शत्रुघ्न सिन्हा मेरे मित्र हैं। ऐसे कि एक कार्यक्रम में उन्होंने मुझे 'फ्रेंड फिलास्फर एंड गाईड' कहकर संबोधित किया था। मुझे वो दिन भी याद है जब 1967 में बिहार में सूखे से पड़े अकाल की स्थिति का अवलोकन करने पटना पहुंचे सुप्रसिद्ध लेखक- पत्रकार व फिल्म निर्माता (स्व.) ख्वाजा अहमद अब्बास ने मुझे बताया था कि 'यह लड़का (शत्रुघ्न) पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट का बेस्ट प्रोडक्ट है... यह बहुत तरक्की करेगा...... मैं इसे अपनी प्रस्तावित रंगीन फिल्म 'गेहूं और गुलाब' में मुख्य भूमिका देने जा रहा हूं।' तब शत्रुघ्न सिन्हा की कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। लेकिन अब्बास की पारखी आंखों ने उनमें छिपे कलाकार को पहचान लिया था। शत्रुघ्न ने तरक्की की, अभिनय के क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंच गए। बेजोड़ माने जाने लगे। '70 के दशक के मध्य में जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े, सक्रिय राजनीति में आए। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। दो बार राज्यसभा सदस्य रहे। इस बार पटना से चुनाव लड़ सीधे लोकसभा पहुंचे। कहने का तात्पर्य यह कि सिन्हा अभिनय और राजनीति के क्षेत्र में निरंतर सफलता के पायदान पार करते रहे। सीमित दायरे में ही सही मेरे जैसे शुभचिंतक उनकी सफलता के गवाह रहे, कायल रहे।
तथापि सिन्हा जैसे वरिष्ठ और परिपक्व नेता जब भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की नवगठित टीम को 'पुरानी बोतल में नई शराब' की संज्ञा दें, तब आश्चर्य के साथ- साथ दु:ख पैदा करेगा ही। मेरी उनसे इस विषय पर बातें भी हुई। उन्होंने अपनी बातें रखीं। उनकी व्यक्तिगत पीड़ा राष्ट्रीय संदर्भ में स्वीकार योग्य नहीं लगी। राजनाथ सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों का स्याह पक्ष कतिपय नेताओं में उत्पन्न अनुशासनहीनता थी। एक- दूसरे पर वार किए जा रहे थे, नीचा दिखाने की कोशिशें की जा रहीं थी। अनेक उदित गुटों के कारण पार्टी में अनुशासनहीनता बढ़ी। अराजक स्थिति पैदा हुई। कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा! निराशा जगी! हतोत्साह पनपा! अनुशासन और मूल्य आधारित राजनीति की अपनी विशिष्ट पहचान भाजपा खोने लगी। लोकसभा चुनाव में इसका खामियाजा सामने आया। पार्टी की शर्मनाक हार हुई और कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत। भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन हुआ, अपनी संगठन क्षमता के लिए विख्यात, परिश्रमी नितिन गडकरी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। पद संभालने के बाद उनका पहला ऐलान ही रहा कि पार्टी अनुशासन के साथ विकास के लिए राजनीति करेगी। इंदौर अधिवेशन में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अपने पहले संबोधन में गडकरी ने पार्टी नेताओं को दो-टूक शब्दों में नसीहत दिया था कि 'आप अपनी लकीर बड़ी करें, दूसरों की लकीर छोटी न करें!' संदेश बिल्कुल साफ था। कार्यकर्ताओ में उत्साह पैदा हुआ, आम जनता ने इन शब्दों में भविष्य की स्वच्छ राजनीति की झलक देखी। आश्चर्य है कि हर दृष्टि से परिपक्व शत्रुघ्न सिन्हा इस संदेश में निहीत 'दर्शन' क्यों नहीं समझ पाए। अपनी बात रखना, पीड़ा व्यक्त करना एक बात है, आरोप लगाना दूसरी। अस्त-व्यस्त बिखरी पार्टी को एक-जुट कर 2014 के निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ते गडकरी को सिन्हा जब छोटा-भाई और दोस्त मानते हैं, तो बेहतर होता कि वे थोड़ी प्रतीक्षा करते। यशवंत सिन्हा और सुषमा स्वराज को उद्धृत कर अपनी पीड़ा में सहभागी बनाना कदापि उचित नहीं था। यशवंत और स्वराज की अपनी पहचान है, अपना कद है। परिपक्व शत्रुघ्न सिन्हा निश्चय ही इस बार राजनीतिक चूक कर बैठे हैं। एक सच्चे मित्र का धर्म होता है कि वह यथार्थ से अपने मित्र को परिचित कराए। मैंने वही किया है। यथार्थ कड़वा हो सकता है, किंतु यकीनन 'कुनैन' भी यही साबित होगा।
3 comments:
bilkul sahi kaha..
सचमुच आपने साबित कर दिया कि सच्चा मित्र किसे कहते हैं। आपने बिल्कुल ठीक सलाह दी है। मैं भी शत्रुघ्नजी को बहुत नजदीक से जानता हूँ। लेकिन इस भय से उन्हें कुछ कह नहीं बता पाता कि कहीं वे नाराज नहीं हो जाएं। उन्होंने पार्टी के लिए बहुत कुछ किया है और कर भी रहे हैं। लेकिन जब वे खुद को नितिन गडकरी का बड़ा भाई मानते हंै तब तो उन्हें कुर्बानी देनी चाहिए थी। राम की तरह जिन्होंने छोटे भाई भरत के लिए त्याग किया था। राम ने भरत के लिए परेशानी पैद नहीं की थी। शत्रुजी ने गडकरी की आलोचना कर स्वयं को बहुत ही छोटा बना लिया है। उन्हें नजदीक के जानने के कारण यह बताना चाहूंगा कि व्यक्तिगत चाहत कभी राष्ट्रीय जरूरत नहीं बनती। गडकरी ने राष्ट्र और पार्टी हित में सही टीम का गठन किया है।
ख्वाजा अहमद अब्बास की किताब - गेहूँ और गुलाब कल ही पढी है और उन पर और जानकारी लेने के क्रम में नेट खंगालते वक्त आपकी यह पोस्ट पकड में आई।
बढिया पोस्ट है।
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