''संयुक्त राज्य अमेरिका से डॉ. सुषमा नेथानी जानना चाहती हैं कि क्या हमारे देश के सभी सांसद सर्वश्रेष्ठ, योग्य हैं? क्या उनके लिए कोई मापदंड है? डॉ. नेथानी यह भी जानना चाहती हैं कि क्या लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में हम 300 योग्य महिला पात्र नहीं ढूंढ़ सकते?'' इसी प्रकार महिला आरक्षण पर हो रहे हो-हल्ले से परेशान मंजुविनोद ने लालू और मुलायम यादव को उद्धृत करते हुए पूछा है कि क्या यही है हमारे नेताओं का चरित्र?
ये प्रतिक्रियाएं मेरे विगत कल के आलेख 'योग्यता की कीमत पर.....' प्राप्त हुई है। कुछ अन्य भी। मैं याद दिलाना चाहूंगा कि आलेख में स्पष्ट लिखा गया है कि अधिकतर पुरूष सांसद अयोग्य हैं, आपराधिक पाश्र्व के हैं, भ्रष्ट भी हैं वो। इन दोनों टिप्पणीकारों की भावनाओं का आदर करते हुए मैं उनका ध्यान आलेख में दिए गए उस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा। अव्वल तो यह कि मैंने जिस योग्यता की सिफारिश की है, उसका आशय सिर्फ शैक्षणिक योग्यता नहीं है, मैंने राजनीतिक योग्यता की बात कही है।
हमारे लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वहां कानून बनाए जाते हैं, देश के भाग्य का निर्धारण किया जाता है। लगभग सवा सौ करोड़ की भारतीय आबादी का प्रतिनिधित्व लगभग आठ सौ जनप्रतिनिधि करते हैं। ऐसी महान जिम्मेदारी का बोझ अगर कुपात्र- अयोग्य कंधों पर डाल दिया जाए तब क्या होगा? वही, जो आज हो रहा है! कोई भी ईमानदार, निष्पक्ष समीक्षक इस तथ्य को नकार नहीं सकता कि भारतीय संसद में भ्रष्ट कुपात्रों को प्रवेश मिल चुका है। कौन दोषी है इसके लिए? निश्चय ही हमारी व्यवस्था, हमारी संसदीय प्रणाली और नियम कानून दोषी हैं और इस अवस्था के लिए स्वयं भारतीय संसद भी कम जिम्मेदार नहीं। पक्ष-विपक्ष दोनों समान रूप से दोषी हैं। मैं पहले भी लिख चुका हूं, आज फिर याद दिला रहा हूं, भारतीय संसद में पारित एक संकल्प की। आजादी के स्वर्ण जयंती के अवसर पर आहूत संसद के विशेष सत्र में ऐसा संकल्प पारित किया गया था कि राजनीतिक दल चुनावों में अपराधी अथवा आपराधिक पाश्र्व के व्यक्तियों को उम्मीदवार नहीं बनाएंगे। संकल्प को संसद की कार्रवाई पुस्तिका में बंद कर भूल गए सभी। प्राय: सभी बड़े- छोटे दल चुनावों में ऐसे कुपात्रों को उम्मीदवार बनाते रहे। क्यों? ये सभी संसद के अपराधी नही हैं? संसद व जनता के प्रति जबाबदेह पारित संकल्प के साक्षी जनप्रतिनिधि दंडित क्यों नहीं किए गए? संसद के संकल्प को मजाक बनानेवाले जनप्रतिनिधि संसद में आज भी मौजूद हैं तो कैसे? क्या ये जनता की सहनशीलता की परीक्षा ले रहे हैं? ऐसा नहीं होना चाहिए।
खैर, मूल मुद्दे पर! विधायिका में महिलाओं के आरक्षण पर उठे विवाद पर चर्चा हो रही थी। मैंने स्पष्ट कर दिया है कि योग्यता से मेरा आशय सुपात्र से था। महिलाएं 33 प्रतिशत क्या, 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक आएं स्वागत है। लेकिन उनमें स्वावलंबन व आत्मविश्वास का वह मिश्रण जरूरी है, जिसके बलबूते 'पर-निर्भरता' के आरोप से वे मुक्त रह सकें। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मजाक में ही सही महिलाओं की 'पर-निर्भरता' के कड़वे सच को रेखांकित कर दिया है। राज्यसभा में विधेयक के पारित होने के बाद उनकी इस टिप्पणी में कि, '...तब भी पुरूष ही हावी रहेंगे' में निहित संकेत को समझने में किसी को कठिनाई नहीं होगी। इस 'महिला सच' को दफनाए जाने की जरूरत है और यह तभी संभव होगा जब 'पर-निर्भरता' को आत्मनिर्भरता में बदल डाला जाए, जरूरत ऐसी ही सक्षम महिलाओं की है। योग्यता से मेरा आशय सिर्फ शैक्षणिक योग्यता नहीं है। बल्कि ऐसी महिलाओं से है जो स्वविवेक से फैसले ले सकें। परिवार के पुरूष सदस्यों के विचारों से ही वे संचालित न हों। पुरूष प्रधान समाज के वर्चस्व से मुक्त होकर ही राजनीति में प्रविष्ट महिलाएं राष्ट्रीय अपेक्षा की कसौटी पर खरी उतर सकेंगी। उन्हें इस कड़वे सच से बाहर निकलना होगा कि अधिकांश मामलों में पुरूष ही अब तक निर्वाचित महिला जनप्रतिधियों को संचालित करते रहे हैं।
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