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Monday, January 25, 2010

शाबास, रावसाहब रामराव पाटिल!

शाबास रावसाहब रामराव पाटिल। अभिनंदन राज्य के गृह मंत्री का। साधुवाद राज्य के इस पहले मंत्री का जिन्होंने हथेली पर अपने प्राण रख माओवादियों से निपटने का नहीं बल्कि उन्हें राज्य की मुख्य धारा से जोडऩे का बीड़ा उठाया है। सत्ता सिंहासन से जुड़े ऐसे महाराष्ट्र राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल उर्फ आबा का शत्-शत् अभिवादन। निश्चय ही सत्ता की ओर से ऐसी पहल के सकारात्मक परिणाम निकलेंगे और भविष्य के लिए अनुकरणीय बनेगा। यह दोहराने की जरूरत तो नहीं है कि आरआर पाटिल माओवाद अथवा नक्सलवाद प्रभावित गड़चिरोली जिले का पालक मंत्री बने तो अपनी इच्छा से। जब उन्होंने ऐसी इच्छा व्यक्त की थी, तभी यह संकेत मिल गया था कि पाटिल पूरी गंभीरता से इस समस्या के समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं। आतंक के पर्याय के रूप में कुख्यात माओवादियों ने गड़चिरोली में 25, 26 व 27 जनवरी को बंद का एलान कर रखा है। पाटिल 25 व 26 जनवरी को गड़चिरोली दौरे पर रहेंगे। यही नहीं माओवादियों की धमकी की परवाह किए बगैर पाटिल गणतंत्र दिवस के अवसर पर 26 जनवरी को ध्वजारोहण भी करेंगे। निश्चय ही स्थानीय प्रशासन को पाटिल की इस पहल से शक्ति मिलेगी। प्रोत्साहन मिलेगा उन्हें। मनोबल बढ़ेगा उनका। कायरों की तरह माओवादियों के सामने आत्मसमर्पण से इतर उनके हृदय परिवर्तन के लिए प्रयास की जरूरत है। बंदूक समस्या का समाधान कतई नहीं हो सकता। माओवादी अथवा नक्सलवादी हमारे समाज के ही एक अंग हैं। परिस्थितियों से मजबूर उन्होंने हथियार उठाए हैं तो इसके कारणों को समाप्त करना होगा। गोलियों से उनका अंत नहीं किया जा सकता। एक का अंत रक्तबीज में परिवर्तित हो जाएगा। साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी ग्राम में कनु सान्याल, चारू मजुमदार और जंगल संथाल ने हथियारबंद नक्सलवाद का बीज बोया था तो वर्ग विशेष की सामाजिक उपेक्षा के कारण। वर्ग संघर्ष और वर्ग शत्रु को उन लोगों ने रेखांकित किया था। मजुमदार और संथाल तो अब नहीं रहे। कनु सान्याल अवश्य उत्तरी बंगाल के सिलीगुड़ी के पास एक गांव में अतीत और वर्तमान की तुलना करते मिल जाएंगे। अतीत में प्रबल नक्सलवाद के एक प्रणेता सान्याल आज अगर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि लोकतांत्रिक पद्धति से ही अधिकार हासिल किए जा सकते हैं हथियारों के बल पर नहीं, तब इस सूत्र को पकड़ लिया जाना चाहिए। भ्रमित माओवादियों को सान्याल की बातों के गूढ़ार्थ को बताना जरूरी है। आरआर पाटिल जब उनके बीच जाकर समस्या का निदान ढूंढना चाहते हैं तब उन्हें इस ऐतिहासिक सच को भी जानना चाहिए कि जब माक्र्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बैनरतले आंदोलन अपनी चरम पर था, तब चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति माओत्से तुंग ने आंदोलन की आलोचना की थी और भारत के आंदोलन प्रणेताओं को चीन बुलाकर हिंसक आंदोलन के लिए मना किया था। पाटिल एक सघन अभियान छेड़ें भ्रमित माओवादियों को इस बिंदु पर शिक्षित करने के लिए। उन्हें यह बताया जाए कि हमारा एक ऐसा राष्ट्र है जिसका संचालन लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकारें ही किया करती हैं। राष्ट्र किसी की बपौती नहीं। जनता ही अपने शासकों को निर्वाचित करती है। ऐसे में सरकार किसी के लिए अछूत कैसे हो सकती है? माओवादी अथवा नक्सलवादी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग बनें। स्वयं को अलग-थलग रखने की बजाय राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ जाएं। गड़चिरोली एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता है। चूंकि पहल आरआर पाटिल ने की है, अपेक्षा है कि वे इस मुद्दे की सचाई के आलोक में व्यवहार के स्तर पर आगे बढ़ते हुए समाज के इस भ्रमित वर्ग को राष्ट्रीय मुख्यधारा में वापस ले आएंगे।

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