अब देर क्यों,सबक सिखा ही दें
पाकिस्तान को!
अब कोई राहुल गांधी को 'राहुल बाबा' न कहे. विगत गुरुवार को आतंकवाद के मुद्दे पर लोकसभा में उनका उद्बोधन परिपक्वता की ओर कदमताल का आगाज है. वैसे उनका उद्बोधन एक राजनीतिज्ञ, कर्तव्य एवं दायित्व के प्रति सतर्क-समझदार नागरिक और समर्पित देशभक्त को रेखांकित करता है. निश्चय ही यह उनके राजनीतिक प्रशिक्षक-सलाहकारों की बड़ी सफलता है. किन्तु मैं उन्हें सफलता का पूर्णांक तभी दूंगा जब वे अपने शब्दों को अमली जामा पहनाकर भारत को आतंकवाद मुक्त देश बनाने की दिशा में निर्णायक कदम उठाने के लिए सरकार को तैयार करें. अगर वे ऐसा नहीं कर पाए तब उनके लिए यह टिप्पणी सुरक्षित रख रहा हूं कि 'राहुल विशिष्टï नहीं, एक सामान्य राजनीतिज्ञ ही बन पाए.' क्या राहुल ऐसा चाहेंगे? ताजातरीन मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद से पूरा देश क्रोधित है. युवाओं में बेचैनी भरा आक्रोश है. पक्ष-विपक्ष सभी ऐसे आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को स्थायी सबक सिखाना चाहते हैं. सभी को अब अंजाम चाहिए. ऐसे आक्रोश के बीच जब राहुल यह कहते हैं कि 'हर भारतीय जान की कीमत आतंकियों को चुकानी होगी' तब 'अंजाम' के पक्ष में आशा बंधती है. ऐसी आशा तब विश्वास में तब्दील होगी जब भारतीय संसद ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया कि 'जब तक आतंकी हमले की योजना बनाने और उसमें मदद करने वाले सभी तत्वों को सजा नहीं मिल जाती तब तक भारत सरकार खामोश नहीं बैठेगी.'
अब गेंद भारत सरकार के पाले में है. चुनौती है उसे कि वह संसद के संकल्प को पूरा कर दिखाए. लेकिन सावधानीपूर्वक. वैश्विक आतंकवाद से जुड़े पुराने अनुभवों को ध्यान में रखकर ही भारत को कदम उठाना चाहिए. आज मुझे इस संदर्भ में सुविख्यात लेखक-पत्रकार-चिंतक (स्व.) कमलेश्वर की याद आ रही है. अमेरिका के विश्व-विख्यात वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद भारत में बढ़ते आतंकवाद पर उन्होंने एक लेख लिखा था. उक्त आलेख में उन्होंने वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की भूमिका की विस्तृत चर्चा की थी. कमलेश्वरजी ने अमेरिका से भारत को सावधान रहने की चेतावनी देते हुए यह चिह्नित किया था कि वस्तुत: 'भारत को भारत का समर्थन चाहिए'. संदेश बिल्कुल साफ था. आज जब संसद में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत सरकार के साथ होने का ऐलान कर रहा है, तब निश्चय ही कमलेश्वरजी की आत्मा संतुष्टï होगी कि भारत को भारत का समर्थन प्राप्त है.
अब कुछ दो टूक अमेरिका के सच पर. अन्य तटस्थ चिंतकों की भांति मैं भी इस निष्कर्ष पर अभी भी कायम हूं कि अमेरिका कभी भी भारत का भरोसेमंद दोस्त नहीं हो सकता. 7 वर्ष पूर्व हुए आतंकी हमले के बाद से अब तक अमेरिका पर अन्य कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ है. उस समय अफ्रीका के 2 देशों में अमेरिकी दूतावासों पर इस्लामिक आतंकवादियों ने हमले किए थे. तब अमेरिका ने निर्णय लिया और अफगानिस्तान और सूडान में कतिपय आतंकवादी ठिकानों पर हमले बोल दिए. ध्यान रहे, तब अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद से न तो विचार-विमर्श किया, न उसे सूचित किया. इसके उलट भारत ने सुरक्षा परिषद पर दस्तक दी. तब एकतरफा अमेरिकी सैनिक कार्रवाई को आतंकवाद के खिलाफ कदम नहीं, बल्कि अमेरिकी राज्य पोषित गुंडागर्दी और सरकार समर्थित आतंकवाद का एक बेशर्म नमूना निरूपित किया गया था. फिर यह तथ्य भी तो मौजूद है कि यह वही अमेरिका है जिसने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की सहायता से तब खड़ा किया था जब अफगानिस्तान में सोवियत फौजों ने अनधिकृत कार्रवाई की थी और वहां के नजीबुल्लाह ने कम्युनिस्ट सरकार बनाई थी. और उसी ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान में अमेरिकी इच्छा को पूरा करते हुए अन्य विरोधी शक्तियों के साथ मिलकर सोवियत रूस को पराजित किया था. और दूसरा सच! 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने कसम खाई थी कि पाताल से भी ओसामा को ढूंढकर मौत दी जाएगी. क्या हुआ उस कसम का? कहां है लादेन की लाश? महाशक्ति अमेरिका एक ओसामा बिन लादेन के सामने इतना असहाय कैसे! ओसामा बिन लादेन उसी सऊदी अरब का नागरिक था जिस पर अमेरिका का अखंड वर्चस्व है. वह आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र अमेरिका व पाकिस्तान की मदद से ही चलाता रहा है. ऐसे अमेरिका पर भारत भरोसा नहीं करे. सुरक्षा परिषद के दरवाजे पर दस्तक देने की औपचारिकता पूरी हो चुकी है. अब प्रतीक्षा का क्या औचित्य? बेहतर हो, राष्ट्र की भावना का सम्मान करते हुए, अपने शब्दों पर कायम रहते हुए संसद द्वारा लिए गए संकल्प को पूरा किया जाए. अर्थात् आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को स्थायी सबक सिखा ही दिया जाए.
1 comment:
पाकिस्तान हमें बिना घोषित युद्ध के परेशान कर सकता है तो हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते . युद्ध का विकल्प ही हमें नज़र क्यों आता है बस .
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