Wednesday, October 14, 2009
राजनीति का यह कैसा पतन !
नहीं, यह अकल्पनीय है! मतदाता को आकर्षित करने के लिए राजदल और राजनेता भ्रष्टाचार आधारित हथकंडे अपनाते देखे गए हैं। धनबल से वोट खरीदने से आगे बढ़ते हुए सत्ता-व्यवसाय से जुड़ा यह वर्ग मीडिया को खरीदने से भी बाज नहीं आया। वारांगनाओं की तरह अखबार मालिक कपड़े उतार चौराहों पर बिकने को तत्पर दिखे। कुछ अपवाद अवश्य थे, किन्तु नगण्य। वोट के लिए धन बरसाए गए, शराब की नदियां बहायी गईं और यह सब कुछ लुक-छिप कर नहीं खुले आम हुआ। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। विगत चुनाव में भी ऐसे हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। हां, इस बार ऐसी नंगई बड़े पैमाने पर हुई। आश्चर्य इस पर भी नहीं । इलाज की गैरमौजूदगी में रोग तो बढ़ते ही हैं। इनसे पृथक चुनावी गंदगी का जो नया सच सामने आया उससे पूरा देश शर्मसार हुआ है। मतदाता को भ्रष्ट करने के साथ-साथ इस बार राजदल और उनके नेता अपने कार्यकर्ताओं को भी भ्रष्ट और पापी बनाने से नहीं चुके। खबर आई है कि विभिन्न दलों के उम्मीदवारों ने अपने कार्यकर्ताओं को लुभाने के लिए उन्हें वेश्याएं उपलब्ध कराईं। अर्थात उम्मीदवारों ने दाल मंडी के दलालों की भूमिका निभाई। मुंबई से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार चुनावी थकान से दूर रखने के लिए नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं के लिए ऐसी व्यवस्था की । कार्यकर्ताओं के बलबूते चुनाव जीते जाते हैं यह ठीक है। उन्हें खुश रखने या मनोबल बढ़ाने के लिए नेताओं को वेश्याएं ही कैसे नजर आईं ! पार्टी सिद्धान्त , लोकतांत्रिक जरूरत, उम्मीदवार विशेष का व्यक्तित्व, सामाजिक अपेक्षाएं आदि अनेक ऐसी बातें हैं जिनसे कार्यकर्ताओं को सुसज्जित कर उन्हें चुस्त-दुरुस्त रखा जा सकता है। अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए कार्यकर्ताओं का समर्थन पाप के रास्ते लेना घृणास्पद है। इस नई प्रवृत्ति के प्रकाश में आने के बाद लोकतंत्र के भविष्य, स्वरुप, चरित्र को लेकर चिंतित होना अस्वाभाविक तो नहीं ही । लोग-बाग अब कहने लगे हैं, अगर यही लोकतंत्र है तो फिर पल्ला झाडि़ए और इससे तौबा करने के लिए तैयार हो जाइए। इसे नकारने वालों की लंबी फौज गलियों, कूचों पर दिखने लगी है। तब क्या देश लोकतंत्र के नाम पर मर्शिया पढऩे के लिए तैयार हो जाए? लेकिन नहीं ! हमारे लोकतंत्र की नींव इतनी कमजोर नहीं। इसे मजबूती प्रदान करने वाले युवा हाथ अभी मौजूद हैं। जरूरत इस बात की है कि इन युवा हाथों की पवित्रता कायम रखी जाए। अब सवाल यह कि, इस अहम् काम की जिम्मेदारी कौन ले। राजदलों और राजनेताओं से अपेक्षा बेकार है। लोकतंत्र के रक्षार्थ लिखन-बोलने वाला बुद्धिजीवी वर्ग लोकतंत्र की नींव पर प्रहार करने वाले अवांछित तत्वों से गलबहियां करते दिख रहा है। हां, कुछ आशा इस वर्ग में मौजूद अपवादों से अवश्य है। देश की आशाभरी निगाहें इन्हीं पर टिकी हैं। क्या ये लोग निराश करेंगे? ऐसा नहीं होना चाहिए। झूठ, मक्कारी और भ्रष्टाचार अगर राज-व्यवस्था की देन है तब इसे बदल डालने का अभियान चलाया जाना चाहिए। पतित मक्कारों के हाथों लोकतंत्र की बागडोर हम नहीं सौंप सकते। लोकतंत्र को वेश्या बाजार बनाने वालों को चौराहों पर फांसी दे दी जाए। कोई इसका विरोध नहीं करेगा। यह देश ऐसे गिरे हुए लोगों की बपौती नहीं। आह्वान है युवा पीढ़ी के लिए। उनके लिए अवसर है स्वयं को देश एवं लोकतंत्र के रक्षक की भूमिका में प्रस्तुत करने का। वे विलंब न करें, आगे आएं, लोकतंत्र की बागडोर अपने हाथों में ले लें। पवित्र लोकतंत्र की गरिमा को कायम रखें।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
युवा पीढ़ी से सही आह्वान किया है.
Post a Comment