पूर्वग्रही शायद न मानें। विभाजन के दस दशक बाद भी आज हिंदू शब्द के वास्तविक अर्थ से देश की बहुसंख्यक आबादी अनजान है। हिंदू शब्द को धर्म से जोड़ सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है। 'गर्व से कहो कि हम हिंदू' का उद्घोष करने वालों की राष्ट्रीय नहीं, भारतीय नहीं, सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। फिर क्या आश्चर्य कि विशाल हिंदू समाज इस शब्द के प्रयोग पर दबा-सहमा दिखता है। छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने इस पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ाकर अपने लिए वोट बैंक तैयार कर लिए हैं। सत्ता, शासन पर कब्जा करते रहे हैं। क्या इससे बड़ी कोई विडंबना हो सकती है? सभी अल्पसंख्यक वर्ग अपने-अपने धर्म की बेखौफ न केवल मुनादी पीटते हैं, डंके की चोट पर प्रचार-प्रसार करते हैं। कुछ मामलों में धर्म परिवर्तन भी कराते रहते हैं। लेकिन इन पर उंगलियां नहीं उठाई जातीं। एक अकेला बहुसंख्यक बेचारा हिंदू समाज जिसने स्वयं को हिंदू कहा नहीं कि सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। जबकि अल्पसंख्यक के नाम पर अपने- अपने धर्मों का गुणगान करने वालों को धर्मनिरपेक्षता के तमगे से सुशोभित कर दिया जाता है। पूरे संसार में भारत देश ऐसी विडंबना का एक अकेला उदाहरण है। हिंदू शब्द के सही अर्थ की जानकारी लोगों को नहीं दी गई। शायद अनजाने में या फिर किसी षडयंत्र के तहत।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदू शब्द की भ्रांति को दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने यह चिन्हित किया है कि हिंदू शब्द का अर्थ किसी धर्म विशेष से नहीं बल्कि जीवन जीने की एक पध्दति से है। इसे विस्तार देते हुए भागवत ने बिल्कुल सही टिप्पणी की है कि सभी भारतीय हिंदू हैं। अगर कोई व्यक्ति हिंदू नहीं है तो वह भारतीय भी नहीं हो सकता। चूंकि हिंदू शब्द को धर्म-विशेष से जोड़कर देखने की परिपाटी बन गई है, मोहन भागवत की बातों को तत्काल स्वार्थी कट्टरपंथी तत्व सांप्रदायिक घोषित कर देंगे। राजनीति शुरू हो जाएगी। अल्पसंख्यकों के लिए तुष्टिकरण की नीति को अपनाने वाले राजनीति के खिलाड़ी भला भागवत की हिंदू परिभाषा को कैसे स्वीकार करेंगे। उनकी दूकानदारी जो बंद हो जाएगी। जिस दिन विशाल भारतीय समाज यह मान लेगा कि हिंदू जीवन जीने की एक पद्धति है, हिंदूत्व एक संस्कृति है, सांप्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता का झगड़ा ही खत्म हो जाएगा। भारत को ज्ञानियों और बुध्दिजीवियों का देश कहा जाता है। यह वर्ग उनींदा क्यों है? हिंदू शब्द के वास्तविक अर्थ को घर-घर में क्यों नहीं पहुंचाता? यह तो उसका धर्म होना चाहिए। लेकिन फिर एक अन्य विडंबना। समाज का यह सभ्य, शिक्षित वर्ग सुविधाभोगी बन गया है- कुछ अपवाद छोड़कर। चुनौती है इन्हें, अपनी आत्मा में झांकें, भारतीयता को पहचानें, विवाद स्वत: समाप्त हो जाएगा। फिर एक ऐसे अनुकरणीय, आदर्श, सामाजिक सौहाद्र्र्र का उदय होगा जो भारत की सीमा लांघ पूरे संसार को जीवन- जीने की पद्धति से परिचित कराएगा।
2 comments:
आपको तथा आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ.nice
श्रीमान जी, बहुत पते की बात कही है. लेकिन कहीं सूडो धर्मनिरपेक्षी नाराज न हो जायें आपसे. यह बात तथाकथित अल्पसंख्यकों को समझ आ जाये तो देश का उद्धार हो जायेगा.
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