न्यायालय के फैसलों पर राष्ट्रीय बहस बौद्धिकता में वृद्धि और जागरूक समाज को चिन्हित करती है। लेकिन जब फैसलों की गली-कूचों में लानत-मलानत होने लगे तब? न्याय के प्रति राष्ट्रीय संदेह को चिन्हित करता है, अस्वीकृति की आवाज बन जाता है। और चिन्हित करता है न्यायपालिका के पतन की शुरुआत को। यह अवस्था देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। कोई आश्चर्य नहीं कि समाज में एक भयावह अराजक स्थिति का आगाज हो चुका है। और ऐसा विवाहपूर्व यौन संबंधों पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के कारण।
सर्वोच्च न्यायालय की यह व्यवस्था कि विवाह के पूर्व सेक्स अपराध नहीं है और 'लीव इन' अर्थात् सहजीवन भी अपराध नहीं है, कानून की कसौटी पर भले ही न्यायसंगत लगे, समाज की कसौटी पर अनैतिक है, नाजायज है। इसके लिए अधिक तर्क की आवश्यकता नहीं। लिखित कानूनों से अलग परंपराओं को भारत सहित संसार की सभी अदालतों में मान्यता प्राप्त है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की फैसला-पूर्व कार्यवाही अनेक सवालों को जन्म देती है। अदालत ने जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हवाला देते हुए वकील से पूछा कि विवाहपूर्व सेक्स और सहजीवन कानून की किस धारा के अंतर्गत अपराध है? साथ रहना तो जीने का अधिकार है। शायद अदालत में तो समाधानकारक जवाब नहीं दिया गया, प्रतिप्रश्न भी नहीं पूछे गए, किंतु अदालत के बाहर असहज सवालों की झडिय़ां लग गई हैं। एक अत्यंत ही असहज किन्तु मौजूं सवाल यह पूछा गया कि फैसला देने वाले जजों की बेटियां अगर ऐसा करती हैं तो क्या उनका परिवार उन्हें स्वीकार करेगा? पूछा यह भी जा रहा है कि अगर विवाहपूर्व सेक्स कोई अपराध नहीं, कानून सम्मत है तब अगर विवाह में लड़कियां दहेज में बच्चे भी साथ लेकर आएंगी तो क्या उन्हें स्वीकार किया जाएगा? अनेक जटिल सवाल पूछे जा रहे हैं। आवेश में ही सही, फैसला देने वाले जजों को ऐसे सुझाव भी दिए जा रहे हैं कि फैसले को मूर्त रूप देने की शुरुआत वे अपने परिवार से करें। यह घोर आपत्तिजनक है, स्वीकारयोग्य नहीं, बावजूद इसके ऐसी स्वस्फुर्त प्रतिक्रियाएं नजरअंदाज नहीं की जा सकतीं। अदालत का यह तर्क कि भगवान कृष्ण और राधा भी साथ रहे थे, सिर्फ आपत्तिजनक ही नहीं, फैसला देने वाले जजों की काबिलियत पर सवालिया निशान चस्पा रही है। द्रौपदी के चीरहरण को भारतीय समाज कभी भी जायज नहीं ठहरा पाएगा। चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय आजमाकर देख ले। अदालत की अवमानना का खतरा मोल लेते हुए मैं इस टिप्पणी के लिए विवश हूं कि इस फैसले में कोई कुंठित मंशा तो निहीत नहीं है? कृष्ण और राधा को सेक्स पीडि़त युगल के समक्ष रखना रखना समाज के एक बड़े वर्ग की धार्मिक आस्था पर आघात है। क्या किसी धार्मिक आस्था पर चोट करना कानूनन अपराध नहीं है? यह समझ से परे है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशगण इस तथ्य को विस्मृत कैसे कर गए? आज कृष्ण-राधा के पवित्र प्रेम को, अनुराग को सेक्स आधारित बदचलनी से जोड़ा जा रहा है। भविष्य में शायद अदालतें राज दरबार में द्रौपदी के चीरहरण को उद्धृत कर सत्ता से लेकर सड़क तक महिलाओं के चीरहरण को जायज ठहरा दें। अदालतें तब शायद ऐसा तर्क दें कि महाभारतकालीन शासक धृतराष्ट्र के दरबार में जब सत्ता पक्ष के सदस्य दुर्योधन भरे दरबार में द्रौपदी के