निडर-निष्पक्ष पत्रकारिता के पर्याय व प्रतीक चिन्ह बन चुके कुलदीप नैयर बेचैन हैं कि आखिर पत्रकार बिक क्यों गए? नेता बिक जाते हैं, अधिकारी बिक जाते हैं, एक सीमा में ही सही न्यायपालिका भी बिक जाती है, लेकिन पत्रकार क्यों? श्री नैयर की जिज्ञासा का जवाब पत्रकार बिरादरी को ही देना है। क्या कोई चेहरा सामने आएगा? संदिग्ध है क्योंकि ऐसे चेहरे के लिए बेदाग होने की शर्त जो है।
श्री नैयर एक नए मराठी दैनिक 'लोकशाही वार्ता' के लोकार्पण के लिए आज दिल्ली से नागपुर पहुंचे। रात्रि भोजन पर नए अखबार के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की उपस्थिति में चर्चा हो रही थी। पत्रकारिता के वर्तमान बिकाऊ व पराजित चेहरों की विशाल मौजूदगी से व्यथित नैयर ने पूछा कि आखिर क्यों बिक जाते हैं पत्रकार? कौन सा लालच उन्हें बाध्य कर देता है? अगर वे बिके नहीं, झुके नहीं तब शासन उनका क्या बिगाड़ लेगा? अधिक से अधिक सत्ता उन्हें विभिन्न समितियों में लाभदायी सदस्यता से वंचित रखेगी या फिर विदेश यात्राओं से दूर रखेगी। कुछ विशेष सुविधाओं से भी सरकार उन्हें मरहूम रख सकती है। इससे ज्यादा तो कुछ नहीं ! निडर लेखन से प्रभावित वर्ग नाराज हो सकता है, दंडित करने के लिए छोटे-मोटे हथकंडे भी अपना सकता है, किंतु निर्णायक रूप से प्रताडि़त नहीं कर सकता। आपातकाल की अवधि को छोड़ दें तो देश में स्वतंत्र लेखन की छूट है। ऐसी अवस्था में बिकाऊ पत्रकारों की मौजूदगी पीड़ादायक है।
मुझे आज याद आ रही है लगभग 18 वर्ष पूर्व के एक पत्रकारीय समारोह की। समारोह में श्री नैयर व अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के तत्कालीन संपादक एस. सहाय के साथ मंच पर अतिथि वक्ता के रूप में मैं भी मौजूद था। वह अवसर भी एक समाचार पत्र के विमोचन का था। अपने संबोधन श्री नैयर ने तब बड़ी ही पीड़ा के साथ कहा था कि ' आज अगर देश की दुर्दशा के लिए कोई जिम्मेदार है तो वे पालिटीशियंस हैं। मैंने इन पालिटीशियंस को बहुत नजदीक से नंगा देखा है।' तब मैंने अपने उद्बोधन में श्री नैयर के पीड़ा से सहमति तो जताई थी किंतु यह जोडऩे से स्वयं को नहीं रोक पाया था कि ' ... पालिटीशियंस के साथ-साथ पत्रकार भी देश की दुर्दशा के लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। मैंने भी पत्रकारों को बहुत नजदीक से नंगा देखा है।' आज जब इतने वर्षों बाद श्री नैयर बिकाऊ पत्रकारिता पर दु:खी दिखाई दे रहे हैं तब निश्चय ही इस बीच उन्होंने भी पत्रकारों को भी ' नंगा' देख लिया होगा। बिरादरी का वर्तमान सच यही है।
नए अखबार के प्रबंध संपादक प्रवीण महाजन और उनके वरिष्ठ संपादकीय सहयोगियों से श्री नैयर ने अपेक्षा जाहिर की कि वे खबरों के चयन व अग्रलेख आदि में पत्रकारीय मूल्य व पेशे की पवित्रता का ध्यान रखेंगे, उन्हें वरीयता देंगे। दबाव आएंगे, प्रलोभन दिए जाएंगे, किंतु इनसे बचकर ही पाठकीय अपेक्षाओं की पूर्ति की जा सकती है। आज शासन से अधिक बड़े व्यवसायी घराने समाचार-पत्रों को प्रभावित कर रहे हैं। विज्ञापन के हथियार से ऐसे घराने पत्र-पत्रिकाओं को झुकाने की कोशिशें कर रहे हैं। दु:खद रूप से संसद तक में प्रविष्ट 'धन-प्रभाव' के कारण इन घरानों के हौसले बढ़ रहे हैं। सरकारी नीतियों को यह वर्ग प्रभावित करने लगा है। ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है, जिसमें पत्र-पत्रकारों के पैरों में बेडिय़ां दिखने लगे। अब यह फैसला पत्रकारों को लेना है कि वे इन दबावों के सामने समर्पण की मुद्रा में आ जाएं या फिर दबाव-प्रलोभन-लालच के मकडज़ाल को काट पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ आदर्श प्रस्तुत करें। यह मुद्दा सिर्फ पत्रकारिता की गरिमा या पतन का ही नहीं है बल्कि संसदीय गरिमा व राष्ट्रीय अस्मिता का भी है। चुनौती है बिरादरी में मौजूद युवा-अनुभवी पत्रकारों को। आगे आएं वे। बिरादरी पर लग रहे कलंक को धो डालें-अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत कर। प्रलोभन को लात मारें, दबावों को झटक दें, लालच को दफना दें। बहुत आसान है यह। सिर्फ मन को समझाने की जरूरत है। जहां तक अन्य खतरों का सवाल है, निश्चय मानिए इस दिशा में ईमानदार पहल को आवश्यक सुरक्षा-कवच समाज अर्थात विशाल पाठक वर्ग मुहैय्या करा देगा।
3 comments:
क्यों साहब, पत्रकारो को क्यों गाड़ी, बंगला और कैश से महरूम रखना चाहते हैं. वैसे कैश नहीं तो काईन्ड सही. और फिर पार्टी विशेष से प्रभावित हो कर लिखना किस श्रेणी में आयेगा
क्यों साहब, पत्रकारो को क्यों गाड़ी, बंगला और कैश से महरूम रखना चाहते हैं. वैसे कैश नहीं तो काईन्ड सही. और फिर पार्टी विशेष से प्रभावित हो कर लिखना किस श्रेणी में आयेगा?
चिंता वाजिब है. पहले अंग्रेजी के अखबार ऐसी घिनौती हरकत करते थे. अब देशी अखबार भी करने लगे हैं- भ्रष्टाचार ऊपर-ऊपर हो तो ठीक है, लेकिन नीचे तक फैल जाए तो चिंता होगी ही.
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