Sunday, March 14, 2010
...तो बदल डालें संविधान को!
मैं जानता हूं कि जिस मुद्दे को यहां उठाने जा रहा हूं वह नक्कारखाने में तूती का आवाज बन कर रह जाएगी। बावजूद इसके यह जोखिम मैं इसलिए उठा रहा हूं कि जनतंत्र के 'जन' को छोटा ही सही एक मंच तो मिले। सुनने और पढऩे में असहज और कड़वा तो लगेगा, लेकिन क्या इसे ईमानदार चुनौती मिल सकती है कि आज छद्म धर्मनिरपेक्षता की तरह छद्म जनतंत्र को सिंचित किया जा रहा है। अगर कोई इस सोच को एक पागल की सोच करार देना चाहे तो वह स्वतंत्र है, लेकिन मन-मस्तिष्क में उबलते सवाल का जवाब तो ढूंढऩा ही होगा। 'जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा' की गर्वयुक्त घोषणा के साथ तैयार भारतीय संविधान से संचालित संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में 'आम जन' क्या गुम नहीं है? क्या बरास्ता आम आदमी खास औरत तैयार नहीं की जा रही है? क्या जन प्रतिनिधि का तमगा सीने पर लगा भारतीय जनतंत्र और भारतीय संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाला 'खास आदमी' आम आदमी के दयनीय जीवन-स्तर को सुधारने के प्रति गंभीर है? आम जनता के लिए आम बजट की अवधारणा के तहत संसद में प्रस्तुत बजट पर हमारे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री संवेदना शून्य व्यक्ति की तरह, बेशर्मी की भाषा में बयान देते हैं कि 'हाँ, बजट से महंगाई बढ़ेगी, आम लोगों की तकलीफों में इजाफा होगा.........। परंतु यह एक ऐसा दीर्घकालिक कदम है जिससे देश का 'भविष्य' खुशहाल होगा।' क्या सचमुच? अगर इनकी बात सच साबित भी होती है, तब 'भविष्य' पर कब्जा आम आदमी का न होकर खास आदमी का ही होगा। आज का गरीब थोड़ी प्रगति के साथ कल भी गरीब ही रहेगा। और आज का अमीर अत्यधिक विस्तार के साथ कल और अमीर बनेगा। वर्तमान में महंगाई की मार से पीडि़त आम जन तब तक शायद दम भी तोड़ देगा। लाशों की सीढिय़ां बना उस पर चढ़ कथित सुनहरे भविष्य की प्राप्ति की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर कौन प्रतीक्षा करेगा ऐसे खुशहाल 'भविष्य' की? आज का आम जन तो नहीं ही। संसदीय जनतंत्र में सर्वोच्च भारतीय संसद तो अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के सम्मान की रक्षा भी नहीं कर पा रही। यह कैसा संविधान और कैसा जनतंत्र, जिसमें संसद भवन के अंदर सांसदों को मार्शल द्वारा धकिया कर बाहर निकाला जाता है। अगर उन्होंने संसदीय गरिमा के विरूध्द आचरण किए थे तो उपलब्ध व्यवस्था के तहत उन्हें निलंबित कर दिया जाता, किसी को आपत्ति नहीं होती। अगर अपराध अक्षम्य हो तब कानून- सम्मत कार्रवाई करते हुए उनकी संसद की सदस्यता भी छीन ली जाती तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन मार्शल के हाथों निकाल-बाहर किया जाना? किसी जनतंत्र में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री कहते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों पर बढ़ी हुई कीमतें वापस नहीं ली जाएंगी, ऐसी घोषणा किसी जनतंत्र का निर्वाचित प्रधानमंत्री कदापि नहीं कर सकता। उनके शब्दों में एक राजतंत्रीय शासन का दंभ परिलक्षित था। ऐसा शासक ही आम जन की परवाह नहीं करता। हमारे प्रधानमंत्री संभवत: इस तथ्य को भूल गए हैं कि हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर खड़ी है। सरकार न तो व्यवसायी है