Thursday, March 11, 2010
योग्यता की कीमत पर आरक्षण कितना उचित
क्या योग्यता कभी किसी आरक्षण की मोहताज रही है? जवाब दोहराना ही होगा 'कदापि नहीं'! फिर आरक्षण दर आरक्षण का घंटानाद क्यों? कोई अन्यथा न ले। मैं महिला या महिला आरक्षण विरोधी नहीं हूं। हां, योग्यता की कीमत पर किसी भी आरक्षण को मैं उचित नहीं मानता। सिर्फ जाति या लिंग के आधार पर आरक्षण राष्ट्रीय सोच का अपमान है, उसकी अवमानना है। चूंकि विधायिका में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में राज्यसभा विधेयक पारित कर चुकी है, इस बहस ने जन्म लिया है। जिस दिन योग्यता अपात्रों के समक्ष नतमस्तक हो हाशिये पर चली जायेगी, उस दिन देश अराजकता में गुम हो जायेगा। महिला आरक्षण विधेयक को पेश कर पारित कराने का समय भी एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा कर रहा है। और वह है जनता के प्रति जवाबदेही का। अभी सांसदों के कार्यकाल का 4 साल शेष है। उदाहरण के लिए अगर कोई क्षेत्र महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाता है तब वहां का वर्तमान पुरुष सांसद क्या अपने शेष कार्यकाल में क्षेत्र के विकास के लिए कुछ कर पाएगा? यह संदिग्ध है। क्योंकि अगली बार क्षेत्र विशेष से उसे चुनाव नहीं लडऩा होगा। नतीजतन जवाबदेही से मुक्त होकर निश्चय ही वह निज स्वार्थपूर्ति करने लगेगा। क्योंकि अगले चुनाव जनता को जवाब देने के लिए वह उपलब्ध नहीं रहेगा। अव्वल तो मैं साफ साफ कह दूं कि महिला आरक्षण के पक्ष में भोंपू बजाने वाले, इतिहास रचने का शंखनाद करने वाले, एक स्वप्न को साक्षात करने का नारा बुलंद करनेवाले, स्त्री सशक्तिकरण पर लंबे-चौड़े भाषण देने वाले, अधिकांश लोगों ने मुंह पर मुखौटा धारण कर रखा है। राजनीति और सिर्फ वोट की राजनीति के लिए यह बढ़ चढ़ कर महिला भक्त बन रहे हैं। इनके दिल का चोर इसी स्वार्थ के कारण बाहर नहीं निकल पा रहा है। अगर ये सचमुच महिला उत्थान चाहते हैं, सत्ता में इनकी भागीदारी चाहते हैं तो मैं इनसे जानना चाहूंगा कि आजादी के पश्चात पिछले छ: दशकों में महिलाओं के उत्थान के लिए इन्होंने क्या किया? सभी उपलब्ध अवसरों पर कुंडली मार बैठे इन लोगों ने क्या इस आधी आबादी को पनपने का मौका दिया? भारतीय मतदाता सूची में 44 प्रतिशत महिला मतदाता होने के बावजूद संसद सहित अन्य विधान मंडलों में महिलाओं की उपस्थिति मात्र 11 प्रतिशत क्यों है? घोर रूढि़वादी मुस्लिम पाकिस्तान की विधायिका में महिलाओं की संख्या हमसे दोगुनी यानी 22 प्रतिशत है। महिलाओं को 33 प्रतिशत क्या मतदाता अनुपात के आधार पर 44 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिले, मुझे खुशी होगी, लेकिन शर्त वही, योग्यता! इस बिंदू पर यह पूछा जा सकता है कि क्या विधायिका में मौजूद सभी पुरूष सदस्य योग्य हैं? बिल्कुल नहीं! अधिकतर अयोग्य हैं, अपराधिक पाश्र्व के हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि महिलाओं के लिए भी पुरूषों वाली सीढिय़ां उपलब्ध करवाई जायें। अगर इतिहास रचा जा रहा है, क्रांति का आगाज किया जा रहा है तब क्यों नहीं इसका रूख योग्यता की ओर मोड़ दिया जाए? आरक्षण करना चाहते हैं, तो पहल कीजिये, शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के लिये अनुपातिक आरक्षण करें। इस आधी आबादी को पूर्णत: शिक्षित होने दें। इन्हें स्कूल कॉलेज की शिक्षा नि:शुल्क दें। पुस्तकें मुफ्त में दें। