Friday, January 9, 2009
... और हार गया भारत का 'दूसरा गांधी'!
चौंकिए नहीं, झारखंड विधानसभा के लिए उपचुनाव में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की हार नहीं हुई है. हारा है भारत का 'दूसरा गांधी'! हारा है झारखंड के लाखों आदिवासियों का गुरु! हारा है झारखंड का शेर! हारा है झारखंड का जनक! और हारा है लाखों आदिवासी महिलाओं का वह आराध्य, जिसके पैर धो, चरणामृत पान कर वे महिलाएं प्रार्थना करती थीं कि ईश्वर उन्हें, शिबू सदृश-पुत्र दें! कैसे हो गया यह? क्या शिबू पर से उनके अनुयायियों का विश्वास खत्म हो गया? क्या शिबू अब आदिवासियों के नेता नहीं रहे? आदिवासी महिलाओं के आराध्य नहीं रहे? क्या सचमुच झारखंड को अब उनकी जरूरत नहीं रही- उनकी लोकप्रियता खत्म हो गयी?
ये सारे प्रश्न शिबू सोरेन की चुनाव में पराजय के बाद उठ खड़े हुए. मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव लड़ पराजित होने की यह देश की दूसरी घटना है. इसके पूर्व उत्तरप्रदेश के एक मुख्यमंत्री टी.एन. सिंह चुनाव हार चुके हैं. लेकिन इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती. शिबू को बहुत नजदीक से देखने के कारण मैं स्तंभित तो हूं, किन्तु चकित नहीं. जानकारी के लिए बता दूं कि ये वही शिबू सोरेन हैं, जिनके लिए 70 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में लिखा गया था कि ''शिबू सोरेन भारत के दूसरे गांधी हैं.'' आदिवासियों पर जुल्म के खिलाफ सफल संघर्ष करने वाले शिबू सोरेन ने तत्कालीन छोटा नागपुर संथाल परगना (झारखंड) के अपने इलाके में सूदखोर महाजनों और शराब के व्यापारियों पर कहर बरपाया था. तभी वे 'गुरुजी' बने थे. पृथक झारखंड राज्य के लिए मृतप्राय आंदोलन में शिबू ने ही जान फूंकी थी. वैसे झारखंड में अनेक प्रभावशाली नेता हुए, किन्तु झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई शिबू ने ही लड़ी. लाखों अनुयायी इनकी एक पुकार पर मर-मिटने को तैयार रहते थे. फिर वह शिबू मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद उपचुनाव कैसे हार गया? मुझे यह चिह्नित करने में तनिक भी संकोच नहीं कि पराजय गुरु शिबू सोरेन की नहीं, बल्कि 'मुख्यमंत्री शिबू सोरेन' की हुई है. हां, सच यही है. सरल-हृदयी शिबू कुटिल राजनीति के शिकार हुए हैं. सभी पर विश्वास करने वाले शिबू यह नहीं समझ पाए कि झारखंड की अकूत वन्य एवं खनिज संपदा पर गिद्ध-दृष्टि जमाए ठेकेदार व सत्ता के दलाल सत्ता-सिंहासन पर उन्हें बैठे देखना नहीं चाहते. इनके षडय़ंत्र के शिकार शिबू तब भी हुए थे, जब इनके खिलाफ कथित आपराधिक मामलों को कुरेद-कुरेद कर निकाला गया था. इन्हें न तो केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद और न ही मुख्यमंत्री बनने के बाद एक पल के लिए भी चैन से रहने दिया गया.
