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Monday, October 12, 2009

लोकतंत्र के गले मे फांसी!

अब जब यह लगभग तय है कि लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में करोड़पतियों-अरबपतियों का बोलबाला रहेगा, लोकतंत्र में 'लोक' की भागीदारी को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। कोई भी इस बात से इत्तेफाक नही रखेगा कि देश की आजादी के सूत्रधारों और संविधान को अमली जामा पहनाने वाले हाथों ने लोक तंत्र के वर्तमान स्वरुप -चरित्र की कल्पना की होगी। कौन है ऐसी अवस्था का जिम्मेदार? निश्चय ही, देश के सभी राजनीतिक दल इसके अपराधी है। इस मुकाम पर कोर्ई संदेह का लाभ भी नही दिया जा सकता। हमारे शासक देश की आर्थिक संरचना का ताना-बाना कुछ इस कदर बुनते रहे कि समाज निरंतर अमीर और गरीब में विभाजित होता गया। गरीबों की स्थिति योजनाबद्ध तरीके से शासकों ने ऐसी कर दी कि वे सत्ता में भागीदारी से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित रहें। अमीर वर्ग ने सभी क्षेत्रों मे अपना आधिपत्य जमाने के बाद सत्ता-सिंहासन पर अपनी गिद्ध-दृष्टि जमा दी। विडम्बना यह कि गरीबों के उत्थान का लोक लुभावन नारा दे कर ही अमीर वर्ग सत्ता की सीढिय़ां चढ़ता रहा। फिर, क्या आश्चर्य कि सरकार की आर्थिक नीति से लाभान्वित यही अमीर वर्ग होता रहा है। क्या कोई इस बात से इंकार करेगा कि इस संपन्न वर्ग की जरुरतों को ध्यान में रख कर ही सरकार की आर्थिक नीतियाँ बनती हैं, क्रियान्वित होती रही हैं। सच यही है। क्या आज देश के लगभग एक सौ आद्योगिक-व्यापारिक घरानों ने लगभग सवा सौ करोड़ आबादी की जेबों में हाथ नहीं डाल रखा है। उनकी जेबो को खाली नही कर रहे हैं। पूरे देश को उन्होंने अपना अपना कर्जदार नही बना लिया है? चाहे विद्यार्थी हो, किसान हो, सरकारी-गैरसरकारी कर्मचारी हो, दूध बेचने वाला गवली हो, अन्न-सब्जी बेचनेवाले दुकानदार हों, छोटे-बड़े-मझोले उद्यमी हों या फिर स्व-रोजगार योजना के तहत काम शुरु करने वाले उत्साही युवा हों, सभी इन घरानों के कर्जदार बन चुके हैं। षडय़ंत्र की बानगी ऐसी कि इन तबकों को आर्थिक परेशानियों में उलझा संपन्न शासक वर्ग ने लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक विरासत का नया अध्याय खोल दिया है। अब औद्योगिक घरानों की विरासत की तरह राजनीतिक घरानों में भी परिवार सत्ता की विरासत प्राप्त करने लगे हैं। निश्चय ही, यह लोकतंत्र का मजाक हैं, उसकी भावना के साथ बलात्कार है। यह भविष्य में चौराहे पर लोकतंत्र को फांसी पर लटका देगा। समाज का एक चिंतक वर्ग हैरान-परेशान है कि लोकतंत्र के पक्ष मे उक्त प्रवृत्ति के विरोध के स्वर कहां गायब हो गये? जवाब बहुत आसान है। विरोध अथवा चिंतन-मनन के प्राय: सभी मंचों पर भी को इन घरानों का कब्जा हो चुका है। गिने-चुने कुछ मंच बचे भी हैं, तो उनके स्वर इतने धीमे हैं कि संज्ञान लेने को कोई तैयार नही। तो क्या बौद्धिक चिंतन के क्षेत्र में कभी पूरे संसार को पथ दिखाने वाला भारत का बुध्दिजीवी वर्ग स्वयं अपने गले में फांसी का फंदा डाल लेगा? व्यग्र-बेचैन भारत का युवा वर्ग जवाब का आग्रही है।
देश के कुछ राज्यों में कल होने वाले चुनाव का प्रचार थमने के साथ ही सत्ता-सिंहासन को लेकर आपाधापी मची है। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान धन-बल का बेशर्म प्रदर्शन सर्वत्र दृष्टिगोचर था। इनके खिलाफ कार्रवाई की कोई पहल नही हुई। कारण साफ है। संबंधित एजेंसियां अगर भ्रष्ट नहीं, तो करोड़पति उम्मीदवारों से प्रभावित तो हैं ही। व्यवस्था के विद्रूप चेहरे धन बलियों में भय नहीं, प्रोत्साहन ही पैदा करते हैं। लोकतंत्र के खिलाफ जारी षडय़ंत्र की भागीदार ही है तो यह व्यवस्था!

1 comment:

Lalit Pandey said...

विनोद जी, समाज में लगातार बढ़ रही विषमता और एक सुनियोजित तरीके से बिछाए जा रहे कर्जजाल को आपने बखूबी रेखांकित किया है। मेरे एक मित्र हैं। उनकी उम्र करीब 40-42 साल होगी। वह दावे के साथ कहते हैं- ललित बाबू, समाज में विषमता की जो खाई लगातार चौड़ी हो रही है, उसे देखते हुए कह सकता हूं कि मैं अपने जीते जी देश में गृहयुद्ध होते देखूंगा। आज किसी आम आदमी के हाथ में बंदूक दे दो और पूछो- अब वह क्या करेगा, तो वह नेताओं को भुनने की बात ही कहेगा। खैर।