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Thursday, December 17, 2009

न्यायपालिका, विधायिका और न्याय

इन तीन शब्दों के उच्चारण के साथ स्वत: एक अतुलनीय पवित्रता का एहसास होता है। विशेषकर न्यायपालिका और न्याय के साथ। किसी भी लोकतांत्रिक देश की नींव इनकी पवित्रता और मजबूती से ही सुरक्षित रह सकती है। न्यायपालिका को 'न्यायमंदिर' और न्यायाधीश को 'भगवान' मानते हैं लोग। ऐसे में जब ये 'भगवान' भी कटघरे में दिखने लगे तब? हमारे संविधान में ऐसे भगवानों को दंडित करने का अधिकार विधायिका अर्थात संसद को प्राप्त है। संसद की सर्वोच्चता यहीं चिन्हित होती है। लेकिन, जब 'न्याय' के साथ न्याय करने वाली विधायिका संदिग्ध दिखे? कहते हैं उनका फैसला, ऐसी स्थिति में, देश की सर्वोच्च अदालत 'जन-अदालत' कर देती है। लेकिन, वह तो बाद की बातें हैं। फिलहाल लोग-बाग बहस कर रहे हैं कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनकरन के खिलाफ महाभियोग को लेकर। भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों से घिरे न्यायमूर्ति दिनकरन के खिलाफ सांसदों ने संसद में महाभियोग का नोटिस दे दिया है, कार्रवाई संबंधी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लेकिन, स्वाभाविक शंका यह कि न्यायिक सक्रियता के बाद विधायिका की इस सक्रियता का हश्र क्या होगा? कहीं 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ संसद में प्रस्तुत महाभियोग के हश्र की तरह न्यायमूर्ति दिनकरन का मामला भी टांय टांय फिस्स होकर तो नहीं रह जाएगा। रामास्वामी के खिलाफ तब भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। सांसद उन्हें दंडित करना चाहते थे। लेकिन, राजनीति के पनाले ने विधायिका को बदरंग कर डाला। दलीय आधार पर सांसद विभाजित हो गए। सत्तापक्ष अर्थात् कांग्रेस के सांसद महाभियोग पर मत विभाजन के समय अनुपस्थित रह गए। संसद महाभियोग पारित नहीं कर सकी। तब टिप्पणियां की गईं थीं कि रामास्वामी कांग्रेस नेतृत्व के दुलारे हैं। विधायिका पर एक बार फिर संदेह और कर्तव्यहीनता का लेबल चिपक गया। तब संसदीय लोकतंत्र अपनी असहायता पर बिलख उठा था। बात वहीं खत्म नहीं हुई। अभी पिछले वर्ष ही भारत के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस. सेन के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी। इसे यूं समझें कि सर्वोच्च न्याय मंदिर का मुख्य पुजारी अपने एक संदिग्ध पुजारी को दंडित करना चाहता था। भारतीय संसद के 58 सांसदों ने भी न्यायमूर्ति सेन को हटाने की सिफारिश की थी। अभी तक कुछ नहीं हो पाया। आरोपों की जांच के लिए गठित 3 सदस्यीय पैनल अभी तक अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाया है। यह कैसा संविधान, कैसा कानून और कैसा लोकतंत्र कि आरोपों के समर्थन में पर्याप्त सबूत होने के बावजूद न्याय मंदिर असहाय की अवस्था में दिखता है। राजनीति प्रभावित विधायिका ऐसे आरोपियों को सुरक्षा कवच उपलब्ध करा देती है। तो क्या, देश इन हथकंडों के सामने नतमस्तक हो, इन्हें मनमानी करने की छूट दे दे। स्वाभाविक उत्तर 'ना' तो मिलेगा किंतु निराकरण के उपाय तो ढूंढने ही होंगे। उचित तो यही होगा कि इस दिशा में स्वयं न्यायपालिका पहल करे। उनकी ईमानदार सक्रियता विधायिका को आत्म चिंतन के लिए मजबूर कर देगी।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

सही समय पर सही फैसला ना लेना....मामलो को लटकाना.....यह अब हमारी परम्परा बन चुकी है....और सभी जानते हैं इस परम्परा का बीज किसने बोया है.....