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Wednesday, October 21, 2009

लोकशाही की आड़ में राजशाही!

लोकतंत्र की बखिया उधेडऩे वाले हाथ जब 'लोक' का गला दबाते दिखें तब इस पर कोई करेगा विलाप? हर दिन, हर पल ऐसे दृश्य से रूबरू होने वालों पर अब कोई असर नहीं पड़ता है। हां, कुछ एक दुखी मन अवश्य किसी कोने में अवतरित होते रहते हैं। किन्तु ये किसी अंधेरे कोने में चुपचाप थोड़ी देर सिसकियां ले मौन हो जाते हैं। इनकी नगण्य संख्या बेचैन करने वाली है। लोकतंत्र के अंधकारमय भविष्य के लिए यह खतरनाक पूर्व संकेत है। दिल तो तब चाख-चाख हो जाता है जब लोकतंत्र के नाम पर निर्वाचित ये लोग सीने पर 'जनप्रतिनिधि' का तमगा लगा शासक बन लोकतंत्र के साथ जबरदस्ती करते दिखते हैं। इनसे पछतावे और शर्म की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। हां, उनसे यह अनुरोध जरूर है कि जब बेशर्म बन ही गए हैं तब कम से कम ये शासक 'लोक' शब्द को अपनी जुबां पर नहीं लाएं। लेकिन ये लोकतंत्र ही तो है जिसका जाप कर शासक जनता को मूर्ख बनाते रहते हैं। फिर भला ये इसका त्याग कैसे करेंगे?
ताजा प्रसंग केंद्रीय सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की ओर से ऐसे ही एक बेशर्म प्रदर्शन का है। यह वही कांग्रेस दल है जिसने देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव रखी। यह वही कांग्रेस दल है जो आज भी स्वयं को देश का अभिभावक दल प्रतिपादित कर मुदित होता रहता है, लोकतांत्रिक पायों को मजबूती प्रदान कर सुरक्षित रखने की कसमें खाता रहता है। फिर घोर लोकतांत्रिक प्रणाली विरोधी आचरण क्यों? महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में पुन: वापसी का दावा करने वाले कांग्रेस दल में मुख्यमंत्री पद को लेकर आपाधापी मची है। अनेक दावेदार पैदा हो गए हैं। नामों को लेकर मीडिया में कयास का दौर जारी है। ऐसे में पार्टी के वकील प्रवक्ता मनु सिंघवी घोषणा करते हैं कि मुख्यमंत्री का चयन कांग्रेस आलाकमान अर्थात सोनिया गांधी करेंगी। क्यों? मुख्यमंत्री बहुमत प्राप्त पार्टी के विधायक दल का नेता बनता है। लोकतांत्रिक प्रणाली का तकाजा है कि विधायक दल स्वयं अपने नेता का चयन करे। अर्थात निर्वाचित विधायक नेता तय करें। फिर ऐसा क्यों कि आलाकमान अपनी पसंद से किसी को नामित करें। क्या यह लोकतांत्रिक भावना-परंपरा का अनादर नहीं? अभिभावक से तो अनुकरणीय आदर्श रखे जाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन इस संबंध में कांग्रेस की नीति-प्रणाली लोकशाही के विपरीत राजशाही के सदृश है। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं किन्तु पड़ोसी आंध्रप्रदेश का उदाहरण अभी ताजा है। वहां के मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की दुर्घटना में आकस्मिक मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल के लगभग सभी सदस्य, राज्य के कांग्रेस सांसद और मंत्रियों की आम राय के बावजूद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी मुख्यमंत्री बनते नहीं दिख रहे हैं। कहां गया आम सहमति का सिद्धांत? महाराष्ट्र में भी ऐसा ही कुछ होगा। दिल्ली में बैठी कांग्रेस नेतृत्व अपनी 'पसंद' के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देंगी। चाहे विधायक दल के सदस्यों का बहुमत उस व्यक्ति के खिलाफ ही क्यों न हो? पार्टी कह सकती है कि यह उनका आंतरिक मामला है। यह ठीक है। लोग तो सिर्फ यही चाहते हैं कि लोकतांत्रिक प्रणाली के नाम पर व्यक्ति विशेष की पसंद को थोपने की परंपरा न चलाएं। पार्टी घोषणा कर दे कि हमने लोकशाही नहीं राजशाही का वरण कर लिया है। ऐसे में 'प्रणाली' पर अंतिम फैसला जनता स्वयं कर देगी।

1 comment:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

ये तो घोषित ही है की कांग्रेस एक परिवार की पार्टी है | और उसी परिवार की जू हजुरी जो करेगा वही गद्दी पे बैठेगा |

अब हम आप यदि कांग्रेस से लोकतांत्रिक व्यवस्था की आशा करें तो ये हमारा आपका बचकानापन है |