वस्त्र उतारने की कोशिश कर सकते हैं तब कलियुग के वर्तमान दौर में सत्ताधारी संसद से लेकर सड़क तक किसी महिला का चीरहरण करने के लिए स्वतंत्र क्यों नहीं रह सकते? समाजवादी नेता मुलायमसिंह यादव ने तो यह कह भी डाला कि महिला आरक्षण लागू होने के बाद उद्योगपतियों और नेताओं की पत्नियां लोकसभा और विधानसभा में पहुंचेंगी और लोग उन्हें देखकर सीटियां बजाएंगे। ध्यान रहे कुछ विधानसभाओं के अंदर साडिय़ा खोलने की घटनाएं हो चुकी हैं। सत्ता से जुड़े निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर जबरिया सेक्स के आरोप लगते रहे हैं। इन कारणों से हत्याएं भी हो चुकी हैं। अगर जब आज अदालत कृष्ण-राधा के नाम पर उच्छंृखल सेक्स को जायज ठहरा रही है तब कल होकर सड़कों पर, सार्वजनिक स्थलों पर सेक्स के भौंडे प्रदर्शन को कौन रोकेगा? सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को हम अस्वीकार करते हैं।
3 comments:
कृष्ण और राधा को सेक्स पीडि़त युगल के समक्ष रखना रखना समाज के एक बड़े वर्ग की धार्मिक आस्था पर आघात है। क्या किसी धार्मिक आस्था पर चोट करना कानूनन अपराध नहीं है?
बिल्कुल सही और पूरी तरह सहमत.. आपने बिल्कुल जायज तर्क दिये हैं.
समाज के खाए - पिए अघाए तथाकथित उच्च वर्ग की विकृत मानसिकता जिसे उन्होंने रोमांच की चाह में अपनाया था और भारतीय समाज में जिसे निम्न दृष्टि से देखा जाता रहा है उसे खोखले और उथले तर्कों बल्कि कुतर्कों के माध्यम से कानूनी जामा पहनाकर समाज में स्वीकार्यता दिलाने का प्रयास किया जा रहा है. वास्तव में यह उस विकृत परंपरा को नहीं वरन स्वयं उस जमात को स्वीकार्यता दिलाने का प्रयास है ठीक उसी तरह जैसे लोमड़ी की पूंछ कट गयी तो वह इस प्रयास में जुट गयी कि जंगल के सभी जानवर अपनी पूंछ कटा लें ताकि उसे "पूंछकटा" कहने वाला कोई न बचे.
इन विकृत परम्पराओं के दुष्परिणाम आज सारा यूरोपीय और अमेरिकी समाज महसूस कर रहा परन्तु यहाँ उलटी गंगा बहाने का प्रयास किया जा रहा है. पश्चिमी कचरे को भारत में "डंप" करने की साजिश हो रही है और आज यह कहना होगा कि न्याय व्यवस्था भी जाने-अनजाने इस साजिश में शामिल नजर आती है.
मुझे आपके लिखे हुए कुछ लेख अच्छे लगे थे किंतु में इस लेख और आपके कुतर्कों को पचा नहीं पा रहा हूं, भले ही उन्हें आपने दूसरों की प्रतिक्रिया के रूप में लिखा हो पर परोक्ष में तो आप उनका समर्थन कर रहे हैं इसलिए वे आपके भी तर्क हैं। अदालतें कानून के अनुसार फैसला देती हैं, और समाज में तो सगोत्र विवाह, अंतर्जातीय विवाह आदि भी स्वीकृत नहीं हैं। दूसरे विवाह में अनादि काल से महिलाएं बच्चे साथ लेकर आ रही हैं इसमें गलत क्या है। जिसे आपत्ति है वह ऐसा विवाह नहीं करे, किंतु जो स्वीकार कर रहा है उसकी स्वतंत्रता और कानूनी अधिकारों को बाधित क्यों किया जाना चाहिए? राधा कृष्ण भले ही ऐतिहासिक चरित्र नहीं हों किंतु जिस रूप में भी हैं वे समाज को स्वीकार रहे हैं, और अब इसमें पवित्रता अपवित्रता का भेद कैसे पैदा हो गया? कल के दिन लोग कहने लगेंगे कि सच बोलने का आदर्श तो पवित्र महापुरुषों का आदर्श था हमारा नहीं, जबकि हम कहते हुये नहीं थकते हैं कि महापुरुषों के पद चिन्हों पर चलो। लिव इन वाले केवल सेक्स पीड़ित युगल हैं और उनके बीच का प्रेम पवित्र नहीं है यह तथा कथित अज्ञात कुल शील तय करेंगे?
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