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Tuesday, October 6, 2009

नहीं! राहुलजी, आप सिर्फ पोते नहीं!

राहुल गांधी फिर चूक कर बैठे। देश और कांग्रेस के इतिहास का या तो इन्हें ज्ञान नहीं या फिर ये देश की पूरी जनता को अज्ञानी मान बैठे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी उत्तरप्रदेश में अपने जनसंपर्क अभियान के दौरान यह कदापि नहीं कहते कि ''...मेरा परिवार एक बार जो ठान लेता है उसे पूरा करके ही छोड़ता है। यह मत भूलिए कि मैं इंदिरा गांधी का पोता हूं।ÓÓ इन शब्दों को उछालकर आखिर राहुल गांधी देश को क्या संदेश देना चाहते हैं? यह ठीक है कि इंदिरा गांधी ने देश को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान किया था। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत को एक सम्मानजनक स्थान दिलवाया था। भारत की छवि एक शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित की थी किंतु, सच यह भी है कि उन्हीं के शासनकाल में देश में आपातकाल की आड़ में भारत की जनता को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। आजाद भारत के हजारों नागरिकों को जेल की सींखचों के पीछे धकेल दिया गया था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शिरकत करने वाले अनेक नेताओं, कलम के धनी लेखकों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों को भी महीनों जेलों में ठूंस दिया गया था। विधायिका और कार्यपालिका को तो छोडि़ए न्यायपालिका तक को उनकी औकात बताने की कोशिशें भी उस काल में की गईं थीं। आजाद भारत का लोकतंत्र तब मातम का स्याह चादर ओढ़ सिसकने को मजबूर था। यह सब इतिहास में दर्ज है। दर्ज यह भी है कि जब 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने टी.टी. कृष्णमाचारी को मंत्रिमंडल से हटा दिया था, तब इंदिरा गांधी ने टिप्पणी की थी ''...अब शायद मुझे भी अमेरिकी दबाव में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा।ÓÓ इंदिरा गांधी तब शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना मंत्री थें। यही नहीं, तब उन्होंने अपने विश्वस्त राजा दिनेशसिंह से यह मालूम करने के लिए कहा था कि इंग्लैंड में रहने पर क्या खर्च आएगा। जानकारी मिलने पर उन्होंने टिप्पणी की थी कि पिता जवाहरलाल नेहरू की पुस्तकों की रायल्टी से वह इंग्लैंड में वह अपने खर्च की व्यवस्था कर लेंगी। साफ है कि तब इंदिरा गांधी देश छोडऩे का मन बना रही थीं। राहुल गांधी को अगर इन बातों की जानकारी नहीं है तब वे प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक 'द स्कूपÓ के पन्नों को पलट लें। किसी व्यक्ति विशेष का उद्धरण देने के पूर्व उसके इतिहास, उसके पाश्र्व, उसके चरित्र की जानकारी अवश्य हासिल कर लेना चाहिए। मैं इस बिंदु पर स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि इंदिरा गांधी के इस पाश्र्व का उल्लेख करने के पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। राहुल गांधी ने उप्र और हिंदुस्तान की तस्वीर बदलने की ठान ली है, यह अच्छी बात है। जातिय और धर्म से पृथक 'एक हिंदुस्तानÓ के पक्ष में बातें कर राहुल गांधी ने युवा पीढ़ी को एक निश्चित मार्ग दिखाया है। यह सराहनीय है, अनुकरणीय है। किंतु, अगर वे सचमुच जाति-धर्म, दल-परिवार से पृथक ईमानदारी से हिंदुस्तान अर्थात् भारत की तस्वीर बदलना चाहते हैं, तब उन्हें परिवार का मोह छोडऩा पड़ेगा। वे यह न भूलें कि हिंदुस्तान की संवेदनशील जनता 'मैंÓ के अहम् को बर्दाश्त नहीं करती। उप्र के पिछले विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान जब उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस की चर्चा करते हुए यह कह डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो मस्जिद नहीं गिरती, तब उप्र की जनता ने कांग्रेस को पराजित कर उन्हें उत्तर दे दिया था। लोकतंत्र सामूहिक नेतृत्व का आग्रही होता है, व्यक्तिवादी नेतृत्व का नहीं। राहुल गांधी के सलाहकार (अगर हैं) इस बात की गांठ बांध लें और राहुल भी यह समझ लें कि अगर वे इंदिराजी के पोते के रूप में स्थापित होना चाहते हैं तब उन्हें इंदिराजी के जीवन के उन अंशों को आत्मसात् करना चाहिए जो एक कुशल समर्पित राजनेता एवं शासक के रूप में चिन्हित हैं। सत्ता-सुख के लिए लोकतंत्र विरोधी कृत्य की अपराधी इंदिरा गांधी के जीवन के स्याह अंशों को राहुल एक सीख के रुप में याद रखें। अन्यथा, इंदिरा गांधी के पोते के रूप में राष्ट्रीय स्वीकृति कठिन होगी।

2 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत सटीक और १०० टके की बात कह दी आपने, आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ ! राहुल यदि वाकई एक देश का आइकोन बनने की हिम्मत रखते है तो नेहरु और गांधी वाला टैग उतारकर अपने बलबूते आगे बढ़कर दिखाए ! और नहीं तो जो दूरदर्शिता उनकी दादी स्वर्गीय श्रीमती गांधी में थी, कम से कम उसे तो अनुसरण सही मायने में करे!

SP Dubey said...

यदि अपने "स्वयं" के लिए अपने श्रम से कमाकर रोटी,कपडा,मकान की व्यवस्था कर ले फ़िर समाज सेवा देश सेवा करें तब समझ आएगा सेवा क्या होती है। यह बात अधिकांसत: समाज सेवक और राजनितिग्यो पर भी लागू होती है।
यह टिप्पणी लेख के विषय से हट कर है फ़िर भी……