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Saturday, October 10, 2009

'हमाम में नंगों के बीच बेचारा शब्बीर'!

'कली बेच देंगे, चमन बेच देंगे
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
अखबार मालिक में लालच जो होगी
तो श्मशान से ये कफन बेच देंगे'

जरा इन शब्दों पर गौर करें। इनमें निहित पीड़ा और संदेश को आप समझ लेंगे। ये शब्द शब्बीर अहमद विद्रोही नाम के एक समाजसेवी के हैं। महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनाव में मध्य नागपुर क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। विद्रोही के अनुसार चूंकि सभी दलों के उम्मीदवार शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जनता के सच्चे हितैषी के रूप में वे प्रतीकात्मक चुनाव लड़ रहे हैं। शब्बीर वर्षों से इस क्षेत्र में गरीब, शोषित वर्ग के लिए संघर्ष करते रहे हैं। स्थानीय अखबार इनकी गतिविधियों की खबरों को निरंतर स्थान देते थे। अब जबकि ये चुनाव मैदान में हैं, इनकी पीड़ा इनकी ही जुबानी सुन लें। शब्बीर ने हमें पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त की है।
वे लिखते हैं, 'मैं समाचार आपको दे रहा हूं। इसलिए कि 1857 देश की आजादी की बुनियाद है। आज अखबार भी पूंजीपतियों के गुलाम हो गए हैं। उसकी आजादी की लड़ाई की 1857 को ही लडऩी पड़ेगी। एक निर्दलीय उम्मीदवार को रूप में मेरी खबरों को कोई अखबार प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। मैंने स्थानीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों को अपने मतदाता संपर्क अभियान की खबरें भेजी, लेकिन उन संस्थानों की ओर से कहा गया कि आजकल 10 लाख का पैकेज है। जब आप देंगे तभी आपकी खबरें छपेंगी। मैं स्तब्ध रह गया। चुनाव में समाचार का अगर बाजारीकरण हो गया है तो आगे भी इसका व्यापारीकरण होना निश्चित है।'
शब्बीर ने खबरों के ऐसे गोरखधंधे की जानकारी जिलाधिकारी के माध्यम से चुनाव आयुक्त को दे दी है। उन्होंने सीबीआई की जांच की मांग करते हुए घोषणा की है कि अगर अखबारों और पैसा देने वाले उम्दवारों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं हुई तो वे उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करेंगे।
शब्बीर के आरोप को एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता। जारी चुनाव अभियान में काला धन पानी की तरह बहाया जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित उम्मीदवारों के लिए खर्च सीमा मखौल की वस्तु बनकर रह गई है। कोई आंख का अंधा भी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में खर्च होने वाली विशाल राशि को देख-सुन सकता है। दिल्ली में कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने ऐसे खर्चों पर निगरानी के लिए एक संगठन बना रखा है। उनके लिए शब्बीर का खुला आरोप एक चुनौती है। और चुनौती है चुनाव आयोग, आयकर विभाग तथा अन्य संबंधित एजेंसियों के लिए भी। अगर ये अंधे और बहरे नहीं हैं तो हम इन्हें आमंत्रित करते हैं महाराष्ट्र के चुनाव क्षेत्रों में भ्रमण के लिए। कोई भी सतर्क-ईमानदार पर्यवेक्षक शब्बीर को आरोप में निहीत सच्चाई को पकड़ लेगा। चुनौती है दिल्ली में गठित संगठन को भी। वे अपने प्रतिनिधि भेजें। खबरों के गोरखधंधे को वे अपनी आंखों से देख पाएंगे। क्या ऐसा हो पाएगा। शायद नहीं। क्योंकि 'हमाम में सभी नंगे' की कहावत अभी जीवित है-दफन नहीं हुई।

2 comments:

Amit.....AAA said...

I am very much agree with your view.If we will not wake up ,definatly Journalism will be become prositution.

anjeev pandey said...

आदरणीय विनोदजी ने विद्रोहीजी की जिस भावना को सबके सामने लाया है, उसकी शुरुआत ही करीब एक दशक पहले से हुई है जब से चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च पर कड़ाई से नियंत्रण शुरू कर दिया। रुपयों का नंगा नाच अगर देखना है तो चुनाव के दौरान देखा जा सकता है। सिर्फ उम्मीदवार ही नहीं बल्कि कुछ अखबार भी इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। अब देखना यह है कि व्यावसायिक हो रही पत्रकारिता की वेश्यावृत्ति रूपी हद कब पार होती है। कभी न कभी तो हर गलत का अंत होता है। देखना यह रहता है कि इसके अंत की शुरुआत कौन करता है और कैसे करता है। बेबाक बयानी के लिए विनोदजी का अभिनंदन।
अंजीव पांडेय