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप सरकार इन खर्चोे का वहन करे और पचास प्रतिशत नौकरियाँ महिलाओं के लिये आरक्षित करें। शिक्षित हो स्वावलंबी बनने का इनका मार्ग प्रशस्त होगा। आत्मविश्वास जागेगा इनमें, विधायिका के दरवाजे स्वत: खुल जायेंगे। योग्यता इनके लिये मार्ग प्रशस्त करेगी। वैसे दक्षिण एशिया के अनेक देश विधायिका में महिलाओं की मौजूदगी के मामले में संसार में सबसे आगे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के 223 वर्षों के इतिहास में आज तक कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकीं। वहाँ राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में हिलेरी क्लिंटन ने दावा पेश किया किंतु अमेरिका के कथित सभ्य शिक्षित समाज ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। इंग्लैंड के इतिहास में एक बार मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनीं, किंतु वह एक अपवाद ही रहीं! जबकि हमारे इस क्षेत्र में रजिया सुल्तान से लेकर अब तक अनेक चेहरे सामने आते रहे। श्रीलंका में सर्वप्रथम श्रीमावो भंडारनायके पहली महिला राष्ट्रध्यक्ष बनीं, बाद में चंद्रिका कुमारतुंगा राष्ट्राध्यक्ष बनीं, इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनीं, कट्टर इस्लामिक देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहीं, एक अन्य मुस्लिम बांग्लादेश में शेख हसीना प्रधानमंत्री हैं और मुख्य विपक्ष दल की नेता खालिदा जिया हैं। खालिदा वहाँ प्रधानमंत्री भी रह चुकी हैं। वर्तमान भारत में सत्तारूढ़ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, तो लोकसभा में विपक्ष की नेता एक अन्य महिला सुषमा स्वराज हैं। सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर प्रतिभा पाटील के रूप में एक योग्य महिला आसीन हैं। क्या यह बताने की जरूरत है कि सफलता के इन पायदानों को इन विभूतियों ने आरक्षण के सहारे नहीं बल्कि योग्यता के सहारे पार किया है।महत्वपूर्ण योग्यता ही है। योग्यता को हाशिये पर रख किन्हीं अन्य कारणों से सत्ता पर कब्जा करने की होड़ में जयललिता, मायावती, राबड़ी देवी आदि के दर्दनाक उदय की परिणति सामने है। इनके शासन की संदिग्ध क्षमता और भ्रष्टाचार के कारनामों से पूरा देश परिचित है। फैसला जनता को करना होगा कि उन्हें महिला नेता के रूप में कुशल, योग्य चेहरे चाहिए या राबड़ीयों की फौज! यहाँ फिर पूछा जा सकता है कि भ्रष्ट तो पुरूष नेता भी रहे हैं, जवाब वही कि हाँ, रहे हैं और हैं भी, किंतु देश शासक के रूप में किसी महिला के माथे पर कलंक का टीका नहीं देखना चाहेगा। हमारे देश में नारी को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है, विद्या की देवी सरस्वती हैं, धन की देवी लक्ष्मी हैं और शक्ति की देवी दुर्गा। अर्थात विद्या, धन और शक्ति तीनों की स्त्रोत नारी ही है, संसार में कहीं भी नारी को ऐसा स्थान नहीं है।
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9 comments:
Do you think that All male MPs and MLAs are the best qualified candidates in our country. Is there any standard for them?
Do you also believe that you can not find 300 qualified women in India out of 1.5 billion population?
What qualification do you have in mind which a women is suppose to have so that she can be as qualified as Lalu, Mulaayam and Mayavati?
जब धर्म और जाति के आधार पर रिजरवेशन किया जाता है तब तो कोई मुंह नहीं खोलता. ताज़्ज़ुब तो इस बात का हो रहा है कि कुछ लोग नारी रिजरवेशन पर ऐसे हो-हल्ला मचा रहे हैं जैसे इस रिजरवेशन के बाद भारत तबाह हो जाएगा. याद कीजिए लालू और मुलायम सिंह यादव की वे पंक्तियां-"यह सब गरीबों को खत्म करने की साज़िश हो रही है. लोक तंत्र खत्म करने की तैयारियां हो रही हैं. हम यह सब नहीं होने देंगे."
क्या यही है हमारे नेताओं का चरित्र?
हिन्दुओं की सभी जातियों को उनकी संख्या के आधार पर आरक्षित कर दिया जाये... महिलाओं को भी दिया जाये और केवल दस प्रतिशत अनारक्षित छोड़ी जायें...
मैं तो यह भी कहता हूं कि फौज और न्यायपालिका में जहां जहां पर नहीं है वहां भी किया जाये.
