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Monday, January 4, 2010

'अध्ययन' का बोझ क्यों उठाएं राहुल !

दो टूक टिप्पणी करने के लिए विख्यात अंगरेजी की वरिष्ठ महिला पत्रकार तवलीन सिंह को यह स्पष्टीकरण देने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वे अपने स्तम्भ में राहुल गांधी के विषय में (प्रशंसा में) क्यों नहीं लिखती? जाहिर है कि कहीं किसी ओर से उन पर दबाव पड़ा होगा। किस ओर से क्या, यह बताने की जरूरत है? इन दिनों जबकि दिल्ली स्थित छोटे-बड़े पत्रकारों में 'राहुल स्तुति' की होड़ लगी है, तवलीन की 'राहुल उपेक्षा' भला कैसे बर्दाश्त की जाती? या फिर संभव यह भी है कि राहुल को मिल रहे सकारात्मक कवरेज से तवलीन स्वयं परेशान हो गई होंगी। सो उन्होंने अध्ययन कक्ष में उपलब्ध राहुल गांधी संबंधी खबरों और उनके भाषणों को खंगाल डाला। उन्होंने पाया कि राहुल में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे उन्हें गंभीरता से लिया जाए। तवलीन के अनुसार राहुल ने यदा-कदा अपनी पार्टी कांग्रेस के लिए तो कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं, किन्तु देश के लिए महत्वपूर्ण कभी कुछ नहीं कहा। तवलीन ने यह भी पाया कि राहुल हल्की-फुल्की और गंभीर बातें करने के आदि हैं। तवलीन इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि राहुल बाबा के लिए 'ट्यूटोरियल' जरूरी है।
राहुल गांधी संबंधी तवलीन की 'खोज' पर मंथन किया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव हंै, सोनिया-राजीव के पुत्र हैं बल्कि इसलिए कि लोकतांत्रिक भारत में दु:खद राजनीतिक विरासत की परंपरा के प्रतीक हैं, भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे हैं। इस मुकाम पर लोकतंत्र को उद्धृत किए जाने से उत्पन्न पीड़ा, सच मानिए असहनीय है। लोकतंत्र में सत्ता पर 'विरासत' का कब्जा!! लोकतंत्र की कल्पना को ऐसी चुनौती? एक सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाला लोकतांत्रिक भारत फिर भी इस 'सत्य' को स्वीकार करता है। तो इसका दोषी कौन? लोकतंत्र ने तो स्वयं को परिभाषित कर रखा है। उसे दोष नहीं दिया जा सकता। दोषी अगर कोई है तो, हमारी वह राजनीतिक व्यवस्था, जिसमें प्रतिभा तो हाशिये पर सिसकने को मजबूर है किंतु अयोग्य, अवसरवादी इस पर कुंडली मारकर बैठ गए हैं। कांग्रेस जो स्वयं को भारत देश का अभिभावक दल मानती है, स्वतंत्रता का श्रेय लेती है, विश्व समुदाय में भारत की ताजा पृथक पहचान का सेहरा अपने सिर बांधती है, उस पार्टी ने एक परिवार-एक शासक का सिद्धान्त कैसे अपना लिया? उत्तर सहज है भारत विभाजन और आजादी के समय से ही योजनाबद्ध तरीके से इस षडयंत्र को अंजाम दिया जाने लगा। ऐसा ताना-बाना बुना गया कि नेहरू परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति पार्टी के अंदर नेतृत्व पर कब्जा करने की न सोचें। विरोध के स्वर दबा दिए जाएं। यहां तक कि इंदिरा गांधी के पति तेजतर्रार, बुद्धिजीवी, विचारक फिरोजगांधी को भी परिवार से अलग कर दिया गया। यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि शांतिदूत पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी ईमानदार, कर्मठ, प्रतिभावान फिरोज गांधी नापसंद थे। कानून बदल डाला गया ताकि इंदिरा गांधी को तलाक मिल सके। इंदिरा पुत्र संजय ने मेनका से विवाह किया, एक दुर्घटना में संजय की मृत्यु पश्चात विधवा मेनका के लिए दु:स्थितियां पैदा की गई, उसे घर से निकाल दिया गया। दो वर्ष के अबोध पुत्र वरूण को गोद में ले बिलखती मेनका प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकल गई थी। दोनो मां-बेटे मेनका और वरूण आज सांसद तो हैं किंतु नेहरू परिवार का वारिस उन्हें नहीं माना जाता, क्योंकि उन्हें तो परिवार से बाहर कर दिया गया है।
अब शेष अकेले राहुल गांधी युवराज के रूप में मौजूद हैं। फिर क्या आश्चर्य कि सत्ता वंश के इस एकमात्र उत्तराधिकारी को हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भारत का भविष्य निरूपित करते हैं। पार्टी में मौजूद चाटुकारों की फौज उन्हें अपना राजा घोषित कर चुकी है? कोई आश्चर्य नहीं! फिर भला राहुल गांधी किसी की परवाह करें तो क्यों करें? तवलीन सिंह के सुझाव पर अध्ययन का बोझ वे क्यों उठाएं? वे गरीब परिवारों के बीच जाकर 'पिकनिक' मना लेते हैं। वैश्वीकरण की चमक से मुग्ध युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए उन्हें सुनहरे भारत का स्वप्न दिखा देते हैं। अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए मुस्लिम समुदाय के बीच जाकर ऐसी घोषणा कर देते हैं कि देश में कोई मुसलमान भी प्रधानमंत्री बन सकता है। विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसान परिवारों के बीच बैठकर 'कलावती-संवाद' कर लेते हैं। प्रचार तंत्र को साधने के लिए बड़े मीडिया समूहों के संचालकों-संपादकों-पत्रकारों की फौज सक्रिय है। अब राहुल को क्या चाहिए? आर्थिक विकास और शिक्षा को गंभीरता से राहुल लें तो क्यों? तवलीन बेचारी फिर शोध कर राहुल गांधी पर लिखें तो क्या लिखें?

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