चाहें तो आप इनकार कर दें, विरोध दर्ज कर दें! देश की वर्तमान राजनीति को बहुत नजदीक से नंगा देखने के बाद मैं मजबूर हूं इस टिप्पणी के लिए कि भारत का लोकतंत्र आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। मैं चर्चा उस लोकतंत्र की कर रहा हूं जिसकी कल्पना देश के कर्णधारों ने की थी, आजादी के बांकुरों ने की थी। मैं चर्चा उस लोकतंत्र की कर रहा हूं जिसमें 'लोक' को सर्वोच्च-सर्वोपरि माना गया था। कल्पना की गई थी कि आजाद लोकतांत्रिक भारत में सर्वाधिकार 'लोक' अर्थात् जनता के पास रहे। अपने भविष्य का निर्णय जनता स्वयं करेगी। हमारा संविधान जन-जन की सुध लेगा। कानून कमजोर तबकों की रक्षा करेगा। एक ऐसा 'समाजवाद' स्थापित होगा जिसमें सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे। कोई शोषित-उपेक्षित नहीं रहेगा। सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध रहेंगे। न्याय का तराजू किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। धर्म, जाति, क्षेत्र की अनेकता के बावजूद एक भारत होगा जहां सिर्फ भारतीय होंगे। कोई भेदभाव नहीं। लेकिन वर्तमान का राजनीतिक सच इन सब अवधारणाओं को ठेंगा दिखा रहा है, झुठला रहा है। लोकतंत्र में वह सब कुछ है सिवाय 'लोक' के। वास्तविक 'लोक' अर्थात् जन शोषित-पीडि़त, असहाय बन अपनी इस नियति पर सौ-सौ आंसू बहा रहा है। और इसके लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो राजनीतिक अर्थात् पालिटिशियन्स!
राजनीति में भ्रष्टाचार, मूल्यों के क्षरण, चारित्रिक पतन, झूठ, छल-कपट, विश्वासघात, असहिष्णुता आदि पर एक प्रदेश के मंत्री के साथ लंबी चर्चा हुई। आदतन मैं उदाहरण दे-दे कर इन व्याधियों को रेखांकित कर रहा था। मंत्री महोदय हां में हां मिला रहे थे। बातचीत के बाद जब बाहर निकला तब मेरे साथ गए मेरे सहयोगी ने विनम्रतापूर्वक टिप्पणी की कि ''भाईसाहब, बातें तो आप ठीक कह रहे थे किन्तु किनके सामने? ...ये भी तो उसी जमात के हैं!'' सहयोगी सही थे। यही तो है आज की राजनीति का कड़वा सच।
अछूता कोई भी दल नहीं। व्यक्तिगत स्तर पर अपवाद स्वरूप कुछ हस्ताक्षरों की मौजूदगी अवश्य संभावित है। अभी पिछली रात ही एक क्षेत्रीय दल के बड़े नेता ने अपने सहयोगी बड़े राष्ट्रीय दल के आचरण पर नाराजगी व्यक्त करते हुए टिप्पणी की कि ''विवाह कर पत्नी की तरह रहा जा सकता है, रखैल की तरह नहीं।'' नेताजी नाराज थे कि उक्त बड़े दल ने उनके प्रदेश से एक धन्नासेठ को राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बना डाला है। जाहिर है धन्नासेठ उम्मीदवार बने तो अपने 'धन' के बल पर! क्षेत्रीय दल के नेताजी को यह स्वीकार नहीं हुआ। अगले कुछ दिनों में संभवत: वे बड़े दल से संबंध विच्छेद भी कर लेंगे। लेकिन यह सचाई तो कायम रह ही गई कि धनबल का इस्तेमाल माननीय सांसद बनने के लिए हो रहा है। पूरा देश घूम लें। राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में आपको धनबल और सिर्फ धनबल का बोलबाला दिखेगा। सरकारी यंत्रणाएं निरीह, विस्मित नेत्रों से मतदाता विधायकों की नीलामी देख रही हैं। विधायक अपनी बोलियां खुद लगवा रहे हैं। करोड़ों में स्वयं को नीलाम करने वाले ऐसे जनप्रतिनिधि क्या लोकतंत्र के प्रतिनिधि हो सकते हैं? इन्हें खरीदने वाले संभावित सांसद संसद में फिर आम जन की आवाज कैसे बन पाएंगे? धन व्यय कर वोट खरीदने वाले तो धन अर्जित करने का ही सोचेंगे! उन लोगों को उपकृत करेंगे जो इनके धनस्रोत हैं! चूंकि ये सब लेनदेन काले धन से होगा, ये सभी भ्रष्टाचार के जनक-पोषक ही तो माने जाएंगे! निश्चय ही ये सभी लोकतंत्र के हत्यारे हैं। लोकतंत्र के नाम पर कलंक हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज लोकतंत्र सौ-सौ आंसू रो रहा है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए।
अब यक्ष प्रश्न यह कि इस लोकतंत्र की रक्षा कौन करे, कैसे करे? ऐसे अपराधियों की विशाल संख्या को क्या मु_ीभर अपवाद चुनौती दे पाएंगे? मुकाबला कर सकेंगे? मैं समझता हूं, यह संभव है। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण रास्ता दिखा चुके हैं। जनबल की आह्लïादकारी निर्णायक भूमिका को 'फायरबैं्रड' ममता बनर्जी ने अभी-अभी रेखांकित किया है। धनबल-बाहुबल को पराजित करने में वे सफल रही हैं। चूंकि लोकतंत्र ही आजाद भारत का 'प्राण' है, देश इसे कभी मरने नहीं देगा।
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