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Saturday, October 17, 2009

गुंडों की चुनौती, न्याय प्रणाली को!

...न्याय प्रणाली की ऐसी की तैसी और गुंडों की जय! इस आशय के उद्गार किसी और के नहीं, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायधीश ने प्रकट किए हैं। क्या इसके बाद भी हम अपनी न्याय व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं? कोई भी टिप्पणी पीड़ादायक होगी। न्यायपालिका को हम न्याय मंदिर और न्यायाधीश को देवता मानते हैं- न्याय देवता! न्याय-व्यवस्था के उद्भव के साथ ऐसी मान्यता चली आ रही है। एक यही कारण है कि न्यायपालिका और न्यायाधीश पर टिप्पणी करने से अमूमन परहेज़ किया जाता है। लेकिन आलोच्य प्रसंग में स्वयं एक न्यायधीश ने न्याय प्रणाली पर प्रतिकूल टिप्पणी की है। उनके मन की पीड़ा को समझना कठिन नहीं। कुछ दिनों पूर्व स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश वर्तमान न्याय प्रणाली का 'सीजर की पत्नि' होने पर संदेह प्रकट कर चुके हैं। अनेक ऐसे मामले अब तक सामने आ चुके हैं, जिन्होंने स्वयं अदालतों को कटघरे में खड़ा किया। ताज़ा प्रसंग थोड़ा पृथक है, किंतु न्याय प्रणाली की उपयोगिता को लेकर राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन ने टिप्पणी की है कि अपने विवादों को निपटाने के लिए लोग न्याय प्रणाली से ज्य़ादा स्थानीय गुंडों पर भरोसा करने लगे हैं। निश्चय ही न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में निहित दोष पर चोट की है। यह आज का सच है। बल्कि, यह सच न्यायमूर्ति रवींद्रन द्वारा प्रकट भावना से कहीं ज्य़ादा कड़वा है। इक्का-दुक्का सामर्थ्यवान ही विवादों के निपटारे के लिए गुंडों का सहारा नहीं ले रहे, सरकारी, अर्द्ध सरकारी व निजी बैंक, वित्तीय संस्था आदि भी कानून को धता बता गुंडों का सहारा ले रहे हैं। आए दिन हम ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं। बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान कर्ज संबंधी विवादों के निपटारे के लिए अदालत में न जाकर गुंडों का सहारा ले रहे हैं। कर्ज वसूली के लिए भी इन संस्थाओं ने बजाप्ता वेतन पर गुंडों को पाल रखा है। यह रोग फैलता हुआ ग्रामीण क्षेत्रों तक जा पहुंचा है। ग्राम पंचायत अब महत्वहीन हो चली हैं। गांव में भी आए दिन निपटारे के लिए मुस्टंडों का सहारा लिया जाने लगा है। महानगरों में तो ये दैनंदिन जीवन के अंग बन चुके हैं। मुंबई में 'अंडर वर्ल्ड' और कोलकाता में 'मस्तानों के गुर्गे' ऐसे कार्यों को अंजाम देते हैं। राज नेताओं, फिल्मी दुनिया और बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के विवादों को सुलझाने के लिए इन असामाजिक तत्वों की मदद ली जाती है। न्याय प्रणाली को ठेंगा दिखाते हुए अपना कानून चलाने वाले ऐसे तत्वों ने ही 'गुंडा राज' को अमली जामा पहनाया। क्यों और कैसे इस विकृति ने समाज में जन्म लिया। इसका एक कारण जो बार-बार रेखांकित हुआ है। अदालतों में मुकदमे के निपटारे में देरी और अनिश्चितता। न्यायमूर्ति रवींद्रन कहते हैं कि जब तीस साल तक मुकदमों के नतीजे नहीं निकलते हैं तब लोग मुकदमा करना ही क्यों चाहेंगे। ऐसी स्थिति में पीडि़त पक्ष गुंडों का सहारा लेते हैं क्योंकि उनके पास तुरंत निपटारा हो जाता है। तो क्या समाज इस व्यवस्था को स्वीकार कर ले? कदापि नहीं, यह तो पाप में भागीदारी बनने सदृश होगा। इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। अगर न्याय में विलंब ही इस पाप का कारण है तब यह सरकार का दायित्व हो जाता है कि तत्काल अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की व्यवस्था करे। यह सुनिश्चित किया जाए कि न्याय सरल-सुलभ हो। सुनिश्चित यह भी किया जाना चाहिए कि लोग तो न्याय मंदिर तक पहुंचे, स्वयं न्याय भी लोगों के दरवाज़े तक पहुंचे। मुकदमों के त्वरित निपटारे में समस्या का हल मौजूद है। इस से पूर्व कि पूरी की पूरी न्याय प्रणाली से लोगों का विश्वास उठ जाए, समस्या के इस हल का वरण कर लिया जाए।

2 comments:

नारायण प्रसाद said...

सामथ्र्यवान ---> सामर्थ्यवान

अध्र्द ---> अर्द्ध

वल्र्ड ---> वर्ल्ड



प्रतीत होता है कि आप पहले किसी अयूनिकोड (non-unicode) देवनागरी फोंट में टाइप करते (या करवाते) हैं । फिर उस पाठ को किसी परिवर्तित्र (कन्वर्टर) से यूनिकोड देवनागरी में परिवर्तित कर जालस्थल पर डालते हैं ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

देश में सब से गरीब यहाँ की सरकारें हैं, उन के पास धन नहीं है। धन सब गुंडों के पास है। अब जिस के पास धन होगा, लक्ष्मी होगी वही तो राज करेगा। दो बरस से मुख्य न्यायाधीश लगातार केन्द्र और राज्य सरकारों को चेता रहे हैं। लेकिन लगता है कि वे कानों में उंगलियाँ दिए बैठी हैं।
जल्दी ही देश में अराजकता का राज होगा।
हिन्दी में शुध्द लेखन के लिए मूल इनस्क्रिप्ट टाइपिंग को अपनाइए। इस से अधिक आसान, शीघ्र टंकण औजार कोई नहीं है।