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Sunday, March 21, 2010

राज्यसभा में मणिशंकर अय्यर!

लोकतंत्र और भारतीय संसद की गरिमा को धूल धूसरित किए जाने का सिलसिला लगता है थमने वाला नहीं। पीड़ा तब अधिक गहरी हो जाती है जब इस घोर आपत्तिजनक प्रक्रिया में राष्ट्रपति तक का नाम सामने आ जाता है। हालांकि इसके लिए दोषी सत्तापक्ष होता है। संसद के उच्च सदन राज्यसभा के लिए समाज के विशिष्ट क्षेत्रों यथा शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य, विधि, फिल्म, थियेटर, संगीत और सामाजिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान देनेवाली विभूतियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने का प्रावधान है। उच्च सदन की गरिमा में वृद्धि के लिए यह व्यवस्था है। लेकिन खेद है कि सत्तापक्ष की ओर से इस गरिमा के सीने पर कील ठोकने की कोशिशें की जाती रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी उसी षडय़ंत्र का अंग है जिसके तहत लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली और संसदीय गरिमा की अवमानना की जा रही है। लोकतंत्र में सर्वोच्च सदन की प्रतिष्ठा को चूर-चूर करने की कोशिशें की जा रही हैं। हमारे राष्ट्र निर्माताओं, संविधान निर्माताओं की कल्पना के लोकतांत्रिक भारत की स्वच्छता पर ऐसी कालिमा!
ताजा तरीन मामला एक पूर्णकालिक राजनीतिक का है। पिछले लोकसभा चुनाव में पराजित मणिशंकर अय्यर को राष्ट्रपति ने उपर्युक्त विशिष्ट वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में कैसे मनोनीत कर दिया? पिछले दरवाजे से संसद में घुसने का खेल तो पुराना है, जब लोकसभा चुनावों में जनता के द्वारा पराजित अर्थात्ï अस्वीकार कर दिए गए नेताओं को राज्यसभा का सदस्य बना दिया जाता है। बल्कि कई ऐसे पराजित लोग केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, उन्हें महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां दी गईं। लेकिन अय्यर का मामला आश्चर्यजनक है। अगर इन्हें राज्यसभा में लाना ही था तो तमिलनाडु में रिक्त होनेवाली सीट से कांग्रेस आसानी से उन्हें निर्वाचित करवा सकती थी। तमिलनाडु विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों की संख्या पर्याप्त है। यही नहीं, सहयोगी पार्टी डीएमके कांग्रेस के लिए एक और सीट छोडऩे के लिए तैयार हो गई है। अब सवाल कांग्रेस नेतृत्व से है कि जब अय्यर के गृहराज्य से वह राज्यसभा की दो सीटों पर आसानी से अपने उम्मीदवार को जीत दिला सकती है, तब उसने राष्ट्रपति का सहारा क्यों लिया? संवैधानिक प्रावधानों से छेड़छाड़ कर उसका मजाक क्यों उड़ाया? मणिशंकर अय्यर किसी दृष्टि से राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन हेतु आवश्यक पात्रता को पूरा नहीं करते। एक सांसद के रूप में उनकी उपयोगिता को मैं चुनौती नहीं दे रहा, लेकिन जब मतदाता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, तब राष्ट्रपति के द्वारा विशिष्ट पहचान देकर राज्यसभा में क्यों लाया गया? सत्ताधारी कांग्रेस नेतृत्व को क्या इस बात की जानकारी नहीं थी कि अय्यर को जिस रास्ते राज्यसभा में लाया गया, राजनीतिकों के लिए वह रास्ता बीस वर्ष पहले बंद कर दिया गया था। अय्यर सदृश राजनीतिकों को राष्ट्रपति की अनुकंपा से इसके पूर्व राज्यसभा में प्रवेश मिल चुका है। लेकिन बहुत पहले। मरागथम चंद्रशेखर को सन्ï 1970 और 1976 में तथा गुलाम रसूल कार को सन्ï 1984 में लाया गया था। इसके बाद सत्तापक्ष की ओर से जब भी राज्यसभा के लिए इस राह को अपनाने की कोशिश की गई, पूर्व के राष्ट्रपतियों ने आपत्तियां दर्ज करते हुए उसे अस्वीकार दिया था। फिर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सत्तापक्ष की नाजायज अनुशंसा को स्वीकार क्यों किया? अस्वीकार कर वापिस भेज देतीं तो देश की नजरों में निश्चय ही उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होती! ऐसा नहीं कर प्रतिभा पाटिल ने इस अवधारणा की पुष्टि कर दी कि राष्ट्रपति मात्र एक 'रबर स्टैंप' होते हैं।
निश्चय ही यह लोकतंत्र का अपमान है, संविधान की अवमानना है। राष्ट्रपति के अधिकार का शासकीय दुरुपयोग है। मणिशंकर अय्यर के अलावा अन्य जिन चार विभूतियों को राष्ट्रपति ने मनोनीत किया, वस्तुत: उनका भी अपमान हुआ है। क्योंकि वह सभी अपने-अपने क्षेत्रों की वास्तविक विभूतियां हैं।

1 comment:

Unknown said...

शर्म इनको मगर नही आती
क्या किया जाये. थू.....