आरक्षण ने इस देश को गर्त में धकेल दिया है. आज ही किसी ब्लॉग में में पढ़ा की लखनऊ में होली के दिन ४ बच्चों को माया के पोस्टर पर कालिख पोतने के मामले में हिरासत में लिया गया. उन पर दलित एक्ट और सरकारी काम में अडंगा डालने का आरोप लगाया है. ये लालू मुल्लू और मायावती देश की लुटिया पूरी तरह से डुबोने में लगे है और जाँत पांत के चलते गंवार देश की जनता इनके साथ अपना और अपने आने वाली पीढियों का भविष्य अंधकारमय करने में तुली हुई है.
यही तो दर्द है उन लोगों का, जो दलित, पिछ्ड़े, अल्पसंख्यक आदि नहीं हैं. अरे! दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के नाम पर कब तक उन लोगों का हक मारा जाता रहेगा, जो प्रतिभाशाली तो हैं किंतु वे उच्च जाति में पैदा हुए हैं. वाह रे लोकतंत्र में वोट बैंक की महिमा! हमारे देश के महान नेताओं को केवल दलित, पिछ्ड़े, अल्पसंख्यक दिखाई देते हैं, सामान्य वर्ग के लोग नहीं.
और हमारी मज़बूरी तो देखिए, हमारे पास इन नेताओं को ढोने के सिवाय और कोई चारा नहीं है.
हमारा भी यही मानना है कि हर तरह का रिजर्वेशन समाप्त कर दिया जाना चाहिए.
यह भी किया जा सकता है कि जिन परिवारों में रिजर्वेशन का लाभ मिल चुका है, उन्हें भविष्य में यह लाभ नहीं मिलना चाहिए. लेकिन ऐसा करेगा कौन? ऐसे नेता आएंगे कहां से? हमें तो यह लगता है कि ऐसे नेताओं को मंगल ग्रह पर जाकर ढूंढना पड़ेगा, लेकिन साथ ही भय भी लगता है कि कहीं कुछ नेता मंगल ग्रह पर जाकर न बैठ गए हों.
इन हाद्सों से सबक कौन लेगा? संत, संन्यासी, नेता या सरकार?
४ मार्च २०१० को इलैक्ट्रानिक समाचार माध्यमों द्वारा पता चला कि उत्तर प्रदेश के मनगढ़ (प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग ६० किलोमीटर दूर) में कॄपालु महाराज की दिवंगत पत्नी (पदमा) की बरसी पर आश्रम में एक विशाल भंडारे का आयोजन किया गया था, जिसमें आसपास के हज़ारों लोग जुटे थे. इस विशाल भंडारे के लिए विशाल स्तर पर प्रचार किया गया था, जिसमें इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया था कि आने वाले लोगों को एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए भी मिलेंगे.
इस प्रचार का व्यापक असर पड़ा. आसपास के अलावा दूरदराज़ के हज़ारों गरीब लोग (महिलाएं बच्चे, बूढ़े सभी शामिल) यह घोषणा सुनकर इस भंडारे में इस आशा में चले आए थे कि चलो एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए मिलेंगे. लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि इस भंडारे उपहार नहीं बल्कि मौत बड़ी बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही है.
अब जब यह ह्र्दयविदारक दुर्घटना घट चुकी है तो आधिकारिक सूत्रों द्वारा सूचना मिल रही है कि कम से कम साठ-सत्तर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तथा सैकड़ों राज्य के विभिन्न सरकारी तथा निज़ी अस्पतालों में बुरी तरह घायल पड़े हैं. घर से चलते समय उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं रहा होगा कि थोड़े से लालच में आकर वे लोग एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंसने जा रहे हैं. मरने वालों को यह नहीं पता था कि शायद यह उनकी अंतिम यात्रा है.
अब जब इतनी भारी दुर्घटना घट चुकी है तो राज्य सरकार, केन्द्र सरकार, सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, जिला प्रशासन एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं. एक दो दिनों में सभी दलों के नेता घड़ियाली आंसू बहाते हुए वहां चले आएंगे और अपनी राजनीतिक रोटियां सेकेंगे. कुछ नेता (शासक तथा विरोधी दल) प्रभावित लोगों के घरों में भी जाएंगे तथा मदद की फर्ज़ी घोषणाएं भी करेंगे. इस बीच कुछ दलालों की मौज़ आ जाएगी. वे फर्ज़ी लोगों को राहत राशि दिला देंगे और जो इस राहत राशि अथवा सहायता के वास्तविक हकदार हैं, वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे. सरकारी सहायता के इस सरकारी मेले में कुछ सरकारी अधिकारियों की भी मौज़ आ जाएगी.
