क्षमा करेंगे, यह हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की समझ को खुली चुनौती है! पहले ही महंगाई के बोझ से झुकी कमर के साथ लंगड़ाने-कराहने वाली जनता के साथ यह एक क्रूर मजाक है! अर्थशास्त्र के किताबी ज्ञान व सिद्धांत की जानकारी मुझे नहीं, देश की सामान्य जनता को भी नहीं, घर का बजट बनानेवाली गृहिणियों को भी नहीं। केरोसिन का उपयोग करनेवाली गरीब जनता को तो कतई नहीं! इन्हें अगर जानकारी है तो सिर्फ इस बात की कि वे एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और इस लोकतंत्र का संविधान उन्हें जीने के अधिकार के साथ-साथ रोटी, कपड़ा और मकान की उपलब्धता का वचन देता है। इन्हें यह मालूम है कि वे उस भारत देश के नागरिक हैं, जिसके शासन का अधिकार उन्होंने अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दे रखा है। इस विश्वास के साथ कि वे एक सरल, सुलभ, शांत, सुरक्षित जीवन व्यतीत कर पायेंगे। लेकिन नहीं! शासक हर पल उनके साथ छल कर रहे हैं। दिल्ली स्थित संसद में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि, सांसद और मंत्री के रूप में अतिविशिष्ट नागरिक बन संसार की सभी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे हंै। प्रभावित नहीं होने के बावजूद अपने वेतन भत्ते में दो गुनी-तीन गुनी वृद्धि कर लेते हैं। मजे की बात यह कि सदन के अंदर एक दूसरे की लानत-मलामत करनेवाला पक्ष-विपक्ष ऐसी वृद्धि के पक्ष में एकजुट हो जाता है। आम जनता अर्थात उन्हें निर्वाचित करनेवाली जनता की परेशानियों से इतर इनकी नजरें सिर्फ अपनी सुख-सुविधाओं पर ही रहती है। विडंबना यह भी कि इस प्रक्रिया में अपने मतदाता की वाजिब जरूरतों की कीमत पर ये जनप्रतिनिधि देश के बड़े धन्नासेठों की जरूरतों, लाभ के लिये व्यग्र दिखते हैं। क्या यही लोकतंत्र है, जहां ''लोक'' के पेट पर लात मार बड़े औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाया जाय? फिर दोहरा दूं कि मैं यहां अर्थशास्त्र के सिद्धांत की बातें नहीं कर रहा। उस अलिखित ''लोकशास्त्र' की बातें कर रहा हूं जो लोकहित का आग्रही है। इस शास्त्र से प्रधानमंत्री सहित मंत्रिमंडल के उनके सहयोगी तो परिचित होंगे ही!
मनमोहन सिंह की सरकार ने एक बार फिर देश को निराश किया है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर मुद्रास्फीति में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। सरकार के इस निर्णय के साथ ही न केवल पेट्रोल और डीजल बल्कि केरोसिन और रसोई गैस के दामों में भी भारी वृद्धि हो गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रो पदार्थों की कीमतों के सैद्धान्तिक तर्क को जनता के गले उतारने की कोशिश न की जाय! भारत की आम जनता अभी उतनी समृद्ध नहीं कि इस तर्क को स्वीकार कर महंगाई के बोझ को ढोने के लिए तैयार हो जाय। ये तर्क अर्थशास्त्रियों के लिये है। इसमें सिर खपाना उनका काम है लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि देश की जनता को महंगाई से दूर उपभोक्ता वस्तुएं व अन्य जरूरी सामग्री सस्ते अर्थात आम जनता की 'जेब की क्षमता' के अनुरूप उपलब्ध हो। पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩे से निश्चय ही उपभोक्ता, खाद्य व अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी! क्या यह बताने की जरूरत है कि इसका सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा? समृद्ध वर्ग तो अपनी जरूरतों की व्यवस्था कर ही लेता है उसके पास अनेक दरवाजे उपलब्ध हैं। पिसेगी बेचारी आम गरीब जनता। मध्यमवर्ग और निम्न मध्यम वर्ग हमेशा की तरह प्रताडि़त होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्यों की दुहाई सरकार न दे। विदेश में लोगों की जीवन पद्धति, जरूरतों व उपलब्ध संसाधनों की तुलना भारत से नहीं की जानी चाहिए। उनकी आर्थिक स्थिति व हमारी आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क है। उनकी साधन संपन्नता तो हमेशा हमारी दीनहीनता का मजाक उड़ाते रहती है। भारत सरकार इस परिप्रेक्ष्य में भारतीयों की सोचे, विश्व बाजार की नहीं! पेट्रोलियम पदार्थों में नई वृद्धि देश स्वीकार नहीं करेगा!
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