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Saturday, October 24, 2009

जनतंत्र को 'मवालीतंत्र' की चुनौती !

महाराष्ट्र के निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कहते हैं कि राज (ठाकरे) की चिंता चाचा बाल ठाकरे करें। गलत! बिल्कुल गलत !! मुंबई में राज निर्मित 'मवाली तंत्र' के बढ़ते प्रभाव पर चिंता भारत के लोकतंत्र को करनी होगी। बाल ठाकरे की कथित चिंता का कारण तो देश की चिंता से पृथक है। संजय गांधी के 'प्रभाव काल' में बातें 'भीड़तंत्र' की हुआ करती थीं। क्या यह बताने की जरूरत है कि संजय के उस तंत्र ने ही लोकतांत्रिक भारत को गैर लोकतांत्रिक आपातकाल के अधीन कर लोगों को उनके संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया था और अब भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मवाली माने जानेवाले राज ठाकरे अपने 'तंत्र' का इस्तेमाल लोकतंत्र के पक्ष में तो नहीं ही करेंगे। फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई ने उन्हें अपने सिर पर कैसे बैठा लिया? यह सिर्फ आश्चर्यजनक ही नहीं एक खतरनाक दर्द है- एक ऐसी पीड़ा है जिसका इलाज शल्यक्रिया से ही संभव है। विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को प्राप्त सीटें और कुल मतों ने मुंबई, ठाणे और नासिक में पूरे के पूरे समीकरण बिगाड़ डाले। आरोप तो पहले से ही थे कि राज ठाकरे को कांगे्रस का आशीर्वाद प्राप्त है। शिवसेना की शक्ति को क्षीण करने के लिए कांग्रेस शुरू से ही राज ठाकरे की मदद करती रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज की सेना के कारण ही मुंबई में कांग्रेस को आशातीत सफलता प्राप्त हुई थी। इस बार विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। कांग्रेस के रणनीतिकार आरंभ से ही अपने विरोधी दलों को कमजोर करने के लिए किसी न किसी 'राज ठाकरे' को पैदा करते रहे हैं। कभी पंजाब में अकाली दल के वर्चस्व को समाप्त करने के लिए स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संत भिंडरावाले की पीठ थपथपा उन्हें आगे बढ़ाया था। यह दीगर है कि अंत में भिंडरावाले भस्मासुर साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या का कारण भिंडरावाले ही बना था। वह भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय था। एक ताजा उदाहरण झारखंड के बाबूलाल मरांडी का भी है। झारखंड राज्य के उदय के बाद मरांडी राज्य के भाजपा मुख्यमंत्री बने थे। भाजपा के अंतर्कलह के कारण जब मरांडी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा तब कांग्रेस ने उनके सिर पर हाथ रख दिया। आज मरांडी झारखंड में वही सब कुछ कर रहे हैं जो राज ठाकरे मुंबई में कर रहे हैं।
अर्थात झारखंड में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस के लिए जीत का रास्ता तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस की इस कूटनीति का मुकाबला कोई करे भी तो कैसे? ठीक है कि जहर ही जहर को काटता है किन्तु इस मामले में मवाली हरकतों का जवाब 'मवालीपन' से कैसे दिया जाए? चाहे कांग्रेस या कोई अन्य जितनी भी सफाई दे ले, इंकार कर ले, यह सत्य अपनी जगह कायम रहेगा कि राज ठाकरे का 'मवालीतंत्र' अंतत: अराजकता का पोषक बनेगा- कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित होगा। यह लोकतंत्र है। चुनाव में विजयी कांग्रेस-राकांपा गठबंधन महाराष्ट्र में सरकार बना लेगी। वे जश्न मनाएं, किसी को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन जिस लोकतांत्रिक प्रणाली में वे सत्ता सिंहासन पर पुन: पहुंचे हैं, उस प्रणाली की पवित्रता को कायम रखने की अधिक जिम्मेदारी भी उन पर है। लेकिन लोगबाग इस पर आश्वस्त नहीं हो रहे हैं। कारण राज ठाकरे हैं। यह ठीक है कि राज ने शिवसेना की हवा निकाल दी है, भाजपा को चोट पहुंचाई है। कांग्रेस को सत्ता सिंहासन पर पहुंचाने में मदद की। किन्तु ठीक यह भी है कि आने वाले दिनों में मुंबई स्थानीय और बाहरी के बीच एक ऐसे हिंसक द्वंद्व से रूबरू होगा जो महाराष्ट्र के गौरवशाली मस्तिष्क को झुका डालेगा। विश्लेषक राज ठाकरे को भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा मवाली यूं ही निरूपित नहीं करते हैं। कभी अपने चाचा बाल ठाकरे के चरणों में बैठकर कथित बाहरी लोगों के खिलाफ घृणा व द्वेष का पाठ पढऩे वाले राज ठाकरे बिल्कुल टपोरी की तरह कथित बाहरियों को निशाने पर लेकर मुदित होते हैं। विश्लेषक ऐसी टिप्पणी करने से भी नहीं चूके हैं कि वस्तुत: बूढ़े मवाली की जगह जवान टपोरी ने ले ली है। इशारा साफ है। बाल ठाकरे ने जो बोया था, आज मुंबई उस फसल को काटने के लिए मजबूर है। लेकिन राज ठाकरे यह न भूलें कि अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए उन्होंने जो रास्ता अख्तियार किया है वह समुद्र में जाकर विलीन होता है। अगर वे चुनाव में अपने अच्छे प्रदर्शन को जनसमर्थन मानते हैं तब बेहतर हो वे मुंबई व महाराष्ट्र के हक में राजनीति की सकारात्मक भूमिका अपनाएं। मवाली या टपोरी का लबादा उतार फेकें। पूरे देश की शान-आन-बान मुंबई को उसके सर्वप्रिय मुकुट से वंचित न करें। क्या राज ठाकरे इसके लिए तैयार हैं?

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