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Friday, January 1, 2010

सन 2009 का पत्रकारीय कलंक!

पहले एक औपचारिकता - नव वर्ष की बधाईयां, शुभकामनाएं! और अब सीधे चलें नव वर्ष में पत्रकारीय अपेक्षाओं पर बीते वर्ष की पत्रकारीय कालिमा पर।
मीडिया के सबसे बड़े लोकप्रिय न्यूज पोर्टल भड़ास फॉर मीडिया ने 'खबरों के बिकाऊ हो जाने को' वर्ष का सबसे बड़ा स्कैंडल बताया है। वहीं आज से शुरु हो रहे सन् 2010 में संपादकों से प्रण लेने का अनुरोध किया है कि वे खबरों और सिर्फ खबरों के प्रति निष्ठावान रहें।
कालिमा और फिर उज्ज्वलता? कौन उठाएगा इस दिशा में कदम? अब तो संपादक नाम की संस्था लगभग समाप्त हो गई है। उसमें हाथ-पांव मार रहे अपवाद स्वरूप जो बचें हैं, वे इतने निरीह हो गए हैं कि उनसे किसी क्रांति की अपेक्षा करना बेकार है। वे बेचारे यदा-कदा लिख - बोलकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। उनके 'सरमन' का कोई खरीदार कभी सामने नहीं आता। कारण बताने की जरूरत नहीं है।
मीडिया संचालकों ने जब खबरों को बेचना शुरु कर दिया, तभी उन्होंने संपादकों को उनकी औकात बता दी थी। संचालकों ने यह सब योजनाबद्ध तरीके से किया। संपादकों के सामने कुछ टुकड़े फेंक, दुलारकर पुचकारकर, उधार लिए अलंकृत शब्दों से उन्हें महिमामंडित कर, कभी मंच पर, कभी प्रथम पंक्ति में बैठाकर, सुविधा भोगी बनाकर उन्हें अपाहिज बना डाला गया। कुंए की मेढ़क की दशा में उन्हें पहुंचा दिया गया। बेचारे पानी के अंदर टर्र-टर्र करने को मजबूर कर दिए गए। कुएं से बाहर निकलने की इजाजत नहीं। सन् 2009 में संपन्न लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में विज्ञापन की तरह खबरें छपवाने के लिए खुलकर पैसे लिए गए। अखबार संचालकों की इस योजना में संपादक और संस्थान के पत्रकार शामिल थे। संस्थान में काम करने वाले पत्रकारों को मुख्यालय से लेकर जिला स्तर तक - 'कोटा' निर्धारित कर दिया गया था। पत्रकारों के लिए कमीशन भी तय किए गए। बड़ी ईमानदारी से संपादकों, पत्रकारों ने संचालकों की योजना को अंजाम दिया। चूंकि शब्दकोश में अपवाद शब्द अभी भी मौजूद है, बिरादरी में कुछ 'अपवाद' सामने तो आए किन्तु निहत्थे। उन्हें साथ देने वालों की संख्या नगण्य। नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गए वे। बेअसर साबित हुई उनकी आवाज। ऐसे में कोई प्रण, कोई संकल्प! जाहिर है ये सभी भी अंततोगत्वा बेअसर ही साबित होंगे। इस संबंध में एक बार मैंने आगे के खतरों के प्रति आशंका प्रकट की थी। उसकी शुरुआत भी हो चुकी है। पीडि़त बता रहे हैं कि अब संचालक-संपादक-पत्रकार अन्य खबरों के लिए भी धन की मांग करने लगे हैं। अखबारों में खबरों के लिए निर्धारित स्थान बेचे जाने लगे हैं। इस रोक का प्रसार अभी सभी जगह नहीं हुआ है। इसे खैरियत न मानिए, तत्काल अंकुश लगाने के उपाय करें। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा जब प्रथम पृष्ठ की प्रथम अर्थात मुख्य खबर भी प्रायोजित होगी। खबर का स्रोत धन होगा। कल की यह तस्वीर भयावह है। पाठक - समाज - देश के साथ ऐसे छल पर रोक के लिए कोई तो पहल करें। निश्चय मानिए, अगर एक भी कदम आगे बढ़ेगा तब अनुकरण करने वाले पग कम नहीं रहेंगे। हां, यह शर्त अवश्य कि पहला कदम ईमानदार हो।
कभी प्रसिद्ध पत्रकार एडविन लाहये ने डंके की चोट पर कहा था कि, 'मैं किसी देश का राष्ट्रपति बनना पसंद नहीं करूंगा। मैं धन का नहीं, शब्दों का कोष तलाशता हं।' तब कहा गया था कि एडविन के इस कथन में प्रत्येक पत्रकार की आत्मा का वास है। पत्रकार आत्मचिंतन करें एडविन के कथन से उभरे विश्वास पर। क्या यह सच नहीं कि आज शब्दों का कोष तलाशने वालों को मूर्ख व अव्यवहारिक घोषित कर दिया जाता है? धन के कोष को तैयार कर निरंतर उसमें वृद्धि के लिए दिन-रात प्रयत्नशील आज का पत्रकार भला तब कलम के साथ ईमानदारी कैसे करें? अपवाद की श्रेणी में शेष पत्रकार उस बड़े वर्ग का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। ये फिर संचालकों के खिलाफ विद्रोह कैसे कर पाएंगे? ये खबरें लिखेंगे, खबरें दिखाएंगे अवश्य, लेकिन संचालकों के इच्छानुरूप। पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत, आदर्श का परित्याग कर।
बावजूद वर्तमान के इस कड़वे सच के मैं आशा त्यागने को तैयार नहीं। मुझे विश्वास है कि पत्रकारों की वर्तमान युवा पीढ़ी की पंक्ति से विरोध-विद्रोह के स्वर एक न एक दिन अवश्य उठेंगे- पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ। तब यह वर्ग सेना, सैनिक और सेनापति की भूमिका निभाएगा। सन् 2010 का संकल्प इस विश्वास से ओत-प्रोत हो यही कामना है।

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