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Saturday, October 17, 2009

चीन की बंदरघुड़की, मजबूत भारत

तब राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को अगाह किया था। बात 50 के दशक के अंतिम दिनों की है। चीन तब तिब्बत पर कब्जा करने के अपने नापाक मंसूबे को अंजाम देने की ओर बढ़ रहा था। तिब्बत के सामरिक महत्व और भारत के साथ प्रगाढ़ संबंध के आलोक में राष्ट्रपति प्रसाद चाहते थे कि भारत हस्तक्षेप कर तिब्बत की मदद करे। प्रधानमंत्री नेहरू तटस्थ बने रहे। नतीजतन चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर विश्व के नक्शे से उसका नाम मिटा दिया। भारत की वह एक बड़ी रणनीतिक पराजय थी। तब पं. नेहरू विश्व समुदाय में अपनी छवि एक शांतिदूत के रुप में स्थापित करने को व्यग्र थे।
मिस्र के कर्नल नासिर, यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो और चीन के प्रधानमंत्री चाउ-इन-लाइ के साथ मिलकर पंचशील का सिद्धान्त प्रतिपादित कर पं. नेहरू संसार के लिए शांति का एक नया अध्याय लिखना चाहते थे। चीन के साथ मित्रता का आलम तो ऐसा था कि हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा भारत के घर-घर का नारा बन चुका था। तब स्कूली छात्र भी भारत-चीन की संयुक्त आबादी और सैन्यशक्ति की चर्चा कर गर्व महसूस किया करते थे। लेकिन हुआ क्या? चीन ने बगैर किसी उकसावे के भारत पर हमला किया और एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया। बात 1962 की है। नेहरू को जब भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों के घुसपैठ की जानकारी दी गई थी तब उन्होंने आवेश में आदेश दिया था कि उन्हें (चीनी सैनिक) खदेड़ दो। कहा जाता है कि नेहरू के उक्त आदेश पर चीनी राष्ट्रपति माओत्से-तुंग मुस्कुरा दिए थे। नेहरू का तब भारत में भी मजाक उड़ाया गया था। हद तो तब हो गई थी जब लोकसभा में पं. नेहरू ने टिप्पणी कर दी कि 'जिन भू-भाग पर चीन ने कब्जा कर लिया है उन पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता।' तब सदन में महावीर त्यागी ने अपने गंजे सिर को दिखाते हुए कहा था कि 'इस पर कोई बाल नहीं उगता तो क्या मैं अपने सिर को काटकर फेंक दूं।' नेहरू निरुत्तर हो गए थे। इन घटनाओं की आज याद नेहरू की गलत विदेश नीति के संदर्भ में प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की पिछली अरूणाचल प्रदेश की यात्रा पर चीनी आपत्ति एक अत्यंत ही खतरनाक संकेत है। हाल के दिनों में भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ की खबरें आती रही हैं। लेकिन आज फिर भारत के शासक पुरानी गलतियों को दोहराते दिख रहे हैं। खतरनाक यह भी है। घुसपैठ संबंधी मीडिया की रिपोर्टों को न केवल सरकार की ओर से खारिज किया गया बल्कि सेना के कुछ पूर्व बड़े अधिकारियों ने तुलनात्मक दृष्टि से चीन के मुकाबले भारत को एक कमजोर सैन्यशक्ति करार दिया। यह ठीक है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है, जो अब चीन के सामने झुक जाएगा। चीन की सैन्यशक्ति भारत से अधिक भले ही हो किंतु इतनी नहीं कि वह भारत को 1962 की तरह पराजित कर सके। भारत भी सामरिक दृष्टि से आज इतना सक्षम है कि वह चीन को मुंहतोड़ जवाब दे सके। चीन अपनी उस पुरानी समझ का त्याग कर दे कि पूरी दुनिया वही चला रहा है। भारत को अब वह डरा-धमका नहीं सकता। अब सवाल यह कि भारत उसे बर्दाश्त क्यों कर रहा है? अगर नेहरू की कथित शांति नीति के आधार पर वह चीन से संबंध बनाए रखना चाहता है तो यह एक बड़ी भूल होगी। प्रधानमंत्री की अरूणाचल यात्रा का चीनी विरोध पूरे भारत देश के लिए अपमानजनक है। यह तो सीधे-सीधे सार्वभौमिकता को चुनौती है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। अरूणाचल प्रदेश को विवादित क्षेत्र बताकर चीन तिब्बत की तरह उस पर कब्जा करने की तैयारी में है। इस आकलन को नजरअंदाज करना भविष्य में खतरनाक साबित हो सकता है। राजनयिक स्तर पर इस मुद्दे को उठा चीन से भारत स्पष्टीकरण पूछे। यह भारत का हक है। जरुरत पडऩे पर विश्वमंच पर भी चीन की बदनीयति की चर्चा हो। विश्व समुदाय में भारत की हैसियत अब एक सुगठित, मजबूत राष्ट्र की बन चुकी है। बल्कि सच तो यह है कि 1962 में चीन के हाथों पराजय के लगभग ढाई साल बाद ही 1965 में भारत में पाकिस्तानी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब दिया था। हमारी सेना तब लाहौर तक पहुंच चुकी थी। उसके बाद से लगातार भारत की सैन्यशक्ति मजबूत होती चली गई। 1971 में पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध प्रमाण है। फिर क्या हम चीन से डर रहे हैं? कोई कारण नहीं है। संभवत: हमारी सदाशयता को चीन कमजोरी समझ डराने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अब माकूल समय है जब चीन को यह बता दिया जाना चाहिए कि भारत उनकी बंदरघुड़कियों से डरने वाला नहीं।

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