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Saturday, January 2, 2010

मजबूत मीडिया का यह कैसा कमजोर चरित्र!

नागपुर से प्रकाशित एक मराठी दैनिक के पत्रकार, गैर-पत्रकार कर्मचारी भीषण प्रताडऩा के दौर से गुजर रहे हैं। प्रबंधन की मार और प्रशासन का बेरूखापन ही नहीं, अपनी बिरादरी के सदस्य भी उन्हें चोट पहुंचा रहे हैं। जब अपने बेगाने दिखने लगे तब पीड़ा गहरी हो जाती है।
अभी पिछले दिनों जब राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ गुंडों ने मुंबई स्थित आईबीएन लोकमत मराठी समाचार चैनल के दफ्तर पर हमला किया था, तोड़-फोड़ की थी, संपादक निखिल वागले को निशाना बनाना चाहा था, तब मीडिया के हर वर्ग ने ठाकरे के खिलाफ आग उगला था। राष्ट्रव्यापी भत्र्सना हुई थी। टीवी समाचार चैनलों और समाचार-पत्रों ने समान रूप से घटना की निंदा करते हुए राज ठाकरे और उनके गुंडों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी। प्रशासन हरकत में आया और आक्रमणकारी गुंडे गिरफ्तार कर लिए गए। दिल्ली से लेकर मुंबई तक नेताओं ने मीडिया पर हुए आक्रमण को अलोकतांत्रिक निरूपित किया। कहने का तात्पर्य यह कि तब सभी मीडिया के साथ थे, अराजकता के खिलाफ थे।
किंतु अब जबकि, नागपुर के इस मराठी दैनिक के कर्मचारियों पर प्राणघातक हमला हुआ, दो कर्मचारियों का अपहरण कर लिया गया, तब मीडिया खामोश क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि हमलावर प्रबंधन के लोग थे, उनके द्वारा भाड़े पर लाए गुंडे थे? हां, यही सच है। कर्मचारियों की यूनियन ने बकायदा हड़ताल का अग्रिम नोटिस दे दिया था। वे कानून सम्मत हड़ताल पर हैं। चूंकि प्रिंटींग प्रेस के कर्मचारी भी हड़ताल पर चले गए, समाचार-पत्र का मुद्रण प्रभावित हो रहा था। अडिय़ल और असंवेदनशील संचालक और प्रबंधन के कुछ पिठ्ठू हड़ताली कर्मचारियों से बातचीत कर मामला सुलझाने की जगह प्रताडऩा पर उतर आए। पहले तो उन्होंने बाहर से कुछ लोगों को बुलाकर छपाई शुरू की। बाद में जब औद्योगिक न्यायालय ने प्रबंधन के इस कदम को अवैध करार देते हुए बाहर के लोगों द्वारा छपाई कार्य संपन्न कराने पर रोक लगा दी, तब प्रबंधन बौखला उठा। कानून की परवाह किए बगैर प्रबंधन ने असामाजिक तत्त्वों को एकत्रित कर हड़ताली कर्मचारियों पर हमला बोल दिया। उन्हें पीट-पीट कर जख्मी कर दिया गया। वहां तैनात पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने रहे। संभवत: प्रबंधन उन्हें पहले ही साध लिया था। जैसा कि अमूमन होता है, एफआईआर दर्ज होने के बावजूद पुलिस ने प्रबंधन और उनके गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई अभी तक नहीं की। दु:ख या आश्चर्य इस बात पर नहीं, पीड़ा हुई मीडिया के व्यवहार पर। गुंडों की पिटाई से जख्मी अपनी बिरादरी का साथ देने के लिए श्रमिक पत्रकार संघ में बैठक हुई। प्रबंधन की भरपूर आलोचना की गई। उसके खिलाफ कार्रवाई किए जाने की औपचारिक मांग भी की गई। नागपुर के इतिहास की यह पहली घटना है जब हड़ताली पत्रकारों, गैर-पत्रकारों की भरपूर पिटाई प्रबंधन और उनके गुंडों द्वारा की गई। आक्रोशित पत्रकारों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की, किंतु पीड़ा तब गहरी हो गई जब मीडिया में इस पूरी घटना की खबर लगभग नदारद रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने छोटी, महत्त्वहीन दर्जे की खबर लगाकर हाथ झाड़ लिए। आईबीएन लोकमत प्रकरण के ठीक विपरीत मीडिया के आचरण पर बिरादरी सौ-सौ आंसू तो बहा रही है, किंतु खबर के 'बायकॉट' पर कुछ कहने को तैयार नहीं। बताने की जरूरत नही, सभी समझ सकते हैं। लाचार, असहाय हैं वे। यह दीगऱ है कि उनकी यह लाचारी भविष्य में स्वयं उन्हें निशाने पर ले सकती है। मजबूत पत्रकार बिरादरी का यह कमजोर चरित्र आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। पीडि़त 'अ' की उपेक्षा कर फिलहाल सुरक्षित 'ब' अंतत: स्वयं को, कहीं 'अ' की स्थिति में न पहुंचा दें। और तब उनके रूदन में साथ देने वाला शायदही कोई उपलब्ध मिलेगा।

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

विनोद जी यह रोज की कहानी है। लगभग हर अखबार की। मीडिया में कर्मचारी शोषित है। जो मीडिया सारी चीजों के विरुद्ध चीखता रहता है वह अपने ही कर्मचारियों को बोलने की इजाजत नहीं देता जिन में पत्रकार भी सम्मिलित हैं। कारण यह कि कर्मचारियों की सेवा सुऱक्षा वर्तमान कानून और व्यवस्था में कुछ भी नहीं है।

शब्द सितारे... said...

kyun ki vah TV Channel tha aur o bhi bade net work ka

aur opposion men shivsena thi bahut hi masaaledaar khabar thi.
sabke liye.