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Monday, October 26, 2009

राहुल गांधी की उम्मीदवारी के मायने !

अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं, दावेदार हैं तब नईदिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में कार्यरत चपरासी-क्लर्क दावेदार क्यों नहीं हो सकते? यह टिप्पणी अथवा प्रतिक्रिया मेरी नहीं, बल्कि वैसे अनेक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की है, जो कांग्रेस की सेवा करते-करते अपने बाल सफेद कर चुके हैं। इन लोगों के अनुसार, राहुल से कहीं ज्यादा राजनीतिक रूप से परिपक्व-सुपात्र कांग्रेस में मौजूद हैं। फिर उनकी उपेक्षा क्यों? सवाल माकूल तो है किंतु कांग्रेस में जिंदगी बिताने के बावजूद कांग्रेस संस्कृति से बेखबर होने के अपराधी हैं ये लोग या फिर जान-बूझकर अंजान बन रहे हैं। यह ठीक है कि कांग्रेस संगठन में अनेक ऐसे सुपात्र मौजूद हैं जो प्रधानमंत्री पद की गरिमा रखते हुए प्रभावी ढंग से देश के शासन को चला सकते हैं किंतु वे किसी नेहरू या गांधी के पुत्र या पोते नहीं हैं। कांग्रेस के एक महासचिव दिग्विजयसिंह ने घोषणा कर दी है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता हैं और प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में एक हैं और उनके संबंध में यह सच भी मौजूद है कि कभी प्रधानमंत्री पद का कीड़ा उनके मस्तिष्क में भी कुलबुला चुका है। उनकी महत्वाकांक्षा एक जमाने में अनेक रूपों में छन-छनकर आलोकित होती रही है, लेकिन समकालीन राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया की असामयिक मौतों के बाद दिग्विजय ने किन्हीं कारणों से अपनी इच्छा पर पत्थर रख लिया। अन्य सफल कांग्रेसियों की तरह तब उन्होंने भी नेहरू-गांधी परिवार का दामन थाम लिया। अपने रुतबे को कायम रखने के लिए नेहरू-गांधी परिवार का स्तुति-गान इनकी मजबूरी बन चुकी है। खेद है कि इस प्रक्रिया में दिग्विजय सिंह लोकतांत्रिक भावना अथवा जरूरत को भूल गए और अपने ही उगले शब्दों को निगलने लगे। जब-जब प्रधानमंत्री पद के लिए डॉ. मनमोहन सिंह के विकल्प की बातें उठीं, तब इन्हीं दिग्विजय ने लोगों के मुंह यह कहकर बंद कर दिए कि 'अभी प्रधानमंत्री का पद रिक्त नहीं है' तो क्या अब प्रधानमंत्री पद खाली है जो उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर डाला। दिग्विजयसिंह ने निश्चय ही, अंजाने में ही सही, कांग्रेस के 'किचन' में पक रही खिचड़ी से ढक्कन उठा लिया है। दिग्विजय की बातें सही साबित होने वाली हैं। शायद मनमोहन सिंह अपना कार्यकाल पूरा न कर पाएं या कर भी लेते हैं तब प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार तो शपथ नहीं ही ले पाएंगे। रही बात पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की तो कांग्रेस का नेतृत्व इससे पहले ही तौबा कर चुका है। आजादी पूर्व चाहे मामला सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुनाव का हो या पुरुषोत्तम दास टंडन का। दोनों निर्वाचित अध्यक्षों को पार्टी के कद्दावर नेतृत्व की इच्छा के आगे झुकते हुए इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा था। आजादी के पश्चात कांग्रेस के एक निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को पार्टी मुख्यालय के बाथरूम में बंद कर निकाले जाने की घटना अभी ताजा है। और तो और इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमंत्री पद के लिए चयन प्रक्रिया से लोकतंत्र गायब था। यही कांग्रेस की स्थापित संस्कृति है। ऐसे में कांग्रेस को लोकतंत्र की सीख देने की पीड़ा कोई ले भी तो क्यों?

2 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत सटीक चीर-फाड़ की है आपने ! मै इस ब्लॉग जगत पर लोगो के विचार पढता रहता हूँ और तब मुझे बेहद अफ़सोस होता है जब मै देखता हूँ कि समझदार से दिखने वाले कुछ उमरदराज लोग भी जब भैया की "ऊल-जुलूल हरकतों ( मै तो ऊल-जुलूल ही कहूंगा ) की तारीफ़ करते नहीं थकते! और कहते है कि भैया इस तरह गाँव-गाँव जाकर देश को समझने की कोशिश कर रहे है, जो आज तक किसी भी युवराज ने नहीं किया! अब इन्हें कौन समझाए कि भैया की ये बचकानी हरकते सिर्फ मूर्ख वोटरों को और मूर्ख बनाने तक सीमित है ! ये लोग जिनकी झुग्गियों में भैया रात बिता रहे है, उनसे तथा भैया से एक साथ पूछा जाए कि आजादी के ६०-६५ सालो के बाद भी इन्हें गरीब रखा किसने ? मगर पूछेगा कौन ? हरतरफ चाटुकारों की भीड़ जमा है ! एक बात और, ये भैया जी उन्ही राज्यों के गरीबो को मिलने क्यों जाते है जिनमे इनकी पार्टी की सरकार नहीं है ?

अजित गुप्ता का कोना said...

कांग्रेस में कितने काबिल लोग है, यह तो शायद भूसे में सुई ढूंढना जैसा विषय है। लेकिन वे सब सत्तावादी लोग है। वे जानते हैं कि उन्‍हें एक ऐसा नाम चाहिए जिसके सहारे वे सत्ता का सुख भोग सके। पहले उन्‍होंने सोनिया को महिमा मंडित किया और अब राहुल को कर रहे हैं। ये दोनों ही माँ-बेटे आजतक भी सीधे भाषण नहीं दे सकते और न ही उन्‍होंने कभी कोई प्रेस वार्ता की है। लेकिन मीडिया और नौकरशाह खुश है। खुश क्‍यों है? वो इसलिए कि उनके बहाने उन्‍हें राज करने का अवसर मिलता है। बुद्धिमान नेता के सामने तो ऐसा अवसर आएगा नहीं। ऐसे राजनेताओं के कारण ही तो हम जंग में जीतकर भी टेबल पर हार जाते हैं। क्‍योंकि टेबल पर जीतने के लिए जिस धारदार बुद्धि की आवश्‍यकता होती है इनमें से किसी में नहीं।