एक पुरानी बहस, कि सभी खूंखार अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी मुसलमान ही क्यों हैं, के बीच एक नई बहस, कि भारत में आखिर असली मुसलमान है कौन? इसी से जुड़ा यह सवाल भी कि यह असली मुसलमान कहां गया? बहस मौजूं है, इसका समाधानकारक जवाब चाहिए।
द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर खंडित आजाद भारत जब संविधान सभा में अपने लिए संविधान तैयार कर रहा था तब अल्पसंख्यक घोषित हो चुके मुस्लिम समुदाय के हित में लंबी बहसें हुई थीं। बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के प्रगतिशील सदस्य मुसलमानों के लिए विशिष्ट पहचान की वकालत कर रहे थे। बल्कि सच तो यह है कि संविधान सभा के हिन्दू सदस्यों के बीच 'मुस्लिक समर्थक' दिखने की होड़ मची थी। यह जानना दिलचस्प होगा कि आखिर उस समय मुस्लिम समुदाय क्या सोच रहा था? डा. बाबासाहब आंबेडकर के साथ काम कर चुके सुप्रसिद्ध न्यायविद मोहम्मदअली करीम छागला (एम.सी. छागला) की एक प्रतिक्रिया तब की मुस्लिम सोच को चिन्हित करने के लिए काफी है। जब संविधान सभा में मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर को संविधान की धारा 370 के जरिये विशिष्ट दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव आया तब छागला ने अत्यंत ही पीड़ा के साथ पूछा था कि ''हमें (मुस्लिम समुदाय) राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग क्यों किया जा रहा है?'' छागला की वेदना वस्तुत: तब मुस्लिम समुदाय के बड़े वर्ग की वेदना थी। लेकिन तभी सत्ताधारियों ने इस समुदाय में अपने लिए वोट बैंक को भांप लिया था। वोट और सत्ता की चाहत में राष्ट्रहित को हाशिए पर रख दिया गया। और कड़वा सत्य यह कि सत्ताधारियों की इसी रणनीति ने मुसलमानों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला। एक षडय़ंत्र के तहत इन्हें दबाकर रखा गया। आंसू बहाने को इन्हें मजबूर किया गया। फिर आंसू पोंछने के नाम पर कथित सहानुभूति के तहत तुष्टिकरण की चुनावी नीति का इजाद हुआ। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जारी तुष्टिकरण के दंश से स्वयं मुस्लिम समाज आज बेचैन है? विशाल मुस्लिम समाज को चुनौती है कि वह स्वयं को ईमानदारी के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ जाने के लिए इस स्थिति का 'पोस्टमार्टम' करे। दोयम दर्जे के कथित लबादे को उतार फेंके। जलाकर खाक कर दे ऐसी सोच को। हिन्दुस्तान पर अन्य कौमों के साथ-साथ उनका भी बराबर का हक है। अब सवाल यह कि क्या ऐसा संभव है? जवाब है हां, संभव है।
इसके लिए पहली शर्त यह है कि मुस्लिम समुदाय अपने लिए विशिष्ट पहचान के लालच का त्याग कर दे। अपनी कट्टर रूढ़ीवादी छवि से निजात पा ले। एक ऐसी क्रांति का आगाज करे जिससे समुदाय की छवि को लेकर उत्पन्न वर्जनाएं तार-तार हो जाएं। राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित ऐसी धारणा, कि प्रत्येक मुसलमान अल्पसंख्यक है और वह चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार को ही अपना वोट देते हैं, मिथ्या साबित हो जाए। धर्म आधारित मतदान के आरोप को मुस्लिम समाज झूठ साबित कर दे। यह संभव है। स्वयं को मुसलमानों का प्रतिनिधि घोषित करने वाले लोग अन्य कौमों को विश्वास में लेकर ईमानदार पहल करें, उनकी छवि स्वत: राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हो जाएगी। दोयम दर्जे की कोई भी हीन भावना को अपने पास फटकने न दे। बहुसंख्यक हिन्दुओं के समकक्ष उनकी भी पहचान बन जाएगी। सत्तालोलुप नेताओं, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, अपने पास न फटकने दें। इन्हीं के द्वारा बुने गए राजनीतिक व सामाजिक ताने-बाने के कारण आम मुसलमान अपने ही देश में स्वयं को उपेक्षित समझने लगे। वे राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर होते चले गए। सच मानिए तो साम्प्रदायिकता की आग को भी हवा इन्हीं कारणों से मिली। अब बहुत हो गया। अब और नहीं। मुस्लिम समाज का शिक्षित-सहनशील नेतृत्व राजनीतिकों के जाल को काट नई सुबह का आगाज करे। भारत विभाजन के समय आजादी की लड़ाई के एक जांबाज मुस्लिम नेता अबुल कलाम आजाद ने दिल्ली की जामा मस्जिद से जो आह्ïवान किया था, उसकी याद करे। आजाद ने तब पाकिस्तान उदय पर लगभग बिलखते हुए कहा था कि ''जो चला गया, उसे भूल जा, हिन्द को अपनी जन्नत बना।'' स्मरण करें आजाद के इन शब्दों को, सभी दर्द हवा हो जाएंगे।
1 comment:
ab to in logon ne hinduon ko doyam darje ka naagrik bana diya hai aur thode dinon men alpsankhyak bhi bana denge.
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