आपके स्पष्ट विचार को पढ़कर अच्छा लगा. अपने विचारों को दोटूक शब्दों में निडरतापूर्वक रखने का मैं हमेशा हिमायती रहा हूं. जहां तक शिबू सोरेन को दूसरा गांधी निरूपित करने का सवाल है, मेरे स्तंभ को पुन: पढ़ें, आप पाएंगे कि 70 के दशक में सोवियत संघ और चीन में शिबू के संबंध में जो लिखा गया, मैंने अपने लेख में उसका हवाला दिया है. शिबू के संबंध में स्तंभ में दी गई जानकारियां इतिहास में दर्ज हैं. रही बात वर्तमान 'राजनीतिक शिबू सोरेन' की तो उनके क्रिया कलाप और पतन अलग विषय हैं. शिबू के पतन पर पूर्व में मैं सविस्तार लिख भी चुका हूं. तब रांची में एक पत्रकार के रूप में सक्रिय मैं उनके राजनीतिक पतन का साक्षी भी हूं. शिबू के इस पक्ष पर कोई मतभेद भी नहीं हो सकता, लेकिन यह भी सच है कि आदिवासियों की नजर में शिबू आज भी दिशोम गुरु हैं. आप संथाल क्षेत्र में जाकर इसे महसूस भी कर सकते हैं, जहां आज भी गुरुजी राजनीति के पर्याय हैं. जहां तक बात खलनायकी की है तो गांधी को भी इससे वंचित नहीं रखा गया है। उनकी भी आलोचना क्या कम होती है? चाहे प्रधानमंत्री पद के लिए बहुमत की पसंद सरदार बल्लभ भाई पटेल को किनारे कर गांधी द्वारा जवाहर लाल नेहरू को नामित करने का मामला हो या कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद सुभाषचंद्र बोस को इस्तीफे के लिए विवश करने का मामला, गांधी पर अक्सर उंगलियां उठाई जाती रहीं. आजादी पूर्व कांग्रेस अध्यक्षों के चुनाव में बहुमत की उपेक्षा कर नेहरू की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को तवज्जो देने और लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित कुछ अध्यक्षों को इस्तीफे के लिए विवश करने के कारण गांधी आलोचना के शिकार बने। गांधी की ख्याति और सम्मान की पराकाष्ठा इसलिए भी हो गई, क्योंकि आजादी की लड़ाई उनके नेतृत्व में जीती गई थी. अगर यह लड़ाई वह हार जाते तो आलोचना की हद के बारे में भी सोचा जा सकता है. दुर्भाग्य से शिबू का सामाजिक संघर्ष अंजाम तक नहीं पहुंच सका, लेकिन सीमित दायरे में ही सही, उन्होंने गांधी की तरह प्रयत्न तो किया. मैं उस पंथ का हिमायती हूं कि अगर किसी को बुरे कर्मों के लिए दंडित किया जाए तो अच्छे कर्मों के लिए उसकी उसी हद तक सराहना भी की जाए.
अपने तर्कों से 'आज के शिबू' को हीरो बनाना मेरा मकसद कतई नहीं है, लेकिन इतिहास को झुठलाया भी नहीं जा सकता। मेरी ताजा टिप्पणी झारखंड को लूटने वाले उन तत्वों के खिलाफ है, जिन्होंने मिलकर शिबू को पराजित किया. किसी की पतन गाथा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक इतिहास में दर्ज उसके पाश् र्व की जानकारी नहीं दी जाती.