आज किसी नेता, प्रशासक, मंत्री, पुलिस अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता में इतनी हिम्मत नहीं है कि जब कॄपालु महाराज लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं (शायद जब यह लेख लिखा जा रहा है, तब भी वह कहीं पर उपदेश दे रहे होंगे), उनसे सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को त्यागने का आह्वान करते हैं. फिर उन्होंने अपनी पत्नी की बरसी में इतना विशाल आयोजन करके अपने भक्तों को कौन-सा सन्देश दिया? क्या उनके खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग है? क्या उन्होंने इतने बड़े कार्यक्रम को संभालने के लिए अपनी ओर से कोई प्रबंध किए थे? यदि नहीं, तो वह आगे आकर अपनी गलती क्यों नहीं स्वीकारते? क्या अपनी गलती स्वीकार करने पर वे छोटे हो जाएंगे? यदि नहीं, तो फिर क्या उनमें इतना साहस है कि वे आगे बढ़्कर इतनी बड़ी दुर्घटना के लिए स्वयं की ज़िम्मेदारी लें.
क्या सरकार में इतनी हिम्मत है कि वह इस दुर्घटना को मात्र एक दुर्घटना न मानकर कॄपालु महाराज तथा उनके प्रबंधन को ज़िम्मेदार मानते हुए उन्हें गिरफ्तार करे? उनके विरुद्ध गैर इराद्तन हत्या का मुकदमा कायम करे जिससे आने वाले समय में यह एक उदाहरण बने.
क्या लोगों, विशेषकर, कॄपालु महाराज के भक्तों में इतना साहस है कि वे कॄपालु महाराज से यह प्रश्न करें कि यदि आप जैसे विद्वान लोग भी ऐसे प्रपंच करेंगे तो आम आदमी (विशेषरूप से आपके भक्त) तो बरसी जैसे आयोजनों पर होने वाले अंधाधुंध खर्च किस प्रकार रोक सकेगा?
धार्मिक महापुरुषों से यह आशा की जाती है कि वे आगे बढ़कर समाज के सामने अच्छे-अच्छे आदर्श रखें, जिससे सामाजिक बुराइयों (कट्टरता, कूपमंडता, कर्म कान्डों आदि) को रोकने की दिशा में कार्य किए जा सकें, किन्तु यहां तो धार्मिक महापुरषों द्वारा ही मूढों जैसा व्यवहार किया जा रहा है. क्या इन साधुओं, संन्यासियों, बाबाओं, महामंड्लेश्वरों आदि में इतना साहस है कि ये अपने दिल पर हाथ रखकर ऐसा कह सकें-"हमें अपने जीवन में सादगी, ईमानदारी, सच्चाई को अपनाना चाहिए. क्योंकि ये गुण मनुष्यता की निशानी हैं."
जब देश के सबसे बड़े प्रांत (उत्तर प्रदेश) में लोग बिज़ली, पानी, सड़क, कानून व्यवस्था से जूझ रहे हों, ऐसे में कुछ लोग उस प्रदेश की मुख्यमंत्री को नोटों की माला पहनाने में ही अपना कल्याण समझ रहे हैं. कमाल की बात तो यह है कि प्रदेश की मुख्यमंत्री भी सार्वजनिक रूप से करोड़ों की माला स्वीकार करने में नहीं हिचक रही. यह तो है सत्ता दल का हाल.
अब देखिए विरोधी दलों का हाल- हर दल चिल्ला रहा है कि यह गलत हुआ. बिल्कुल ठीक है कि यह बात गलत है, लेकिन जब दूसरे दल सत्ता में आए तो वे भी यही सब करते थे. समस्या जनता को है और उसकी समस्या कोई नहीं सुनना चाहता. न सत्ता दल और न ही विरोधी दल. सब अपनी-अपनी जुगत में लगे हुए हैं.
यह कहना पूरी तरह सत्य नहीं है कि पेड न्यूज़ के आने से केवल पैसे वाला ही खबर दिखा सकेगा. यह तो आज भी हो रहा है. पत्रकार आते हैं, न्यूज़ लेते हैं, फोटो खींचते हैं और चले जाते हैं. बाद में पता चलता है कि संबंधित न्यूज़ छ्पी ही नहीं. खासकर कारखानों में हो रहे अत्याचारों की न्यूज़ में. इन स्थानों में केवल मालिकों के हित में न्यूज़ छाप दी जाती है. मेरठ में ट्रेड यूनियन से जुड़ने पर इस सच्चाई का मुझे पता चला. आज भी न्यूज़ में पेड न्यूज़ वाली पोजिशन है. न्यूज़ या तो पैसे वाले की छपती है या नेता टाइप लोगों की. बाकी लोग तो खाली न्यूज़ वालों की दया पर निर्भर हैं.
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