देश के लोकतंत्र के साथ एक और मजाक! पेट्रोल, डीजल, केरोसिन, रसोईगैस की कीमतों में इजाफा करवा महंगाई के लिए दरवाजे खोल देने वाली सरकार को अब चिंता महंगाई की मार से अपने निर्वाचित सांसदों को बचाने की हो गई है। यह करतब अपने देश में ही संभव है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ऐसी बेहयाई किसी और देश में नहीं देखी जाती। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की इस उपलब्धि पर सिर ही तो धुना जा सकता है! सचमुच महंगाई बढ़ रही है तो बेचारे भूखे-नंगे सांसद अपनी चिंता तो करेंगे ही! यह दीगर है कि घोषित तौर पर भी अधिकांश सांसद करोड़पति हैं-अरबपति हैं। प्रति वर्ष उनकी आय में बेतहाशा वृद्धि होती रही है। किन्तु जनता के बीच बेचारे भूखे-नंगे ही बने रहते हैं। विचारों से भी, कर्म से भी। ऐसे में जब सांसदों ने और बेहतर वेतन पैकेज की मांग की है तब जनआक्रोश पैदा होगा ही! यह अलग बात है कि ऐसे जनआक्रोश का कोई असर न तो सरकार पर होगा और न ही निर्वाचित सांसदों पर। कठोर व संवेदनाशून्य इनके दिल जनता के पक्ष में कभी नहीं पसीजते। फिर भी जनता इन्हें बर्दाश्त करती है। उदार भारतीय लोकतंत्र की यह विशेषता क्या स्थायी स्वरूप को प्राप्त कर लेगी?
सिफारिश की गई है कि सांसदों का मासिक वेतन 16,000 रु. से बढ़ाकर 80,001 रु. कर दिया जाए। यहां मामला सिर्फ वेतन वृद्धि का नहीं, अहं तुष्टि का भी है। सांसदों का वह अहं जो अपने सामने किसी को बड़ा नहीं देख सकता। 80,001 रु. की मांग का तुर्रा देखें! तर्क दिया गया है कि भारत सरकार के सचिव स्तर के सर्वोच्च वेतन 80,000 से सांसदों को 1 रु. अधिक मिलना चाहिए। सांसद नहीं चाहते कि किसी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी को उनसे अधिक वेतन मिले। वे नहीं चाहते कि प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें सलाम ठोकने वाले किसी सरकारी कर्मचारी का वेतन उनसे अधिक हो! सांसदों के इस तर्क को जनता स्वीकार नहीं करेगी। अगर सांसद सचिव स्तर के अधिकारियों से अधिक वेतन चाहते हैं तब योग्यता और पात्रता को भी सांसदों के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। सरकारी अधिकारियों की तरह सांसदों के लिए जवाबदेही भी निश्चित हो। सांसदों से विशेषाधिकार वापस ले लिए जाएं, अन्य सुख-सुविधाएं भी छिन ली जाएं। जब ये सांसद जनप्रतिनिधि और जनसेवक के बीच के फर्क को नहीं समझ पा रहे तब इन्हें जनता बता देगी। सचिव के पद पर पहुंचा व्यक्ति एक विशेष शैक्षणिक योग्यता प्राप्त होता है। कठिन प्रतियोगी परीक्षा में सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण होता है। प्रशासनिक गुर सीखने के लिए उसे प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। उसकी जिम्मेदारी सुनिश्चित रहती है। अनुशासन में बंधा होता है वह। उसे सरकारी नौकर कहा जाता है। इनसे अधिक वेतन के आकांक्षी सांसद क्या अपने लिए ऐसी पात्रता और बंधन को स्वीकार करने तैयार हैं? सांसदों द्वारा स्वयं घोषित संपत्ति को देखने के बाद इनकी मांग को उचित नहीं ठहराया जा सकता। संसद में अब कोई दीन-हीन समाज सेवक नहीं पहुंच पाता। चुनाव लडऩे के लिए और फिर जीतने के लिए करोड़ों रुपये की जरूरत एक सच्चे, ईमानदार जनसेवक को संसद पहुंचने से रोक देती है। करोड़ों खर्च करने में समर्थ व्यक्ति ही आज संसद में पहुंच पाता है। सरकारी अधिकारियों के लिए वांछित योग्यता इनके लिए बंधनकारक नहीं। शैक्षणिक पात्रता कोई रुकावट नहीं। दुखद रूप से हमारे लोकतंत्र में सांसदों की योग्यता, पात्रता को हाशिये पर डाल धनबल की आवश्यकता को ही रेखांकित कर डाला है। निश्चय ही सांसदों की यह नई मांग लोकतंत्र की मूल भावना को मुंह चिढ़ाने वाली है।
1 comment:
sharm....sharm..keval sharm hi vyakt kiyaa ja sakta hai iss par.
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