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Friday, January 22, 2010

संक्रामक रोग है भाषावाद!

यह प्रवृत्ति स्वीकार्य नहीं। पहले विवादास्पद आदेश जारी करना, देश भर में हंगामा खड़ा करना, सरकार और सत्तापक्ष की नीयत पर सवालिया निशान चस्पाना और फिर पलटी मारते हुए अपने शब्दों को वापस उदरस्थ करना। यह एक कमजोर सरकार और भ्रमित नेतृत्व की निशानी है।
सिर्फ मराठी भाषियों को टैक्सी परमिट दिए जाने संबंधी महाराष्ट्र सरकार का आदेश यूं भी कानून की कसौटी पर नहीं टिकता। 24 घंटे के अंदर मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने जब अपनी बात से पलटते ऐसी सफाई दी कि टैक्सी चालकों को हिंदी और गुजराती सहित किसी भी स्थानीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए, तब मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। एक निहायत गलत निर्णय में संशोधन कर मुख्यमंत्री चव्हाण ने सरकार को विवाद से बचाने की कोशिश की है। किन्तु नुकसान तो हो चुका है। एक बार फिर महाराष्ट्र को पूरे देश के सामने शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और इसे बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। खेद इस बात का है कि इसके पूर्व प्रांतीयता और भाषावाद का जहर फैलाने वाले बाल ठाकरे और राज ठाकरे ऐसे आपत्तिजनक कदम उठाया करते थे, इस बार सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की ओर से ऐसा हुआ।
क्या यह दोहराने की जरूरत है कि इस प्रवृत्ति में देश की अखंडता को चुनौती छुपी है। सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक प्रांतीयता और भाषावाद को अगर कोई हवा देता है तो वह 'राष्ट्रीय' कभी नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में राष्ट्रीयता की भावना इनमें आए तो कैसे? देश की एकता, अखंडता के लिए 'राष्ट्रीयता' की अनिवार्यता से अनजान आज के राजनेता अपनी राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे संभल जाएं। अन्यथा भविष्य में राष्ट्रव्यापी अराजकता और विघटन के अपराधी घोषित कर दिए जाएंगे वे।
पिछले बुधवार को महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी आदेश हर दृष्टि से आपत्तिजनक ही नहीं संक्रामक भी है। भूमिपुत्रों के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर प्रदान करने की सोच गलत नहीं है। इसे तो मैं उनका जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूं। गलत है तो आदेश में निहित नकारात्मक संदेश, गलत है आदेश में निहित 'नीयत' और गलत है देश के अभिभावक दल कांग्रेस की ओर से ऐसे कदम का उठाया जाना। मुख्यमंत्री द्वारा पेश सफाई के बावजूद 'आदेश' में निहित नीयत की चीरफाड़ लाजमी है। आदेश के समय पर ध्यान दें। अभी प्राय: सभी राजनीतिक दल व्यापक पैमाने पर सदस्यता अभियान चला रहे हैं। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना मराठी मानुस का उपयोग हथियार के रूप में कर रही है। बाल ठाकरे की शिवसेना सुप्तावस्था से जागकर उस मुद्दे को ले मैदान में कूद पड़ी है। ऐसे में क्या यह सच नहीं कि मराठी मानुस की भावनाओं को उभार कांग्रेस ने उक्त आदेश के द्वारा ठाकरे एंड कंपनी को पीछे ढकेलने की कोशिश की? घृणा से घृणा को मात नहीं दी जा सकती। यह एक संक्रामक रोग है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसा सुलझा व्यक्ति इस तथ्य से अनजान नहीं हो सकता। मैं समझ सकता हंू कि कभी-कभी राजनीतिक मजबूरियां निर्णयों को प्रभावित कर देती हैं। मुख्यमंत्री चव्हाण ऐसी अवस्था के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं। लेकिन उनकी इस बात के लिए तो प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने समय रहते संशोधन कर लिया। अब अपेक्षा यह कि वे अपने संशोधन पर कायम रहते हुए महाराष्ट्र की मान को कायम रखेंगे।

2 comments:

संजय बेंगाणी said...

सही चिंतन.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"पहले विवादास्पद आदेश जारी करना, देश भर में हंगामा खड़ा करना, सरकार और सत्तापक्ष की नीयत पर सवालिया निशान चस्पाना और फिर पलटी मारते हुए अपने शब्दों को वापस उदरस्थ करना। यह एक कमजोर सरकार और भ्रमित नेतृत्व की निशानी है।"

आज पूरे देश पर ही यह बात चरितार्थ हो रही है !
क्या दिल्ली क्या महाराष्ट्र क्या आंध्रा