क्या देश का मतदाता सचमुच विवेकहीन है? वह झूठ और सच के फर्क को समझ नहीं सकता? वह सिर्फ जाति और संप्रदाय का पक्षधर है? इतना कि राजदल जब चाहे इस मुद्दे पर उसका भावनात्मक शोषण कर लें? जाति और संप्रदाय के आधार पर राजदल मतदाता को विभाजित कर डालें? भाषा के नाम पर समाज में घृणा का जहर फैलाने में सफल हो जाएं? ताजातरीन घटना में यह देखकर हृदय चाक-चाक हो गया कि अब इनसे आगे बढ़ते हुए क्षेत्रीयता के आधार पर नफरत के बीज बोये जा रहे हैं सिर्फ राजनीतिक या चुनावी लाभ के लिए। दुख ज्यादा गहरा तब हो गया जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस क्षेत्रीय नफरत के झंडे के साथ अवतरित देखे गये। यह वही नीतीश कुमार हैं, जो भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार चला बिहार के माथे पर लगे अनेक काले धब्बों को साफ करने में सफल रहे हैं। बिहार प्रदेश आज एक तेज विकासशील राज्य के रूप में पहचान बना रहा है। कानून-व्यवस्था में अप्रत्याशित सुधार के कारण निवेश के द्वार खुले हैं। लेकिन लगता है मोदी का 'भूत, नीतीश के सिर चढ़ बोलने लगा है। अन्यथा वे बाढ़ पीडि़तों के लिए गुजरात सरकार द्वारा दिए गए 5 करोड़ रुपये वापस करने की घोषणा नहीं करते। ऐसा कर नीतीश ने संभवत: अंजाने ही स्वयं को मोदी की पंक्ति में खड़ा कर लिया है। बिहार और गुजरात के बीच अविश्वास की एक काली रेखा नीतीश ने खींच दी है। यह स्वयं बिहार को स्वीकार्य नहीं होगा। गुजरात को भी नहीं। बिहार और गुजरात के बीच ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। इतिहास में दर्ज है कि महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को बिल्कुल नए रूप में गति दी थी तो बिहार के चंपारण से ही। चंपारण आंदोलन आजादी की जंग का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में पैदा भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ जंग की शुरुआत तो गुजरात से हुई किन्तु उसे सफल निर्णायक मोड़ मिला बिहार के जयप्रकाश आंदोलन से। आज गुजरात में लाखों की संख्या में बिहारी वहां के विकास में सफल योगदान दे रहे हैं। क्या नीतीश इन लाखों बिहारियों को वापस बिहार बुलाना चाहते हैं? क्षेत्रीयता का ऐसा एहसास ही समाज विरोधी है, देशविरोधी है।
जिस अक्खड़पन व अहंकार के आरोप नीतीश मोदी पर लगाते रहे हैं, स्वयं नीतीश इन व्याधियों के शिकार हो गए। इसी बिंदु पर पहुंचकर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या राजनीति के मंच पर सिर्फ अवसरवादी-स्वार्थी ही खड़े हो सकते हैं? क्या कोई ईमानदारी से मूल्यों की रक्षा करते हुए नि:स्वार्थ जनसेवा कर राजनीति नहीं कर सकता? नरेन्द्र मोदी के प्रति नीतीश कुमार की कुंठा जगजाहिर है। पिछले बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान नीतीश की इच्छा का आदर करते हुए भाजपा ने चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार नहीं भेजा था। नीतीश नहीं चाहते थे कि कट्टïर हिंदूवादी मोदी के कारण बिहार का मुस्लिम मतदाता उनसे दूर हो जाए। तब नीतीश की नीति सफल हुई। लेकिन इस बीच अपने शासनकाल के दौरान राज्य में उपलब्धियों का सारा श्रेय नीतीश ने अपने खाते में डाल लिया। भाजपा की असली चिंता यही है। उसने भी चुनावी स्वार्थ को प्राथमिकता दे अपनी रणनीति तैयार कर दी। नीतीश के इशारे को समझ भाजपा नेतृत्व ने राज्य में अकेले चुनाव लडऩे का मानस बना लिया है। ऐसा मानस नीतीश पहले ही बना चुके थे। दोनों अब धर्म और संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़ेंगे। नीतीश ने अगर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाना शुरू किया है तो दूसरी ओर भाजपा स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक वर्ग और उच्च जातियों को अपने पाले में करने की कड़ी कोशिश कर रही है। यह तो लगभग तय है कि भाजपा नरेन्द्र मोदी को 'स्टार प्रचारक, के रूप में बिहार में उतार रही है। बिहार में तब एक असहज चुनावी वातावरण तैयार होगा। दु:खद रूप से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और पिछड़ी बनाम अगड़ी के बीच विभाजक रेखा खिंचेगी। इससे उत्पन्न तनाव खून खराबे को भी आमंत्रित कर सकता है। दोषी दोनों पक्ष करार दिए जाएंगे, चिंता का विषय यही है। और तब मतदाता के विवेक की भी परीक्षा होगी।
2 comments:
भारतीय मतदाता की नियति बन गई है यह सब झेलना..
यही तो है तुष्टिकरण की राजनीती
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