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Tuesday, June 29, 2010

अपनी छवि बदलने को आतुर प्रधानमंत्री!

संप्रग-प्रथम काल में एक कठपुतली प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहचान बनानेवाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपनी उस छवि से निजात पाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। इस सचाई से वाकिफ कि वर्तमान संप्रग-द्वितीय के बाद तृतीय में वे प्रधानमंत्री नहीं बनने वाले, मनमोहन सिंह की यह कवायद स्वाभाविक है। भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश प्रधानमंत्री के रूप में किसी कठपुतली प्रधानमंत्री को सहन कर भी नहीं सकता। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके पिछले कार्यकाल को देश ने निहायत अप्रभावी निरूपित किया था। अब अगर मनमोहन सिंह अपनी छवि सुधारने को उतावले हो रहे हैं तब क्या यह आशा की जाए कि आम जनता के हक में वे कतिपय क्रांतिकारी कदम उठाएंगे? जब बातें आम जनता की होती हैं तब सिद्धांत से पृथक व्यवहार पर ध्यान दिया जाता है। चुनाव और सरकार गठन के पश्चात आम जनता की चिंता विशुद्ध रूप से घर-द्वार की हो जाती है। उसे आजीविका चलाने के लिए रोजगार चाहिए। बच्चों के लिए समुचित शिक्षा व्यवस्था चाहिए, स्वास्थ्य के लिए चिकित्सा चाहिए। सिर पर छत के रूप में एक मकान चाहिए, भयमुक्त समाज के लिए अच्छी विधि व्यवस्था चाहिए और चाहिए आत्मसम्मान! दु:खद रूप से अब तक मनमोहन सिंह की सरकार इन मामलों में अपेक्षानुरूप सफल नहीं कही जा सकती, बल्कि विफल कही जाएगी। महंगाई में बेतहाशा वृद्धि के कारण त्रस्त जनता के जख्मों पर हमारे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी यह कहकर नमक छिड़क रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। मूल्यवृद्धि पर रोक के उपायों से पृथक ऐसे बयान निश्चय ही सरकार की नाकामी और बेरुखी के सूचक हैं। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया संकेत कि डीजल के दाम और भी बढ़ सकते हैं, पीड़ादायक है। चोट पहुंची है सभी को।
मैं प्रधानमंत्री की जिस छवि सुधार कसरत की बातें कर रहा हूं वह औचित्यविहिन नहीं है। कुख्यात भोपाल गैस कांड के मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन को देश से भगाये जाने और ताजा चर्चित प्रत्यर्पण के मामले में मनमोहन सिंह ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया कि दोषी कांग्रेस सरकार रही है। पूरे मामले में सरकार, राजनीतिक तंत्र और न्यायपालिका की सामूहिक विफलता को भी प्रधानमंत्री ने परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया है। एक पारदर्शी प्रधानमंत्री की तरह मनमोहन सिंह देश की न्यायप्रणाली में सुधार की जरूरत को भी रेखांकित कर रहे हैं। सर्वाधिक निडरता उन्होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों पर दिखाई है। अत्यधिक विलंब से ही सही मनमोहन सिंह ने दो टूक शब्दों में ऐसी राय व्यक्त कर दी कि, ''1984 का दंगा नहीं होना चाहिए था।'' इसके पहले उन्होंने कभी भी दंगे पर ऐसी टिप्पणी नहीं की थी। उनकी टिप्पणी का निहितार्थ स्पष्ट है। उन्होंने एक सिरे से दंगे पर नाराजगी जाहिर की है। अब तक बताये जाते रहे कारणों को खारिज कर दिया है। याद दिला दूं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक सिख अंगरक्षक द्वारा हत्या कर दिये जाने के बाद राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में सिख विरोधी दंगे भड़का दिये गये थे। दंगों का नेतृत्व आम जनता नहीं बल्कि कांग्रेसजनों ने ही किया था। अकेले दिल्ली में हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। कहा गया कि इंदिरा गांधी की हत्या के विरोधस्वरूप उत्पन्न जनाक्रोश ने सिखों को निशाने पर लिया। लेकिन सच ऐसा नहीं था। एक भ्रमित सिख अंगरक्षक के कारण देश पूरे सिख समाज के खिलाफ नहीं जा सकता था। प्रत्यक्षदर्शी और अन्य प्रमाण मौजूद हैं यह सिद्ध करने के लिए कि कांग्रेसियों ने सिख विरोधी दंगे शुरू किये, सिखों के खिलाफ लोगों को भड़काया। दिल्ली के बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता सिख विरोधी भीड़ का नेतृत्व करते देखे गये थे। और तो और इंदिरापुत्र नवनियुक्त प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तब तक यह टिप्पणी कर कि ''जब बड़ा वृक्ष गिरता है तब धरती हिलती ही है'', दंगों का समर्थन कर दिया था। आज जब हमारे सिख प्रधानमंत्री 1984 के उस दंगे को अनुचित निरूपित कर रहे हैं तब निश्चय ही वे तब के कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना भी कर रहे हैं। मनमोहन सिंह ने अपनी छवि सुधारने के लिए ही सही अपनी उक्त टिप्पणी के द्वारा एक कड़वे सच को चिन्हित कर दिया है। अब प्रतीक्षा रहेगी स्व. राजीव गांधी की पत्नी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के मंतव्य की।

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