हां, झारखंड की संपदा को लूटने वाले तत्व एकजुट हो गए. सच तो सामने आएगा ही, मैं अभी बता दूं कि शिबू सोरेन को हराने में इनके पुराने चेलों के अलावा मुख्य भूमिका सरकार समर्थक कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने निभाई है. केन्द्र में संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास मत के दौरान एक सौदेबाजी के अंतर्गत शिबू को झारखंड का मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था. लेकिन जानकार पुष्टि करेंगे कि न केवल राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, बल्कि कांग्रेस के स्थानीय नेता भी शिबू के खिलाफ थे. शिबू सोरेन को तब इनका समर्थन अस्थायी 'युद्ध-विराम' था. चुनावी युद्ध में कसम तोड़ते हुए इन लोगों ने अपने मन की पूरी कर ली. लेकिन मैं दोहरा दूं कि पराजय शिबू सोरेन की नहीं, बल्कि 'लोक-लाज' की हुई है. जीत हुई है राजनीति को 'बाजार' बनाने वाले फरेबियों की, मक्कारों की और दलालों की! प्रथम गांधी की हत्या के बाद द्वितीय गांधी की पराजय पर रुदन तो होगा ही! और हां, रुदन करेंगे वे नक्सली भी जिनसे राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ जाने का आह्वान शिबू ने किया था
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11 comments:
हो सकता है आज के दौर में गांधी लफ्ज के खास मायने नहीं रह गए हों...ये भी मुमकिन है कि गांधी अब बहसों , छब्बीस जनवरियों और पंद्रह अगस्तों तक ही सिमट कर रह गए हों..ये भी मुमकिन है कि मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म के बहाने ही सही एक बार फिर गांधी का क्रेज लौटा हो....ये भी संभव है कि गांधी की नीतियों में एक बड़ी आबादी यकीन नहीं करती...आजादी के आंदोलन में भी गांधी से ज्यादा नेताजी औऱ चंद्रशेखर आजाद का योगदान था---ऐसा कहने वालों की भी कमी नहीं...लेकिन मेरी अपनी निजी राय है...कि इन तमाम विरोधाभासों के बीच भी गांधी शब्द में एक जादू है...जिसका असर वक्त बीतने के बाद भी बरकरार है...गुस्ताखी माफ की अर्जी देते हुए बस इतना कहना चाहूंगा कि आप किसकी तुलना किससे कर रहे हैं...
दिशम गुरु से गांधी जी की कोई तुलना हो सकती है...ये सोचकर भी मैं हैरान हूं..आप बेहद वरिष्ठ पत्रकार हैं...मालूम है...प्रभात खबर के नाते रांची औऱ झारखंड की धड़कनों को भी आप दिल से महसूस कर सकते हैं ये भी पता है...लेकिन मेरा अपना नजरिया है औऱ कृपया इसको अन्यथा नहीं लीजिएगा---गांधी कभी हार नहीं मानता...जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से हार नहीं मानी...वो भला टुच्ची सियासत में क्या हार मानेगा...लिहाजा सोरेन को सोरेन रहनें दे गांधी नहीं बनाएं...गांधी एक आंदोलन का नाम था-किसी व्यक्ति का नहीं...गांधी इतिहास में सिर्फ एक ही हुआ था...आगे दूसरा होगा कि नहीं कोई दावे से नहीं कह सकता....
आग्रह सिर्फ यही है कि गांधी को बख्श दीजिए...क्योंकि इससे बेहतर वो किताबों के पन्नों में ही सुरक्षित हैं जिन्हें अब भले ही कोई नहीं पढ़ता...जिन पर भले ही वक्त की गर्द जम गई हो...लेकिन कम से कम गांधी की गरिमा तो कम नहीं होती....
आदर के साथ
एक बात और अर्ज करना चाहूंगा--
गांधी ने हमेशा सत्ता का त्याग किया...लेकिन सोरेन का कुर्सी से जो लगाव है वो जगजाहिर है!
आप का नाम विनोद है सो हम ये माने लेते हैं कि आपने शिबू सोरेन को गांधी बता कर शायद कोई व्यंग्य विनोद ही किया होगा
वरना गांधी जी की शिबू सोरेन से तुलना करना उन्हें गाली देने के समान है.
वैसे पत्रकारों का क्या भरोसा, कल को शहाबुद्दीन और डीपी यादवों को भी गांधी बता डालें.
चलो जी पता तो चला कि गाँधी कैसे होते है?
विनोद जी,
आपकी पत्रकारिता संदेह के घेरे में आ चुकी है,
गुरु जी बनाम गांधी जी,
त्याग बनाम हत्यारा,
आपके लेख पर सिर्फ़ इतना कहना की कहीं ना कहीं गुरु जी के साथ आपकी सक्रियता और भागीदारी की बू आती है. पत्रकारिता को लांक्षित और कलंकित ना करें.
