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Thursday, June 3, 2010

धनबल-बाहुबल के मुकाबले जनबल!

स्वस्थ लोकतंत्र के एक अत्यंत ही सुखद घटनाक्रम पर ध्यान दिया आपने? जी हाँ, मैं चर्चा कर रहा हूं पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकाय के चुनाव परिणाम की। वहां सिर्फ चुनाव में हार-जीत की स्थापित परंपरा आगे नहीं बढ़ी है। लोकतंत्र का एक मजबूत पक्ष उभरकर सामने आया है। एक ऐसा पक्ष जिसकी प्रतीक्षा पिछले साठ वर्षों से हमारा लोकतंत्र करता आया है। कहने को तो प्राय: प्रत्येक राजनीतिक दल भी प्रतीक्षारत रहे हैं। किंतु कड़वा सच यह कि गंभीरता तो दूर किसी ने दिल से प्रतीक्षा नहीं की। यहां तक कि संसद में भी तत्संबंधी संकल्प पारित किये गये, किंतु सिर्फ दिखावे के लिये। कभी भी संकल्प को मूर्त रूप देने की कोशिश नहीं की गई। जी, मैं चुनाव में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी की बातें कर रहा हूं। लोकतंत्र के नाम पर कलंक ये दोनों 'बल' वयस्क मताधिकार की मूल अवधारणा को लगभग समाप्त कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधि के रूप में अनेक दागदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हंै। इनके खिलाफ भाषण होते हैं, लेख लिखे जाते हैं, किंतु सब व्यर्थ! ऐसे दागदारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विरोध करनेवाले नदारद हैं। ऐसी दु:स्थिति के बीच तृणमुल कांग्रेस की ममता बॅनर्जी आशा की किरण बनकर उभरी हंै। जी हां, ममता ने यह जता दिया कि दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ धनबल, बाहुबल पर काबू पाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल निकाय चुनाव में वामपंथी दलों ने इन बलों का खुलकर इस्तेमाल किया था। लगभग तीन दशक से निरंतर सत्ता में रहने वाले वामपंथी दल साम, दाम, दंड, भेद के साथ चुनाव मैदान में उतरते आये हैं। मतदाता को अपने पक्ष में प्रभावित करने के लिए ये लोग मर्यादा भंग करने में सदैव आगे रहे हैं। नाराज मतदाता को प्रताडि़त करने की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन अब तक इन्हें निर्णायक अथवा प्रभावी चुनौती कोई दल नहीं दे सका। एक समय था जब प्रियरंजन दास मुंशी, सोमेन मित्रा, सुब्रतो मुखर्जी, राजेश खेतान आदि कांगे्रस के युवा तुर्क के रुप में उभर वामदलों के खिलाफ सक्रिय हुए थे। लेकिन कांग्रेस की युवा चौकड़ी दलीय गुटबाजी के कारण वामदलों के लिये गंभीर चुनौती नहीं बन सकी। वामदल मुक्त खेलते रहे। लेकिन कांग्रेस से अलग हुई ममता बॅनर्जी ने वामदलों के खिलाफ मोर्चा खोला, जेहाद बोल दिया। पिछला लोकसभा चुनाव और अब स्थानीय निकाय चुनाव, धनबल-बाहूबल को ममता बॅनर्जी ने जनबल से मात दिया है। ममता ने यह प्रमाणित कर दिया कि लोकतंत्र में सर्वोच्च ''लोक'' अर्थात 'जन ' ही है। लेकिन इस बल का समर्थन किसी व्यक्ति अथवा दल को तभी मिलता है जब वह हर स्वार्थ ,प्रलोभन से दूर जनता के साथ खड़ा रहे। ममता बॅनर्जी ने ऐसा कर दिखाया है। नतीजा सामने है। वामदलों अर्थात सत्ता का कोई भी हथकंडा काम नहीं आया। जनता ने ममता का साथ दिया, वे विजयी रहीं। लोकतंत्र के भविष्य के लिये यह एक सुखद संकेत है। और संदेश है अन्य राजनीतिक दलों को कि वे लोकतंत्र के पवित्रता की रक्षा के लिये सिर्फ ''लोक'' का सहारा लें। धनबल-बाहुबल के मुकाबले जनबल को अपना सुरक्षा कवच बनायें। लेकिन ममता बॅनर्जी के लिये भी एक परामर्श! उनका यह कथन कि ''लड़ाई,लड़ाई होती है, दुश्मनी में दोस्ती नहीं''। आंशिक रुप से स्वीकार्य है। ममताजी! दुश्मनी में दोस्ती करके देखें। आपके पांव स्थानीय निकाय से आगे बढ़ विधानभवन तक पहुंच ही जायेंगे।

2 comments:

संजय पाराशर said...

nihsandeh mamta ka agla lakshhy vidhansabha hi hai. rail mantri bani rahkar pure desh ko bor karegi.

आचार्य उदय said...

आईये जाने ..... मन ही मंदिर है !

आचार्य जी