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Thursday, March 18, 2010

धन उद्योग-धंधों से कमाएं, मीडिया से नहीं!

एक विचित्र किंतु सुखद समागम हुआ, मीडिया में प्रविष्ट दानव (पेड-न्यूज) के वध के लिए। पत्रकार - चिंतक कुलदीप नैयर, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर. आर. पाटील और प्रसिद्ध उद्योगपति विको ग्रुप के अध्यक्ष गजानन पेंढारकर एक मंच से गरजे। अखबारों, न्यूज चैनलों पर इस दानव के दबाव पर चिंता प्रकट करते हुए इनके द्वारा दी गई चेतावनी कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अपनी विशिष्ट पहचान खो रहा है, सामाजिक सरोकारों से पृथक पतनोन्मुख हो चुका है, पर मंथन अपेक्षित है। नागपुर में बढ़ते तापमान के बीच इस मुद्दे को गर्म करते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की गई कि धन प्रभावित मीडिया कहीं जन-प्रभाव से दूर न हो जाए। 'पेड-न्यूज मीडिया के मूल चरित्र के लिए खतरा बनता जा रहा है। शायद अभी सुनने-पढऩे में अजीब लगे किंतु क्या यह खतरा मौजूद नहीं है कि आनेवाले दिनों में अखबार मुफ्त में बंटने लगे। कुलदीप नैयर दु:खी हैं कि 'पेड-न्यूज के दानव को प्रश्रय मीडिया के बड़े घरानों में ज्यादा मिला है। यह एक स्थापित सत्य है। अब जरा संभावित खतरों पर गौर करें। राजनेता और बड़े औद्योगिक घरानों को धन देकर अपनी मनमर्जी की खबरों को छपवा लेने और दिखला लेने का चस्का लग चुका है। जब ऐसी खबरों की संख्या बढ़ेगी, तब अखबारों और चैनलों में स्थानों के भाव बढ़ जाएंगे। मीडिया के संचालक पैकेज बनाकर मनमानी कीमतें वसूलने लगेंगे। खबरों के लिए, खबरों के शीर्षकों के लिए, उनमें दिए जाने वाले 'बाक्स आईटम के लिए, कोटेशन्स के लिए और छायाचित्रों के लिए अलग-अलग दर निर्धारित हो जाएंगे। खबरें छापने या दिखाने के लिए ही नहीं बल्कि खबरें नहीं छापने और नहीं दिखाने के लिए कीमतें तय हो जाएंगी। चूंकि ऐसे मदों में भुगतान करने वालों को व्यापक प्रसार भी चाहिए, दबाव में मालिक, अगर कानूनी बाध्यता न हो तब, अखबारों के मुफ्त वितरण के लिए मजबूर हो जाएंगे। धन तो वे प्रायोजित खबरों से वसूल ही लेंगे। तब शायद ऐसी अवस्था भी उत्पन्न हो जाए कि प्रथम पृष्ठ की मुख्य खबरें भी 'पेड-न्यूज के तहत प्रकाशित होने लगें। तब क्या प्रेस अर्थात मीडिया लोकतंत्र के चौथे पाए के लायक रह पाएगा? हरगिज नहीं। तब तो वह राजनेताओं और व्यवसायी घरानों के दलाल की भूमिका में होगा। कथित निष्पक्षता, निर्भीकता, समर्पण किसी कोने में सिसकते मिलेंगे। और यह सब होगा ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने की लिप्सा के कारण। चूंकि इस व्याधि को मीडिया के संचालक सिंचित कर रहे हैं, समाजहित में, राष्ट्रहित में, पेशे की पवित्रता के हित में, पत्रकारीय मूल्यों के हित में और इन सबों से उपर लोकतंत्र के हित में संचालकगण पहल करें। धन कमाने के लिए तो उनके पास अन्य उद्योग धंधें मौजूद हैं, धन वहां से कमाएं, मीडिया से मान-सम्मान कमाएं। अन्यथा वे एक दिन पश्चाताप के आंसू बहाने को मजबूर हो जाएंगे। क्योंकि अन्य भारतीयों की तरह उनकी रगों में भी विशिष्ट भारतीय संस्कृति का रक्त ही प्रवाहित है और यह विशिष्ट रक्त लोकतंत्र को ध्वस्त होने नहीं देख सकता।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हर चीज बिकाऊ है, बस खरीदार चाहिये...
सार्थक चिन्तन..