-एस. एन. विनोद
5 comments:
भावानात्मक लगाव से उबरकर सभी बिंदुओं पर सोचना चाहिए। गांधी हो या शिबू हमें किसी के आभामंडल में नहीं खोना चाहिए। लेकिन उसकी अच्छाईयों और अच्छे कर्मों की प्रशंसा भी करनी चाहिए। साथ ही उसके गलत कार्य का तगड़ा विरोध भी करना चाहिए भले ही वह कितना ही महान क्यों ने हो। आपने महात्मा गांधी को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष चुनने से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक की पसंद थोपन की जो बात कही वह हमारा सच इतिहास है। शिबू सोरेन ने झारखंड के लिए जो किया वह सच है, उनके उस बेहतर योगदान को नहीं भूला जा सकता। लेकिन उन्होंने नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए जो पैसे लिए थे। उनकी पार्टी के सांसदों ने लिए थे वह भी काला अध्याय है। सत्ता से चिपकना भी उनके जैसे व्यक्ति को शोभा नहीं देता। मुख्यमंत्री पद से छूटे तो सीधे दिल्ली जाकर कोयला मंत्री बनेंगे। मनमोहन सरकार के साथ उन्होंने जिस तरह की सौदेबाजी की, वह अच्छी नहीं थी। हालांकि, यह मेरे निजी विचार हैं। सभी की विचार अलग अलग हो सकते हैं। फिर भी एक बात कहना चाहूंगा कि हमें अच्छाईयों को ग्रहण करना चाहिए, बुराईयों को नहीं। जिस तरह अनाज को साफ करने के लिए जिस पात्र को काम में लिया जाता है वह कचरा छानने पर फेंक देता है और अनाज को अपने में रख लेता है वह जीवन होना चाहिए।
यह बात मुद्दे से हटने जैसी होगी, मगर मुझे जो कहना था, कमलजी ने लगभग दिया है. बाकी बचा यह रहा...
जो कहता है आज़ादी गाँधीजी ने दिलवाई, वह गलत कह रहा है. यह एक बहुत बड़े सत्य का एक हिस्सा मात्र है. सम्पूर्ण सत्य नहीं.
फिर उनका क्या, जो फाँसी पर झूल गए, काला-पानी की सजा पाई.
द्वितीय विश्व युद्ध न हुआ होता तो आज़ादी दूर थी. इस लिहाज से हिटलर का भी योगदान था.
वाह संजय भाई बहुत साफ कही अपनी बात और सच भी। महात्मा गांधी आजादी दिलाने वाले एक मात्र व्यक्ति नहीं थे। हमें हजारों लोगों के योगदान को नहीं भूलना चाहिए। एक आम आदमी जिसके बारे में हम कतई नहीं जानते लेकिन वह उस समय अंग्रेजों के हाथों मारा गया हो, उस अनाम का भी योगदान है।
शब्दजाल के जरिए खलनायकों को नायक में नहीं बदला जा सकता...सोवियत संघ और चीन के जिस सर्टिफिकेट का आप हवाला दे रहे हैं...उनका आज की इस दुनिया में कोई मोल नहीं। गुरु जी की जिस गौरव गाथा का आप बखान कर रहे हैं...उसके सियासी मतलब तो हो सकते हैं...वोट बैंक के लिहाज से अहमियत भी सामने आती है...लेकिन उन लाखों आदिवासियों की जिंदगी के बारे में भी सोचिए...जिन्हें अब भी सभ्य दुनिया के तौर तरीके नहीं मालूम...झारखंड आज लूट का अड्डा बन गया है तो इसका जनक कौन है...जंगल कट रहे हैं...खनिज संपदा लूटी जा रही है....कोयले की खानें भ्रष्टाचार की खदान बन गई हैं...झारखंड के तमाम बड़े शहर कितने महफूज हैं...ये बताने के लिए मुझे अपराध के सालाना आंकड़े देने की जरूरत नहीं...
-क्या शिबू सोरेन की तुलना महज इसलिए गांधी से की जानी चाहिए क्योंकि उनके चरण लाखों आदिवासी महिलाएं धो-धोकर पीती हैं!!!
-क्या शिबू सिर्फ इसलिए महान हैं क्योंकि उन्हें किसी जमाने में सोवियत संघ या चीन से कोई सर्टिफिकेट मिला था!!!
-अलग राज्य बनकर झारखंड का कितना भला हुआ..ये तो शोध का विषय है...लेकिन नेताओं का कितना भला हुआ ये हम सबके सामने है...
रहा सवाल गांधी का...गांधी को मैं उतना ही जानता हूं जितना रिचर्ड एटनबरो की फिल्म से जाना...इधर-उधर पढ़कर जाना...उनकी आत्मकथा पढ़ने की कोशिश कई बार की...लेकिन कभी पूरी नहीं पढ़ पाया...इसलिए उनकी आभा से चमत्कृत होना या दूसरों को चमत्कृत करना मेरा ना तो मकसद है ना ही मुझमें कूव्वत है...
मैंने तो सिर्फ वर्तमान के आईने में इतिहास को रखकर देखने की कोशिश की थी..जिसमें मुझे पहली नजर में जो सही लगा वैसी प्रतिक्रिया लिख दी...
हो सकता है गांधी ने नेहरू को हद से ज्यादा प्रोमोट किया हो...