अगर गांधी जी ऐसे थे तो हम गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने से इनकार कर देंगे, मगर नही क्यौंकी हमें पता है हमारा राष्ट्रपिता त्याग और बलिदान की प्रतिमुर्ती कैसा था.
वस्तुतः सिबू सोरेन की हार लोकतंत्र की जीत है.
टिप्पणी करने वाले सभी ध्यान से पढ़ें इस पोस्ट को विनोद जी ने शिबू सोरेन को गांधी नहीं कहा है। उनकी पोस्ट से यह लाइन उठाकर जस की तस दे रहा हूं जिसे बेहद ध्यान से पढि़ए...जानकारी के लिए बता दूं कि ये वही शिबू सोरेन हैं, जिनके लिए 70 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में लिखा गया था कि ''शिबू सोरेन भारत के दूसरे गांधी हैं.'' शिबू को यह तमगा तत्कालीन सोवियत संघ और चीन ने दिया, विनोद जी नहीं। विनोद जी की आलोचना से पहले यह तो पढ़ लो कि गांधी किसने कहा शिबू को।
कमल जी आप की तरह मैं भी पोस्ट से जस का तस् दे रहा हूँ, आप किसी को ये आरोपित नही कर सकते की हमने बिना पढ़े टिपिया दिया, कब से कम ब्लॉग पर अभी तक ऎसी परम्परा की शुरुआत नही हुई है जो अमूमन अखबारों में होता है कि शीर्षक और ख़बर का कोई सामंजस्य नही.
"उपचुनाव में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की हार नहीं हुई है. हारा है भारत का 'दूसरा गांधी'! हारा है झारखंड के लाखों आदिवासियों का गुरु! हारा है झारखंड का शेर! हारा है झारखंड का जनक! और हारा है लाखों आदिवासी महिलाओं का वह आराध्य...."
नि:संदेह गुरु जी कि गाथा कहने कि कोशिश कि गयी है तत्कालीन सम्पादक के द्वारा जब गुरु जी का जय जय कार हुआ करता था, शायद ये लेख भी उसी जय जय कार का हिस्सा मात्र लगता है, जमीनी हकीकत तो सिर्फ़ ये कि गुरु जी कि हार यानी की लोक तंत्र की जीत.
...और हार गया 'दूसरा गाँधी' ! शीर्षक पड़ते ही लगा की आप गाँधी नाम की आड़ लेकर अपने व्यंग बाणों से कोई सशक्त वक्तव्य देना चाहते हैं.... ! "कहीं पे निगाहें -कहीं पे निशाना " जैसा कुछ! लेकिन पड़ते पड़ते , पूरा लेख ख़त्म हो गया और कुछ ऐसा हाथ नही लगा कि जिसकी आस थी। आप वरिष्ट पत्रकार हैं अत: आपको अपने लिखे का महत्व अधिक समझ में आया होगा....! बाकी मेरे विचार तो मिहिर भाई से ही मेल खाते हैं, अत: मैं बहुत कुछ कहना चाह कर भी कुछ कह ना पाऊंगा ! वस्तुत: विचार अपने अपने , समझ अपनी अपनी !
" प्रथम गांधी की हत्या के बाद द्वितीय गांधी की पराजय पर रुदन तो होगा ही!" ....यह वाक्य मन को बहुत श्लील नही लगा ! यह आपके तथा-कथित दूसरे गाँधी कितने सरल-हृदयी हैं और कितने कुर्सी प्रेमी और कुटिल - यह तो अभी हाल में सभी ने देखा ही है ! आपकी 'गुरु-भक्ती' इसे नज़र अंदाज़ कर गयी हो तो कुछ कहा नही जा सकता !
बहरहाल, मुझे अन्यथा ना ले...यहाँ बात केवल मतान्तर की है !
शुभकामनायें !
माफ करें मगर इस तरह तो पत्रकारिता इंस्टीट्यूट से निकला कोई स्टूडेंट
भी नहीं लिखेगा। अब समझ में आया अखबारों का स्तर दिन-ब-दिन गिरता क्यों जा रहा है।
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