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Thursday, January 7, 2010

ऐसा नहीं होना चाहिए था!

नागपुर शहर में प्रबुद्ध कलाकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों, कवि, लेखकों के दर्द के साथ मैं उनकी पंक्ति में खड़ा हूं। नागपुर की अनुकरणीय संस्कृति के साथ खिलवाड़ करते हुए कतिपय स्थानीय प्रशासकीय अधिकारियों ने संस्कृति के गालों पर तमाचा मारा है। शहर के 'वात्सल्य' को लहूलुहान कर दिया है। वह भी किसलिए? सिर्फ अपने अहम् की संतुष्टि के लिए! जी हां, सच यही है। स्थानीय कस्तूरचंद पार्क में आयोजित राष्ट्रीय पुस्तक मेले को कानूनन अवैद्य करार देने वाले अधिकारी अपनी गिरेबां में झांके। उनका स्वच्छ मन उनके आदेश को खारिज करता मिलेगा। क्योंकि यह जो मन है वह बाहरी प्रदूषण से मुक्त पाक-साफ होता है - झूठ नहीं बोलता। केन्द्र में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा चुके शहर के एक जिम्मेदार नागरिक के अनुसार, पूरा का पूरा मामला व्यक्तिगत अहम् एवं खुन्नस का है। एक प्रशासनिक अधिकारी का अहं और एक अन्य दूसरे की अपने वरिष्ठ के प्रति निष्ठा के कारण सत्तर के दशक के आपातकाल के दौरान बुलडोजर संस्कृति को पुनर्मंचित करने की कोशिश की गई। यह बिल्कुल सही है कि जिलाधिकारी ने विगत 30 दिसंबर को राष्ट्रीय पुस्तक मेले के आयोजन को अनुमति देने से मना कर दिया था। कानूनी भाषा में आयोजन की अनुमति नहीं दी गई थी लेकिन क्यों? आयोजक ने छह माह पूर्व औपचारिक आवेदन देकर मेले की अनुमति मांगी थी। यह दोहराना ही होगा कि पिछले 9 वर्षों से राष्ट्रीय पुस्तक मेला समिति प्रतिवर्ष नागपुर में ऐसा आयोजन करती आयी है। बल्कि नागपुर के त्रिशताब्दी समारोह के दौरान तत्कालीन जिलाधिकारी मनु कुमार श्रीवास्तव ने मेले को सादर नागपुर में आमंत्रित किया था। तब से निर्विघ्न समिति यहां पुस्तक मेले का आयोजन करती आई है। इस वर्ष भी आयोजन संबंधी पूरी व्यवस्था समिति ने कर ली। इस बीच कुछ स्थानीय प्रकाशकों ने षडयंत्र रचा और उन्होंने नागपुर महानगर पालिका को अपने झांसे में ले लिया। मनपा ने भी बगैर सोचे-समझे इन प्रकाशकों का आर्थिक हित साधने के लिए उनके साथ अलग से पुस्तक मेला आयोजित कर डाला। पुस्तक मेला एक-दो नहीं दस लगें, किसी को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन स्थानीय अधिकारियों ने प्रथम आयोजक की गर्दन पर छुरी चला दी। कानून का सहारा लिया गया लेकिन यह सभी समझ चुके हैं कि संबंधित अधिकारी ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए अग्रिशमन विभाग को ना-हरकत प्रमाण-पत्र देने से मना कर दिया। मामला किसी आयोजक विशेष को ही प्रताडि़त करने का नहीं है, पूरे देश से आए 150 से अधिक पुस्तक प्रकाशकों, वितरकों को प्रताडि़त करने का है। नागपुर शहर की मान-मर्यादा सम्मान को इन अधिकारियों ने अपने व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि के लिए धूल-धूसरित कर दिया। कानून की दृष्टि से शायद यह अपराध नहीं हो किन्तु नैतिक दृष्टि से घोर पाप है। युवा अधिकारी समाज के प्रति अपने दायित्व और कर्तव्य को भूल गए। उन्हें तो चाहिए था कि बातचीत कर दोनों आयोजनों के लिए मार्ग सुलभ करते। पुस्तक प्रेमी नागपुर के हित में यह सुनिश्चित करते कि सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण में दोनों पुस्तक मेलों का आयोजन हो। खेद है कि इन अधिकारियों ने आपसी बातचीत और सहयोग की जगह कानून प्रदत्त अधिकारों के दुरूपयोग को प्राथमिकता दी। शासन विरोधी वातावरण का निर्माण ऐसे ही कर्मो से होता है। ऐसा नहीं होना चाहिए था!

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