कौन कहता है कि विश्वास से देश नहीं चलता? यह विश्वास ही है जो समाज-देश को एकता के सूत्र में बांधे रखता है। भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश अगर आज एकजुट है, विकास व सफलता के मार्ग पर कदमताल कर रहा है, विश्वगुरु बनने की पात्रता अर्जित कर रहा है तो इसी परस्पर विश्वास के कारण। छद्म धर्म निरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदायिक और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव, लगता है मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। रामजन्मभूमि विवाद पर जहां पूरा देश इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार कर रहा है, वहीं इस विशुद्ध धार्मिक मसले को राजनीतिक स्वरूप देनेवाले मुलायम यादव व अन्य विघ्न संतोषी हताश हैं, बेचैन हैं। चालू भाषा में कहा जाय तो ऐसे तत्वों को अपनी दुकानदारी बंद होने का खतरा नजर आने लगा है। अपनी सुविधानुसार इस विवाद को मुद्दा बनाकर राजनीति करनेवाले बेचैन तो होंगे ही। मुद्दा जो इनके हाथों से फिसलता नजर आने लगा है। हालंाकि मुद्दे के मामले में बेचैन तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को अधिक होना चाहिए। लेकिन इन दोनों दलों ने देश के अभिभावक दल की भूमिका निभाते हुए अदालती फैसले को स्वीकार कर परिपक्वता का परिचय दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अदालती फैसले का स्वागत कर संस्कृतिनिष्ठ अपने चरित्र को चिन्हित कर समाज-देश को सकारात्मक संदेश दिया है। धर्म के नाम पर कट्टरवादी, हिंदु हृदय सम्राट के रूप में परिचित शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भी अदालती आदेश को सर-अंाखों पर लिया है। भारत भूमि पर पाकिस्तानी खिलाडिय़ों - कलाकारों को नहीं देख सकने वाले बाल ठाकरे ने अयोध्या की विवादित भूमि का एक अंश मुसलमानों को दिए जाने के आदेश पर संतोष व्यक्त कर वस्तुत: हिंदु संस्कृति का आदर ही किया है। सभी ने सर्वधर्म सम्भाव और एक ईश्वर को स्वीकार कर एक ऐसा उदाहरण पेश किया है, जो एक हिंदुस्तान, मजबूत हिंदुस्तान के स्वप्न को साकार करता है। ऐसे में परस्पर विश्वास और आस्था के सिद्धांत को नकारने वाले मुलायम सिंह यादव एवं अन्य देशहित चिंतक तो कदापि नहीं हो सकते।
अब कोई विघ्न पैदा न करे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश की व्यापक स्वीकृति से उत्पन्न संदेश स्पष्ट है। बहुधर्मी, बहुभाषी हिंदुस्तान एक है, एक है। सुन्नी वक्फ बोर्ड का असंतोष अगर उनकी नासमझी का परिणाम तो राममंदिर निर्माण के लिए गठित संतों की उच्चाधिकार समिति का असंतोष भी संदिग्ध है। किसी भी कीमत पर रामजन्मभूमि के विभाजन व परिसर में किसी अन्य मजहब के पूजा स्थल को स्वीकार नहीं करने की उनकी घोषणा देश को मान्य नहीं। उच्चाधिकार समिति द्वारा आहूत शुक्रवार के भारत-बंद का हश्र प्रमाण है कि देश उनके साथ नहीं। बंद के समर्थन में कोई भी सामने नहीं आया। राजजन्म भूमि पर राममंदिर निर्माण को राष्ट्रीय स्वाभिमान बताने वाली संतों की उच्चाधिकार समिति इस तथ्य को न भूले कि अदालत का आदेश रामजन्म भूमि पर पूजा-अर्चना और मंदिर निर्माण के पक्ष में है। अदालत ने रामलला के गर्भ गृह पर हिंदुओं के अधिकार को स्वीकार किया है। अब समिति अगर जमीन के एक टुकड़े को मुसलमानों को दिए जाने पर आपत्ति प्रकट करती है, तो यह अनुचित होगा। फैसले के बाद अगर कोई अब मंदिर-मस्जिद के बीच टकराव की बात करता है तो निश्चय ही वह देश को अमान्य होगा। दु:खद रूप से निर्माेही अखाड़ा भी अब फैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट की दरवाजा खटखटाने की बात करने लगा है। अगर इन सब नई मांग के पीछे किसी वर्ग द्वारा पकाई जा रही राजनीति की खिचड़ी है, तो उसे उठा गंदे पनाले में फेंक दिया जाना चाहिए। संतों की उच्चाधिकार समिति, निर्माही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों देश की समझ को चुनौती देने की बेवकूफी न करें।
1 comment:
वाकई में ये ऐसे ही लोग हैं...
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