और न ही शासन कोई व्यवसाय। कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे शासन से तैयार अराजक समाज में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर अलगाववादियों की पंक्ति लंबी होती जा रही है। रोजी-रोटी की जुगत में परेशान आम जन का धार्मिक और भाषायी शोषण शुरू हो चुका है। मुस्लिम शिया समुदाय के एक मौलाना ने सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी है कि महिलाओं की सत्ता में भागीदारी की कोई जरूरत नहीं। उनका काम सिर्फ बच्चे पैदा करना है और वे यही करें। महिलाओं का क्या इससे बड़ा और अपमान हो सकता है? ऐसी विकृत सोच का कारण भी हमारी सामाजिक व्यवस्था ही है। धर्म विशेष के स्वयंभू नेता वर्तमान जनतांत्रिक आजादी का दुरूपयोग कर समाज को गुमराह करते हैं, अपनी राजनीति करते हैं। देश के विकास की गति में इजाफे का दावा कर समृध्द भारत की अवधारणा तो ठीक है किंतु क्या इस सत्य को कोई झूठला सकेगा कि 'भविष्य' के समृध्द भारत पर कब्जा संपन्न-समृध्द हाथों का ही होगा। आम जन तब भी पिछली पंक्ति में ही स्थान पा सकेगा। तब भी उसकी दयनीय अवस्था में सुधार लाने के लिए 'भविष्य' की नई-नई योजनाएं बनेंगी, गरीबी हटाओ के नारे तब भी लगते रहेंगे। सीमेंट की अट्टालिकाओं के नीचे थोड़े परिवर्तित रूप में गरीबों के रैन-बसेरा तब भी बिलखते मिलेंगे। और ये सब कुछ होगा उसी जनतंत्र के नाम पर, उसी जनता के नाम पर जिसके सीने को रौंदते हुए समृध्द, संपन्न शक्तिशाली पांव आज कदमताल कर रहे हैं। क्रांति की बातें करने वालों की आज कमी नहीं है। वे क्रांति चाहते भी हैं, समाज में आमूल-चूल परिवर्तन चाहतें हैं वे, संविधान और जनतंत्र की आड़ में निज स्वार्थ की रोटी सेंकनेवालों को वे दंडित भी करना चाहते हैं, व्यवहार के स्तर पर जनता के हित में जनतंत्र को क्रियाशील देखना चाहते हैं वे, हाशिए पर बैठा दिए गए सुपात्रों को उनका वाजिब हक दिलाना चाहते हैं, सबके लिए समान कानून की मूल कल्पना को साकार करना चाहते हैं ताकि सुसंपन्न व संपन्नहीन की विषमता समाप्त हो जाए। सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान स्थायी नारे बनकर न रह जाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य-चिकित्सा सभी के लिए सुलभ रहें, विकास के लिए आवश्यक संसाधनों पर एकाधिकार समाप्त हो जाए, सभी को बराबर का अवसर मिले, न्याय सुलभ हो, उस पर विशिष्ट वर्ग का कब्जा न हो, सुशासन व कायदे-कानून की जिम्मेदार संस्थाएं एक सच्चे जनसेवक की भावना के साथ दायित्व निर्वहन करे, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की भावना को मौत मिले, ये वास्तविक जनतंत्र की जरुरतें हैं। भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था भी है। बावजूद इसके अगर संविधान निर्माण के छह दशक पश्चात भी जनतंत्र की जनता इनकी आग्रही ही है, तब इस संविधान को बदल डाला जाए। एक सौ से अधिक अवसर पर संशोधित वर्तमान संविधान की जगह नए संविधान के औचित्य को चुनौती नहीं दी जा सकती। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जनता के प्रति जवाबदेही को सुनिश्चित किए जाने के उपाय किए जाने चाहिए। वर्तमान नियम-कानूनों में मौजूद छिद्र जब ऐसा नहीं होने दे रहे तब इन छिद्रों को बंद करने के उपाय तो ढूंढने ही होंगे।
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