ये भी संभव है कि उन्होंने भगत सिंह औऱ चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के योगदान को उस हद तक नहीं माना जिस हद तक माना जाना चाहिए था...
लेकिन क्या इसका मतलब ये है कि कल होकर मैं भी कहीं भावना में बहकर शहाबुद्दीन की तुलना गांधी से कर दूं...
सवाल सिर्फ गांधी को आभा प्रदान करने का नहीं है...सवाल उन तर्कों का है जिनके जरिए आप पता नहीं सोरेन को क्या साबित करना चाहते हैं...
हां ये सच है कि सोरेन के एक इशारे पर किसी जमाने में आदिवासियों की भीड़ मरने-मारने के लिए उतारू हो जाती थी...झारखंड में सोरेन इकलौते नेता थे जो वाकई आदिवासियों के बीच भगवान की तरह पूजे जाते थे...
हो सकता है उनकी हार में आरजेडी से लेकर कांग्रेस और यहां तक कि नक्सलियों की साजिशें भी जिम्मेदार हों...
लेकिन क्या हम सिर्फ सोरेन को इसलिए महान बना दें..
सोरेन को सिर्फ इसीलिए महान बना दें क्योंकि किसी जमाने में आदिवासी मांएं सोरेन सरीखा पुत्र चाहती थीं....
भावनात्मक लगाव से उबर कर गांधी के आकलन की बात यदि उठती है तो सोरेन पर भी यही फार्मूला क्यों नहीं लागू होना चाहिए....
गांधी की जिंदगी सत्य के साथ प्रयोग की तरह थी...जैसा सोचते थे वैसा करते थे...कथनी करनी में शायद ही कभी कोई फर्क किया हो...चरखा कातते थे...बकरी का दूध पीने की हिमायत करते थे...घाव ठीक करने के लिए मिट्टी का लेप लगाने की सलाह भी देते थे...उनकी कहीं बातें...हो सकता हैं हमारे आपके पैमाने पर फिट नहीं बैठती हों...
उनकी प्रासंगिकता पर हमेशा बहस होती भी रहती है
-लेकिन देश को लेकर उनके योगदान को भुलाने की हिमाकत क्या हममें सो कोई भी कर सकता है!!
शिबू के पतन पर आपने पूर्व में क्या लिखा नहीं पता..आपने वर्तमान में जो लिखा है मेरी प्रतिक्रिया सिर्फ उसी पर है...
रहा सवाल आदिवासियों की नज़र में दिशोम गुरु की हैसियत का तो इसकी कलई भी खुल चुकी है...अगर वाकई सोरेन का उसी तरह का पुराना हीरो स्टैटस बरकरार रखे होते तो उनकी इस तरह हार नहीं होती....
खैर चुनाव है तो हार-जीत होती रहती है--इसे किसी के व्यक्तित्व-कृतित्व के मूल्यांकन का पैमाना नहीं बनाया जा सकता---
गांधी की जिस खलनायकी का आपने जिक्र किया है...उसपर यही कह सकता हूं कि फैसलों की समीक्षा इतिहास करता है...गांधी के फैसले कितने सही थे कितने गलत थे- ये फैसला भी पचास सौ सालों में नहीं हो सकता...क्योंकि हो सकता है पचास-सौ साल हमारे-आपके लिए बड़ी अवधि हों पर इतिहास में इनकी हैसियत एक कौमा से ज्यादा की नहीं होती...
सादर
मिहिर भाई से सहमत,
जहाँ तक लेखनी की बात, गुरु जी हों या नरेन्द्र मोहन. पत्रकारिता और राजनीति का हमेशा से तिडेसठ का आंकडा रहा है, जहाँ राजनेता छपास से पीडित रहे वहीँ पत्रकारिता सत्ता के गलियारे में घुमती नजर आयी, गांधी जी, गुरु जी, सोवियत चीन और इस तरह की तमाम चर्चा पर अपनी बात कह कर पत्रकारिता बोधिकता का आइना नही हो सकता. कम से कम बिहार के संदर्ब में बिल्कुल नही.
हाँ मैं ये बिहार इस लिए कह रहा हूँ की विनोद जी बिहार के पत्रकार हुआ करते थे झारखंड के नही.
स्थिति सामने है, और राजनेता के साथ साथ पत्रकारों की कवायद भी.
ये गुरु जी के पराजय से ज्यादा सोचनीय और चिंतनीय है.
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