कि आवाज के मखमल से अब सत्ता हासिल नहीं की जा सकती. परिपक्त मतदाता शब्दजाल के भंवर में फंसने वाला नहीं. पुरुष की समानांतर औरत को समाज व राजनीति में भागीदारी देने के समर्थक भी इन सचाइयों को हृदयस्थ कर लें. चुनाव में जीत का सेहरा और हार का ठीकरा निर्धारित करने वाले कथित विशेषज्ञ भी सावधान हो जाएं. क्या कोई इससे इन्कार करेगा कि आज की राजनीतिक व्यवस्था राजनीति से जनता को निष्क्रिय बनाने में लगी हुई है? ऐसे में क्यों न समाज व मतदाता का आह्वान करने के पूर्व इस 'राजनीतिक व्यवस्था' से मुक्त होने के उपाय किए जाएं? तभी जनता की सक्रियता सार्थक राजनीतिक परिणाम दे पाएगी. फिर विलंब क्यों?
एस.एन. विनोद
9 दिसंबर

1 comment:

विधुल्लता said...

'औरत' के मामले में दोष सिर्फ इनका ही नहीं. बल्कि पुरुष प्रधान समाज का मतदाता अधिक दोषी है. वह 'औरत' को अपने द्वारा खिंची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर ही देखना चाहता है. नारी आक्रामकता उसे पसंद नहीं. यही पुरुष सोच का कटु आंतरिक सच है.meri aaj ki post dekhen...badhai