कहते हैं कि प्रभाष जोशी अनेक युवा पत्रकारों के प्रेरणा-स्रोत हैं। मेरे मन में भी इस आकलन पर कोई संशय नहीं। यह दीगर है कि पत्रकारों का एक वर्ग इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं। तथापि यह सच तो अपनी जगह कायम है कि प्रभाषजी पढ़े जाते हैं, सुने जाते हैं। ऐसे ही पढऩे वाले लोगों के मन में उठ रही एक शंका बेचैन कर रही है। जोशीजी लोकतंत्र के बाजार में बिक रहे पत्रकार और मुनाफे के लिए पत्रकारिता के हर सिद्धांत को ठेंगा दिखाने में अग्रणी समाचार पत्रों की खबर लेने का अभियान चला रहें है। ऐसे अखबारों में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया पर सीधा आरोप लगाया है कि उसने खबरों को पैसे ले कर छापने का काला धंधा शुरु किया है। इस बिंदु पर एतराज स्वाभाविक है। शायद दिल्ली में रहने के कारण उनकी नजर टाइम्स ऑफ इंडिया पर पड़ी। किंतु प्रभाषजी, आप जरा देश के विभिन्न भागों से निकल रहे बड़े-छोटे-मंझोले अखबारों द्वारा जारी खबरों के गोरखधंधे की छान-बीन करें तो पता चलेगा कि असल में पैसे लेकर खबरों को छापने का काला धंधा इन्होंने शुरू किया हुआ है। इसकी शुरूवात 1995 के विधानसभा चुनावों के साथ हुई थी।
चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के खर्चों पर चुनाव आयोग और आयकर विभाग की कड़ी नजर के कारण अखबारों के मालिकों के साथ मिलकर उम्मीदवारों ने इस गोरखधंधे का इजाद किया। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा बड़ा अखबार भी अगर इस गोरखधंधे में शामिल हो गया है तब शायद वह दिन दूर नहीं जब चुनावी खबरें ही नहीं अन्य सभी खबरें भी 'भुगतानीÓ होंगी। चाहे खबरें राजनीति से जुड़ी हो या खेल,व्यापार,शिक्षा,मनोरंजन आदि-आदि क्षेत्रों से। और तब अखबार खबरों के मामलें में 'सत्यभक्षीÓ बनकर रह जायेंगे।
कहीं पढ़ा था कि कुछ अखबार सम्पादीय भी बेचने लगे हैं। फिर शेष क्या रह जायेगा। विभिन्न कॉरपोरेट घरानों द्वारा प्रकाशित 'हाउस मैगजिनÓ और अखबारों में काई फर्क नहीं बचेगा। जोशीजी एवं उनके मित्रों ने मीडिया पर लोक-निगरानी का लोक-संगठन खड़ा करने का निर्णय किया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। किन्तु, ऐसा लोक-संगठन हमेशा विश्वसनीयता का आग्रही होगा। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान खबरों के ऐसे गोरखधंधों के खिलाफ भी जोशीजी ने अभियान चलाया था तब स्वयं जोशीजी को अनेक लोगों ने कटघरें में खड़ा कर दिया था। उनके अभियान की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगाये जाये। आरोप लगे कि उनका अभियान भेद-भाव से अछूता नहीं था। इस पाश्र्व में प्रभाष जोशी को अग्नि परिक्षा से गुजरना होगा। खबरों के ऐसे गोरखधंधे पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिये। सरकारी स्तर पर नियम-कानून बना एसा नहीं किया जा सकता। मै समझता हूं, स्वयं पाठकों को सामने आना होगा। क्योंकि, अगर यह प्रवृत्ति जारी रही तो अंतत: इसकी पीड़ा उसेही झेलनी है। सुबह-सुबह सत्य की जगह प्रायोजित खबरें उनके हिस्से में आयेगी। खबरों द्वारा ज्ञान-वृद्धि की तब कोई सोच भी नहीं सकता। उसे तो हर दिन मिलेगा सिर्फ झूठ और झूठ का पिटारा। जोशीजी व उनके मित्र ऐसे संभावित परिणाम से परीचित ही होंगे। फिर ऐसा क्यों कि कुछ राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान नहीं बल्कि इसके बाद ठोस कदम उठाने की बातें वे कर रहे हैं। चुनाव में अखबारों के बर्ताव का अध्ययन कर अगर वे चुनाव आयोग या प्रेस परिषद में शिकायत करते भी हैं तब मिलने वाले परिणाम की कल्पना कठिन नहीं। पिछले लोकसभा चुनाव के पश्चात ऐसे अध्ययन और शिकायत का हश्र देखने के बाद ताजा पहल के प्रति अगंभीरता आश्चर्यजनक नहीं। बेहतर होगा पाठकों की सहभागिता वाला कोई ऐसा अभियान चलाया जाये जो तार्किक परिणति पर पहुंचने तक अटूट रहे।
No comments:
Post a Comment