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Thursday, October 8, 2009

नहीं, अब दलित 'वोट बैंक' नहीं!

चलिए, हम राहुल गांधी की इस बात को मान लेते हैं कि वे जाति-व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते। उनकी इस बात को भी मान लेते हैं कि उनका दलित संपर्क अभियान कोई राजनीतिक हथकंडा नहीं है। और, मान यह भी लेते हैं कि उनके सम्पर्क अभियान को मीडिया ने दलित की टोपी पहना डाला। लेकिन उनके इस अभियान ने पार्टी के अद्र्धज्ञानियों को निश्चय ही चौराहों पर दिशाहीन दौड़ के लिए प्रेरित किया। बगैर समझे-बूझे पार्टी के इस तबके ने राहुल गांधी की पहल को 'दलित-नाटक' में बदल डाला। मेंढकी उछाल के लिए विख्यात मीडिया को तो मौका चाहिए था। उसने 'नाटक' के रूप में इसका भरपूर प्रचार किया। वह यह बताने से भी नहीं चूका कि विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की गूंज के बीच जब आत्महत्या करने वाले एक किसान की विधवा के घर राहुल पहुंचे, उसके लिए भरपूर आर्थिक मदद की व्यवस्था की गई। लेकिन उसके तत्काल बाद संपन्न लोकसभा चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार उस क्षेत्र से पराजित हो गया। सिर्फ उस क्षेत्र यवतमाल में ही कांग्रेस पराभूत नहीं हुई बल्कि आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में भी उसे मुंह की खानी पड़ी। मीडिया ने राहुल को यह बताकर शायद उत्तर प्रदेश में उनके नए अभियान को हतोत्साहित करने की कोशिश की। इस मुकाम पर राहुल की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे ऐसे आक्रमण के बावजूद विचलित नहीं हुए। उन्होंने साफ कर डाला कि राजनीतिक लाभ-हानि से इतर वे शोषित वर्ग के उत्थान के लिए अभियान चला रहे हैं और चलाते रहेंगे। एक दार्शनिक की भांति उन्होंने ऐसी टिप्पणी भी की कि जिस दिन उनकी सीखने की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी, उसी दिन उनकी मौत हो जाएगी। राजनीति में सक्रिय प्रवेश के बाद राहुल की गतिविधियों पर नजर रखने वालों में से एक मैं आज यह कह सकता हूं कि वे तेजी से राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त करने की ओर अग्रसर हैं। हां, उन्हें यह अवश्य प्रमाणित करना होगा कि वे अपनी यात्रा में 'ईमानदार' रहेंगे। चूंकि उन्होंने सीखने की बात कही है तो यह जरूरी है कि वे विषय की बारीकी और शब्दों के अर्थ का गंभीर अध्ययन अवश्य करें। तिरुअनंतपुरम में उन्होंने एक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि वे एक चाय की दुकान चलाने वाले के पास गये लेकिन उससे यह नहीं पूछा कि क्या वह दलित है। यह अच्छी बात है किन्तु राहुलजी इस बात को हृदयस्थ कर लें कि जब तक समाज में यह 'दलित' शब्द जीवित रहेगा, वर्ग भेद भी जीवित रहेगा। बेहतर हो कि राहुलजी चायवाले की तरह अपने पूरे अभियान में यह सुनिश्चित करें कि दलित शब्द का इस्तेमाल कहीं ना हो। प्राचीन रूढि़वादी भारतीय समाज का रातोंरात कायाकल्प संभव नहीं, भारत की विशाल आबादी का वर्गीकरण हजारों वर्ष पहले हो चुका है। हां, आधुनिक सभ्य समाज इसका आग्रही नहीं है। किन्तु, इस व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के लिए गंभीरता से कोई सामने नहीं आता। शब्द और कर्म का फर्क इस मामले में जगजाहिर है। मुझे एक घटना आज भी झकझोर जाती है। बाबू जगजीवन राम तब रेल मंत्री थे। पटना में वे एक बार अपने एक पुराने मित्र के घर उनसे मिलने गए। चाय-नाश्ता हुआ, बातें हुईं। मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया कि जगजीवन राम के जाने के पश्चात उनके मित्र के घर की महिलाओं ने उन बर्तनों को जिसमें उन्होंने नाश्ता किया था, बार-बार धोया, पोंछा और आग दिखाई- पवित्र करने के लिए। तब से और आज में फर्क तो है लेकिन ऐसी मानसिकता अभी पूर्णत: खत्म नहीं हुई है। ऐसी घटनाओं के बाद मायावती आरोप लगाती हैं कि दलित के घर से वापस लौट राहुल गांधी विशेष साबुन से स्नान करते हैं। इसे खत्म करना होगा। लेकिन इसके लिए जरूरत है राजनीतिक इमानदारी की। राहुल गांधी अगर सचमुच इस वर्ग के लोगों के उत्थान के प्रति गंभीर हैं, तब उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि 'मुस्लिम वोट बैंक' की तरह 'दलित वोट बैंक' को अन्जाम न दिया जाए। वे सीख रहे हैं तो हम उन्हें बता दें कि हर दल की तरह उनकी कांग्रेस पार्टी भी फिलहाल 'दलित वोट बैंक' के आकर्षण से बंधी हुई है। यह एक सर्वविदित सचाई है। चुनौती है, राहुल गांधी को कि वे अपने शब्दों पर कायम रहते हुए जाति-व्यवस्था के खिलाफ वर्ग-विशेष की राजनीति करने से अपनी पार्टी कांग्रेस को रोक दें। शायद तब अन्य दल भी अनुसरण करने को बाध्य हो जाएं।

1 comment:

Udan Tashtari said...

देखिये, शायद तो आपने भी लगा ही दिया.