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Sunday, October 25, 2009

मानसिक संतुलन तो नहीं खो बैठे हैं बाल ठाकरे!

यह तो हद हो गई। निश्चय ही शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे पगला गए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मराठियों को गालियां नहीं देते। यह नहीं कहते कि मराठी माणुस ने उनकी पीठ पर खंजर घोंप दिया है। कथित रूप से 'आहत' ठाकरे अब महाराष्ट्र से भागना चाहते हैं। कहते हैं कि ऐसे महाराष्ट्र में वह अब रहना नहीं चाहते। घोर धार्मिक ठाकरे भगवान को कोसने से भी बाज नहीं आए। पूछ रहे हैं कि हमने ऐसी क्या गलती की जो मराठियों ने हमारी पीठ में छुरा घोंप दिया। जिंदगी से भी अब तौबा करने की बात करने वाले बाल ठाकरे को क्या यह बताने की जरूरत है कि उन्होंने जो बोया था, उसी की फसल अब उन्हें काटने को कहा जा रहा है। जब अपने कर्मों का फल भोगने की बारी आई तब मराठियों को कोसने लगे। यह मराठी और महाराष्ट्र के साथ अन्याय है। शेर की खाल ओढ़ लेने से कोई शेर नहीं बन जाता। उसकी दहाड़ का स्थायी असर तो कभी होता नहीं और फिर बाल ठाकरे तो सिर्फ 'कागजी' शेर ही रहे हैं। मुंबई में बैठकर दहाड़ते थक चुके ठाकरे जनता, मराठी माणुस और भगवान से विश्वास उठ जाने का विलाप कर भावनात्मक शोषण की कोशिश न करें। इस कठोर सच को जान लें कि उनके विलाप में साथ देने वाला कोई नहीं, सहानुभूति वाले हाथ भी उनसे कोसों दूर रहेंगे। मराठी माणुस ने अगर उनकी पार्टी को चुनाव में धता बता दिया तो फिर इस पर आश्चर्य क्यों? 44 वर्षों तक किस मराठी माणुस के लिए उन्होंने संघर्ष किया? सच तो यह है कि ठाकरे मराठियों के मन में नफरत और द्वेष का जहर घोल उन्हें शेष समाज से अलग-थलग करने की कोशिश करते रहे। क्षेत्रीयता का उन्होंने ऐसा पाठ पढ़ाने की कोशिश की जिस कारण उनके शेष भारत से अलग-थलग होने का खतरा पैदा हो गया। वह ऐतिहासिक महानगर मुंबई जो एक 'गरीब नवाज' के रूप में पूरे देश के जरूरतमंदों के पालक की भूमिका निभाता रहा, उसे घोर संकुचित क्षेत्रीय मानसिकता का पोषक बनाने की कोशिश ही तो ठाकरे व उनका परिवार करता रहा। हिंसा और घृणा का सहारा लेकर उन लोगों को प्रताडि़त किया गया जिन्हें मुंबई व महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्रों ने आश्रय दे रखा है। और यह सब घृणास्पद कदम उठाए ठाकरे ने मराठी माणुस के नाम पर ही तो। अपने सीने पर घृणा-विद्वेष का ऐसा काला तमगा मराठी माणुष क्यों लगाए? उसने स्वयं को समाज व देश से अलग-थलग रखने की जगह बाल ठाकरे को ही अलग-थलग कर दिया। मराठी माणुस ने अंतत: यह साबित कर दिया कि वे क्षेत्रीयता अथवा भाषावाद के पक्षधर नहीं हैं। वह सिर्फ मराठी ही नहीं सर्वसमाज का पक्षधर है। उसने यह भी साबित कर दिया कि महाराष्ट्र व उसकी राजधानी मुंबई किसी की बपौती नहीं, उस पर पूरे देश का अधिकार है। वैसे अगर ठाकरे ने महाराष्ट्र छोडऩे का मन बना लिया है तो बेहतर होगा कि वे तुरंत मुंबई (महाराष्ट्र) छोड़ दें। कम से कम मुंबई शांत तो रहेगी, विकास के क्षेत्र में शांतिपूर्वक नए-नए आयात में खुल पाएगा, भाषा और क्षेत्रीयता के काले धब्बे को अपने माथे से मिटाने में सफल तो हो पाएगा! पूरे संसार में उसकी कभी दमकती आभा वापस मिल जाएगी। बाल ठाकरे का मुंबई छोड़ कर भागना इसलिए भी जरूरी है कि वे तब शेष भारत को पहचान पाएंगे। इस बात का एहसास कर पाएंगे कि भारत देश एक है। वे आश्वस्त रहें, देश का कोई भी हिस्सा उन्हें मराठी समझ दुत्कारेगा नहीं। पलक-पावड़े बिछा उनका स्वागत करेगा, सम्मान देगा। यही तो भारतीय संस्कृति है।

2 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

सब उमर का असर है

सागर नाहर said...

वैसे अगर ठाकरे ने महाराष्ट्र छोडऩे का मन बना लिया है तो बेहतर होगा कि वे तुरंत मुंबई (महाराष्ट्र) छोड़ दें। कम से कम मुंबई शांत तो रहेगी
काश बाल ठाकरे जाते-जाते राज ठाकरे को भी साथ लेते जाते तो और भी अच्छा होता।