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Saturday, October 24, 2009

भुजबल के सपने का निहितार्थ !

महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस के कद्दावर नेता और उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल की बातों को 'मुंगेरीलाल का हसीन सपना' समझने की भूल कोई ना करे। वे जब जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर मुख्यमंत्री पद कांग्रेस के साथ ढाई-ढाई साल बांटने की बात कर रहे हैं तब निश्चय जानिये कि यह सिर्फ भुजबल की अपनी सोच नहीं है। फिर राकांपा के दूसरे कद्दावर नेता केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने भुजबल की बात को खारिज कैसे कर दिया? क्या यह दो नेताओं के बीच का 'मतभेद' है? तर्क की कसौटी पर यह आकलन सटीक नहीं बैठता। पटेल का यह कहना कि चुनाव पूर्व करार के आधार पर महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री कांग्रेस का ही बनेगा, गले के नीचे उतरने वाला नहीं है। ऐसे किसी करार की जानकारी न तो कांग्रेस ने और न ही राकांपा ने कभी दी थी। 'जिस पार्टी के अधिक विधायक, उस पार्टी का मुख्यमंत्री' के फार्मूले की जानकारी ही अब तक लोगों को थी। हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में राकांपा को कांग्रेस से अधिक सीटें मिलने के बावजूद उसे मुख्यमंत्री पद नहीं दिया गया। तब कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गई थी। करार के विपरीत कांग्रेस का आचरण बहस का मुद्दा बना था। राकांपा को कांग्रेस ने अपने से अधिक मंत्री पद और लगभग सभी महत्वपूर्ण विभाग यदा- गृह, वित्त, लोकनिर्माण, सिंचाई आदि सौंप कर मुख्यमंत्री पद पर कब्जा कर लिया था। साफ है कि तब कांग्रेस ने बड़ी कीमत चुकाकर मुख्यमंत्री पद पर कब्जा किया था। वह कांग्रेस अब मुख्यमंत्री पद के कार्यकाल में राकांपा को हिस्सेदार कैसे बनाएगी? यह तो हुई तर्क की बात। अब सवाल यह है कि भुजबल ने ऐसी मांग क्यों की और उन्हीं की पार्टी के प्रफुल्ल पटेल ने तत्काल इसे खारिज क्यों कर दिया? वैसे शरद पवार ने भुजबल की मांग को खारिज कर दिया है किन्तु अनिश्चित राजनीति के वर्तमान दौर में उनका रुख क्या होगा, यह कहना अभी मुश्किल है। किस पार्टी को कितनी सीटें मिलती हैं, इसका फैसला तो कुछ घंटों में हो जाएगा किन्तु यह तय है कि अगर राकांपा को कांग्रेस से ज्यादा सीटें मिलीं तब शरद पवार सन 2004 की पुनरावृत्ति के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे। कुछ-एक सीटों की कमी के बावजूद पवार 'गणित' अपने पक्ष में करने की हर संभव कोशिश करेंगे। सन 2004 की कांग्रेसी कसरत को पवार अभी तक भूले नहीं हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने तब अपने विधायकों की संख्या राकांपा विधायकों से अधिक जुटाने के लिए शिवसेना के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे को तोड़ा। राणे और उनके समर्थकों ने कांग्रेस की इच्छा पूरी कर दी। यह दीगर है कि मुख्यमंत्री बनाने संबंधी राणे को दिया गया वचन कांग्रेस निभा नहीं पाई। छगन भुजबल भी पूर्व शिवसैनिक ही हैं। गृहमंत्री के रूप में स्वयं को एक अच्छा प्रशासक सिद्ध कर चुके हैं। ऐसे में उनके मुंह से क्या अकारण कोई शब्द निकल सकते हैं? प्रफुल्ल पटेल की त्वरित प्रतिक्रिया का 'रहस्य' जानने के लिए अभी कुछ प्रतीक्षा करनी होगी। फिलहाल, यही कहा जा सकता है कि पटेल के मुख से भी शब्द अकारण नहीं निकले हैं।

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